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Showing posts from July, 2019

बाढ़ि, बाइढ़, दाही, रौदी आदि विषय श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे (लेखनमे)

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बाढ़िक विकराल दृश्य आँखिक आगू नाचए लगैए। घोड़ोसँ तेज गतिसँ पानि दौगैत। बाढ़ियो छोटकी नहि, जुअनकी नहि, बुढ़िया। बुढ़िया रूप बना नृत्य करैत। केकरा कहूँ बड़की धार आ केकरा कहूँ छोटकी, सभ अपन-अपन चीन-पहचीन मेटा समुद्र जकाँ बनि गेल। जेमहर देखू तेमहर पाँक घोराएल पानि, निछोहे दच्छिन-मुहेँ दौगल जाइत। केतेक गाम-घर पजेबाक नइ रहने घर-विहीन भऽ गेल। इनार, पोखैर, बोरिंग, चापाकल पानिक तरमे डुबकुनियाँ काटए लगल। एहेन भयंकर दृश्य देख लोककेँ डरे छने-छन पियास लगलोपर पीबैक पानि नइ भेटैत। जीवन-मरण आगूमे  ठाढ़ भऽ झिक्कम-झिक्का करैत। घर खसल, घरक कोठी खसल, कोठीक अन्न भँसल। जेहने दुरगैत घरक तेहने गाइयो-महींस, गाछो-बिरीछ आ खेतो-पथारक। घरक नूआँ-वस्तर आ बासन-कुसनक संग आनो-आन समानक मोटरी बान्हि माथपर लऽ अपनो डाँड़मे दू भत्ता खरौआ डोरी बान्हि आ बेटोक डाँड़मे बान्हि आगू-आगू मुसना आ पाछू-पाछू घरवाली-जीबछी, बेटी-दुखनीकेँ कोरामे लऽ कन्हा लगौने पोखैरक ऊँचका महार दिस चलल। अखन धरि ओ महार बोन-झाड़ आ पर-पैखानाक जगह छल, जइमे साँप-कीड़ा बसेरा बनौने, बाढ़ि ओकरा घराड़ी बना देलक। जहिना इजोतमे छाँह लोकक संग नै छोड़ैत, तहिना बर्खा बाढ़िक संग छो

बाढ़ि, बाइढ़, दाही, रौदी आदि विषय श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे (लेखनमे)

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“केकरो किछु हौउ मुदा जेकरा लूरि रहतै ओ जीबे करत। ऐठाम देखै छिऐ जे एक्के दहारमे किदैन बहारक खिस्सा अछि। सभ हाकरोस करैए!”  मुँहक रोटी मुसना हाँइ-हाँइ चिबा जीबछी दिस देखैत बाजल-  “तेते ने माछ भँसि-भँसि आएल अछि जे खत्ता-खुतीमे सह-सह करैए। कनी पानि तँ कम हौउ। जखने पानि कम भऽ उपछै-जोकर भेल आकि मछबारि शुरू कऽ देब। खेबो करब आ बेचबो करब। हरिदम दू पाइ हाथेमे रहत।”  अपन नहिराक बात मन पड़िते जीबछी बाजए लगल-  “ हमरा नैहरमे पच्छि‍मसँ गंडक आ पूबसँ कोसीक बाढ़ि सभ साल अबै छेलइ। तैबीच जे धार अछि ओकर पानि तँ घुमैत-फिरैत रहिते छल। सगरे गाम साउनेसँ जलोदीप भऽ जाइ छेलइ। टापू जकाँ एकटा परती-टा सुखल रहै छेलइ। ओइपर सौंसे गामक लोक बरसाती घर बना रहै छल। कातिक अबैत-अबैत खेत सभ जागए लगै छेलइ। तेकर पछाइत‍ लोक खेती करै छल। गहिंरका खेत आ खाधि-खुधिमे भैंटक गाछ सोहरी लागल जनमै छेलइ। अगहन बितैत-बितैत ओ तोड़ैबला हुअ लगै छेलइ। हम सभ ओइ भैंटकेँ तोड़ि-तोड़ि आनी, ओकरे दाना निकालि सुखा कऽ लावा भूजी। तेते लावा हुअए जे अपनो खाइ आ बेचबो करी। ..काल्हि गिरहत काका ऐठाम जाएब आ कहबैन जे चौरीमे जे मनसम्फे भैंट जन्‍मल अछि, ओ हमरा दऽ दिअ।” अ

Jagdish Prasad Mandal मैथिली साहित्यमे बाढ़ि, बाइढ़, दाही, जीवन-संघर्ष

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“की हेतै, कियो कपार लऽ लेत। भगवान जे भोग-पारसमे देने हेता ओ हेबे करत। जे नै देने हेता से अपनो केने थोड़े हएत। तइले एते आगि-अंगोरा होइक कोन काज छइ। नोकसाने की भेल, खपड़ा गलि कऽ माटि हएत, ओकरा फेर‍ खपड़ा पाथि सुखा कऽ भट्ठा लगा लेब। जरनो भीजबे ने कएल ओकरो सुखा लेब। गिरहत सभकेँ देखै छिऐ हर-जन लगा खेती करैए आ बाढ़िमे दहा जाइ छै तँ की ओ मरि जाइए आकि खेती छोड़ि दइए। तहिना हमरो भेल। भगवान समांग देने रहैथ। सभ किछु फेर‍ भऽ जाएत।” पतिक बात सुनि फुलेसरीक मन थीर भेल। मुदा तैयो मन खौंझाएले रहइ। बाजल- “भगवानो दुष्‍टे छैथ‍‍। जानि-जानि कऽ गरीबे लोककेँ सतबै छथिन। जहिना ओ करै छथिन तहिना ने हमहूँ सभ करै छिऐन‍। ने एकोटा उपास करै छी आ ने एको दिन पूजा करै छिऐन‍।” पत्नीक बात सुनि मुस्की दैत सुरतिया बाजल- “अच्छा आब भऽ गेल। जहिना ओ केलैन तहिना अहूँ करिते छिऐन‍। सधम-बधम भऽ गेल।” मछुआ सोसाइटी बनने किछु गोरे उठि-बैसल आ किछु गोरे गोपलखत्तामे चलि गेल। ओना, सोल्‍होअना पोखैर‍ सोसाइटीमे अखनो धरि नै गेल अछि मुदा जे गेल ओकर मुआबजा तँ पोखैरबलाकेँ नै भेटल। सोसाइटी बनने नव पनिदार मालिकक जन्म जरूर भऽ गेल। किएक तँ एक गोरेक

श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे, मैथिली साहित्यमे मिथिलाक बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार

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#जीवन_संघर्ष   अदौसँ अबैत खेतीमे नव जागरण भेल। हरक जगह ट्रेक्टर, करीनक जगह दमकल-बोरिंगक संग-संग नव-नव औजार किसान तक पहुँचल। नव-नव बीआक अनुसन्धान भेल। कृषिक महत बढ़ने शिक्षाक विकास भेल। उपजा-ले रासायनिक खाद, कीट-नाशक दवाइ इत्यादिक उपयोग शुरू भेल। जइसँ खेतीक उत्पादनमे आश्चर्यजनक वृद्धि‍ भेल। देशक किसानमे नव चेतनाक सिरजन भेल।  मुदा भारत सनक देशमे जेते आ जइ गतिए विकास हेबा चाही से नइ भेल। ओना, जइ राज्य क सरकारोक नजैर‍ आ किसानोक नजैर‍ खेती दिस बढ़ल ओ जरूर विकास प्रक्रि‍याकेँ पकड़ने रहल। मुदा जइ राज्यमे से नइ भेल ओइ राज्यक कृषि पुन: ठमैक‍ गेल। ओना, मिथिलांचलक संग आरो-आरो संकट छइ। जइ कारणेँ विकास-प्रक्रि‍या आगू बढ़ैक कोन बात, ठमकैक कोन बात जे पाछुए-मुहेँ ससरए लगल। जेकर कारण छेलै बाढ़िक विभीषिका। एहेन-एहेन पहाड़ी‍ धार सभ अछि जे खाली पानिएसँ नाश नै करैत बल्‍कि‍ खेतक माटि काटि-काटि नव-नव धारो बनबैत अछि आ उपजाउ माटिकेँ सेहो भँसा-भँसा बाउलसँ भरैए। जइसँ खेतक उर्वराशक्तिये चौपट कऽ दैत अछि। नव धार बनने गामो घर उजैर‍ जाइए‍। खेत-पथार सेहो नष्ट भऽ जाइए, तँए जरूरी अछि धारक ऐ उपद्रवकेँ नियंत्रित करब। जाध

श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे, मैथिली साहित्यमे मिथिलाक बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार

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मंगलकेँ अपन मात्रिकक एकटा बात मन पड़लैन। मात्रिक कोशिकन्हामे अछि। पूबसँ कोसी आ पच्छि‍मसँ कमला गामकेँ घेरने रहए। बिचला सभ धार एक-दोसरमे मिलल। ओइ गाममे बाँसक बोन। बाँसक एकटा बीट गहींरगरमे छल। खूब सहजोर बाँस रहए। चालीस-चालीस हाथक बाँस ओइमे। अगते धार फुला गेल। बाढ़ि आबि गेल। गामक सभ माल-जालक संग गाम छोड़ि कुटुमारे चलि गेल। कातिकेमे घुमि कऽ औत। एहेन परिस्थितिमे मातृभूमि केना स्वर्ग बनि सकैए‍! ओइ बाँसक बीटमे दस-बारह हाथ पानि लगल रहए। ओइ बीटमे दस-बारह हाथ ऊपरसँ सौंसे बीट कोंपर दऽ देलक। जे अपनो देखनहि रही...। 

श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे, मैथिली साहित्यमे मिथिलाक बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार

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मीनमे घर बना लेलक। केना नै बनबैत? एक तँ पुश्‍तैनी गामक सिनेह आ अपन सम्पैतो तँ छेलइ। छह मासक पछाइत‍ धार सुखि गेल। मुदा उपजो-वाड़ी आ गाछो-बिरीछ अदहा-छिदहा भऽ गेल। किछु गोरेक मालो-जाल नष्ट भेल। अनरनेबा, धात्री, लताम, कटहर इत्यादिक गाछ उपैट‍ गेल, दूटा पोखैर‍ आ पाँचटा इनार धारक पेटमे समा गेल। जइसँ लोकक मनमे डर पैसए लगल। गामक माटि-पानिक सिनेह सेहो कम हुअ लगल। बिसवासू जिनगी अनिश्चि‍तता दिस बढ़ए लगल। किछु गोरे आन गाम जा बसैक बात सोचए लगल। मुदा जेकरा खेत-पथार रहै ओ करेजपर पाथर रखि रहैले मजबूर भऽ गेल। तेसरा साल बाढ़ि सभसँ भयंकर रूपमे आएल जइसँ गामक खेतो-पथारक रूप नष्ट भऽ गेल, गाछो-बिरीछ नष्ट भऽ गेल आ लोकोक जान अवग्रहमे फँसि गेल। छातीमे मुक्का मारि सभ गाम छोड़ि देलक। सन्‍मुख कोसी गाम होइत बहए लगल। तीस बर्ख तक, एक रफ्तारमे बँसपुरा होइत कोसी बहैत रहल। गामक सभ आन-आन गाम जा बोनिहार बनि गेल। जेकरा-जेतए जीबैक गर लगलै ओ ओतए चलि गेल। अधिकतर लोक नेपाल पकैड़‍ लेलक। जाधैर लोककेँ अपना पूजी रहै छै ताधैर ने किसान वा कारोबारी रहैए मुदा पूजी नष्ट भेने तँ खाली-हाथ बँचि जाइए। बँसपुराक सभ बोनिहार बनि गेल। कोसी एल

श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे, मैथिली साहित्यमे मिथिलाक बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार

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कथा- # चोर_सिपाही चोरिक बाढ़ि एने गामे-गाम चोरक सोहरी लगि गेल। जहिना घोरन लुधकैत तहिना चोरो लुधकए लगल। सेहो एकरंगा नहि, सतरंगा! पाँखिसँ बिनु पाँखिबला घोरने जकाँ घुरछा-घुरछे! जेकर बहुमत तेकर राज-पाट! शासक-सँ-सिपाही धरि...। अगहन मास। गामक अदहासँ ऊपर उपजल धानक खेतमे 144 लगि गेल। कोनो बटेदारीक चलैत तँ कोनो फटेदारीक। सरकारियो काज तँ सरकारीए छी। एक घन्टाक काज मासो दिनमे हएत तेकर कोनो गारंटी नहि। तखन 144 मे जप्त भेल खेत 44 दिनक बदला 44 मासो रहि सकैए। खाएर...।  ओस पला गेल। दिन खिआ कऽ पानि भऽ गेल। दिन-राति शीतलहरीमे डुमि गेल। दर्जनो भरि सिपाही धानक ओगरबाहि करैत अपना जिनगी दिस तकलक तँ बुझि पड़लै जे जान बँचब कठिन अछि। पहिल सिपाही बाजल- “खस्‍सी मासु खाइ-जोकर समय अछि।” दोसर सिपाही बाजल- “जँ बनबैले तैयार होइ तँ खस्‍सी आनि देब।” सएह भेल। दूटा सिपाही विदा भेल। जेना हाथमे हथियारो आ देहमे वर्दियो रहबे करइ तहिना दिनके देखल खस्सियो आ घरो छेलैहे। अपने जकाँ एक गोरे मुँह दबलक आ दोसर उठा कऽ लऽ अनलक। बना-सोना कऽ सभ भरि मन खेलक। मुदा दोसरे दिनसँ दुनू सिपाहीकेँ आन-आन सिपाही ‘चोरबा’ कहए लगल। सालो नइ लगलै, ग्‍

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किसानक देश भारत, जेकर अधार कृषि, जे सालक-साल बाढ़ि-रौदीक चपेटमे पड़ैत रहैए। मुदा बाढ़ि-रौदीक तँ अपन हिसाब छइ। बेसी बरखा भेल तँ बाढ़ि आएल उपज दहा गेल आ रौदी भेल तँ उपज जरि गेल। मुदा दुनूक अपन-अपन बान्हल समय छै, बाँकी तँ बिसवासू समय अछि। तइले किछु ने भेल। किसान आन्‍दोलनसँ पछिमी कोसी नहर बनैक योजना बनल। मुदा केते खेतकेँ नहैरसँ लाभ होइ छै आ केते उपजाउ खेत मारल गेल? खाएर जे भेल से भेल मुदा चुनाव सनक महापर्वकेँ नीक जकाँ सफल करब मरलाही गामक लोकक मनमे जागले अछि। टोले-टोल, जातिये-जाति पंचायत चुनाव लड़ैक क्रममे आबिये गेल अछि। मुदा कोनो उम्मीदवारकेँ मुद्दा नइ भेट रहल छै, जे एक उम्मीदवार दोसरकेँ पछाड़ि केना जीतत। सभ एक रंगाहे एक चलिये...। # साभार_डभियाएल_गाम  (कथा)  # कथाकार_जगदीश_प्रसाद_मण्डल  

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तेरह-चौदह बर्खक बच्चाकेँ केना शुभ-अशुभ दुनू बात कहबै जे बौआ बाढ़िक पनरह दिन ओहन भेल जे मनक बिसवास समापते जकाँ भऽ गेल रहए जे बाढ़िक उगरासक पछाइत परिवारक सभ जीवित बँचल रहब कि नहि। केना कहबै जे भुमकममे घरे देहपर खसि पड़ल रहए। अपन सोग-पीड़ा किए अनेरे पोताकेँ पाबैनक दिन कहबै।  मुदा लगले मन हूमरलैन, हूमरलैन ई जे जँ अपन सोग-पीड़ा नै कहबै तखन ओ वंशक वंशावलीक जे सोझ रस्ता बनल आबि रहल अछि ओइमे कटारियो बनत किने! देहसँ श्रम करैबला वंश श्रमक चोरि जान-अनजानमे कइये रहल अछि जइसँ जिनगीक धारा  बदैल रहल छै, तेहेन स्थितिमे ओहनो तँ असंख्‍य लोक छैथे जे अपन पुरुखाक जीवन-धारक बीच अपन धार मिलबैत ऐगला पीढ़ी लेल सत्यम् शिवम् सुन्‍दरम्-क धार फोड़ि आगू धकेले रहल छैथ। मुदा कोनो बातो विचारैक तँ जगहो होइते छै, ऐठाम दूधमुहाँ बच्चाकेँ की कहबै, केते कहबै? पोखैर-इनारक पानि जकाँ जीतलाल बाबाक मन रसे-रसे थीर हुअए लगलैन। नीक जकाँ मनकेँ थीर करैत थारी-बाटीक पानि जकाँ जखन थीर बुझि पड़लैन तखन बजला- “बौआ, पाबैनक ओरियानक की सभ विचार करै छह?” # जेपीएम_गद्य ,  # गामक_शकल_सूरत  

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“परसुका सगुन बढ़ियाँ रहल!” बेलबाक सगुन सुनि लेलहा खिसिया कऽ बाजल-  “सगुन-तगुन किछु ने होइ छइ।” लेलहाक तामस बेलबा बुझि गेल जे भुखाएल बिलाइ खौंझाइते छइ। जखन ओहो दम मारत तखन ने मन असथिर हेतइ। ताबे लेलहा-हाथ चीलम पहुँच गेल। जिराएल लेलहा रहबे करए, तेते जोरसँ दम मारलक जे एक बित धधड़ा चीलमसँ धधैक गेलइ। दम मारि जहिना हाथसँ चीलमक धधड़ा मिझेलक तहिना अपनो मनक धधड़ा मिझा गेलइ। मुदा तेतरा लेलहाक बातकेँ पकैड़‍ लेलक। दोहरौनी भाँज जाबे चीलमक शुरू होइ तैबीचमे सवाल फँसि गेल। अपनेमे दू पाटी बनि गेल। दू गोरे कहै जे सगुन-तगुन किछु ने होइ छै आ दू गोरे कहै जे होइ छइ। तेहाला कियो नहि, जेकरा दुनू पंच मानि फरिछबैत। रूकल चीलमकेँ धुँआइत देख‍ लेलहा बाजल- “झगड़ा ने दन चुन-तमाकुल किए बन्न हौ, गप्पो चलतै आ चीलमो चलए दहक।” जहिना एकघोंट चाह पीला पछाइत‍ आकि एक कौर खेला पछाइत‍ दोसर अपने अबै लगैत तहिना लुबलुबाइत लेलहा बाजल- “सगुन-तगुन किछु ने होइ छइ।” दोहरा कऽ बेलबा दम मारि चीलम आगू बढ़बैत बाजल- “सगुन बड़ पैघ गुण छिऐ, तँए एकरा दोखी बनाएब उचित नइ हएत?” बेलबा आ तेतराक विचार एक बटिया रहै तँए एक दिस भऽ गेल आ झिंगुरा, लेलहाक

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नव पद्धतिक पढ़ाइ एकभग्‍गू भऽ गेल अछि, जखन‍ कि जीवन काका समग्रतामे बिसवास करै छैथ। मुदा जीवन काकाकेँ अपनो मन उग-डूम तँ करिते छैन‍ जे बेटा ई बात अखन‍ धरि किए ने बुझि पौलक जे भँसि‍ गेल! माए-बाप जीबिते दिशा ने बेटा-बेटीकेँ सि‍खौत-पढ़ौत आकि जिनगी भरि संगे-संग रहि‍ बेर-बेर सि‍खबैत रहत। जँ से हेतै तँ जिनगियो आ कालखण्‍डोक बँटवारा केना हेतइ। की आब किछु कहब उचि‍त हएत? उचि‍त तँ ओही दि‍न तक होइत जइ दि‍न काज क रैले डेग उठबए लगल। मुदा आब..?‍ गंभीर प्रश्न जीवन कक्काक आगूमे गंभीर परिस्‍थिति पैदा कऽ देलकैन। जँ बताह जकाँ बड़बड़ा बेटोकेँ कहबै आ पुतोहुओकेँ कहबैन आकि टोकारा पाबि खिसिया कऽ गाम दि‍स टहैल समाजोकेँ कहबैन, से उचि‍त हएत? काजक तँ फले काजक पूर्णता छी। ऐठाम तँ ओहूसँ बेसी परिस्‍थिति चहैक गेल अछि! तेहेन पढ़ाइ-लिखाइ भऽ गेल अछि जे अखन‍ ने मोटगर पाइ देखै छै, मुदा रिटायर करिते अदहा भऽ जाएत, आ बेटा-बेटीक जिनगी तेते भारी भऽ जेतै, जे सम्हारि नै पौत। एहेन परिस्थितिमे कियो माए-बापकेँ आकि बेटा-बेटीकेँ देखत? उगैत सुरुजक दर्शन ने शुभ होइ छै आकि डुमैत सुरूजक! तखन‍? जेकरा मूस जकाँ बिल खुनैक लूरि नै छै तेकरा-ले दु

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माथपर मोटरी नेने रवि शंकरक डेग आगू दि‍स बढ़ैत गेल, मुदा मनमे बेर-बेर पानिक हि‍लकोर जकाँ उठैत रहै जे विश्वविद्यालय स्तरक कार्यक्रम भेल, बेकती-विशेषक नै छल, तखन‍ किए ने बुझलौं? ..ने प्रश्नक जड़ि भेटै आ ने विचार आगू बढ़इ। मुदा तैयो बाढ़िक पलाड़ी जकाँ बहबे करइ। मन बहकलै, इन्दि‍रा अवासक जेकरे पक्का घर रहै छै हथि‍याक झटकीमे खसल घरक अनुदानो तेकरे भेटै छइ। सएह ने तँ भेल। की अहि‍ना भोजे-भातक शिक्षण संस्थान  बनल रहत? धू:! अनेरे मनकेँ बौअबै छी। ठीके लोक बताह कहैए! एहने-एहने बतहपनी सोचने ने लोक बताह होइए! अनेरे हमरे किए एते सोग अछि। ‘जानए जअ आ जानए जत्ता।’ लसि‍गर होइ आकि खढ़हर से ओ जानए। हमहीं की बजितौं जे अनेरे माथ धुनै छी। बड़ बजितौं तँ यएह ने बजितौं जे साहि‍त्य जगतमे मध्‍यकालीन युग स्‍वर्णिम रहल। भक्ति‍मय साहि‍त्यक सृजन एते कहि‍यो ने भेल, मुदा भक्ति‍ साहि‍त्यक पछाइत‍ वैराग्य अबैत आकि श्रृंगार? एबाक चाहै छल ‘वैराग्य’ से नइ आबि ‘श्रृंगार’ आबि गेल! समैयो मुगले शासनक छल। मिथि‍लांचलक किसानक सुदि‍न नै दुर्दिन छेलइ। बीससँ तीस रौदी प्रति‍ सदी होइत आबि रहल छेलै, बाढ़ि-झाँट छोड़ि कऽ। तैसंग बड़का-बड़का भ

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बाढ़ि-रौदी एकैसम शताब्‍दीक ऊपज नहि, अदौसँ रहल अछि। भलेँ कहि सकै छी जे धार-धुरक बान्‍ह-छान्‍ह दुआरे हुअ लगल अछि, भऽ सकै छै, केतौ-होइत हेतै, मुदा प्रश्न धारेक पानिक नहि अछि, तहिना रौदियो रहल अछि। धारोक कटनी-खोंटनी कम नहि अछि। मिथिलांचलकेँ कोसी-कमला तेखार कऽ देने अछि। प्रश्न अछि बाढ़िक जड़ि। पहाड़ी धार छी, जे दुब्‍बरसँ धोधिगर धरि अछि। पानिक एक साधन भेल, दोसर बरखा भेल। ओहन-ओहन बरखा होइत रहल अछि जे पनरह-पनरह दिनक ओरियान पहिनहिसँ कऽ कऽ पूर्वज रखै छला। हथिया मात्र एक नहि जेकरा बरखा  ऋृतुक अन्तिम नक्षत्र कहि टारि देब। पनरह-पनरह दिन लधले रहै छल। ओना, बरखाक कोनो ठेकान नहि, माघोमे पाथर खसि उपजल उपजाकेँ नास करैत रहल अछि। अन्तिमक जन्‍म ताधैर‍‍ नै होइत जाधैर‍‍ आदि नै होइत, बरखा ऋृतुक आदि आद्रा छी। तँए ‘आदि आद्रा अन्‍त हस्त’ ई भेल बरखाक आँट-पेट। पूर्वज सभ स्‍पष्ट विचार देने छैथ जे बरखाक कोनो बिसवास नहि जे केते हएत। 1971 ई.मे बंगला देशक लड़ाइक लगभग सालो भरि बरखा होइते रहल, ओहन-ओहन बरखा होइत रहल अछि जइमे साएक-साए घर खसैत रहल अछि। घरमे दबल बाल-वृद्ध, माल-जाल, धन-सम्‍पैत इत्यादि नष्ट होइत रहल अछि मुदा

बाढ़ि-दाही नदी-नालाक किरदानी मिथिलाक वास्तवीक चित्र Mithila Flood baadh विषयक झलक_जगदीश प्रसाद मण्डल

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दस बीघा खेतबला कृष्णमोहन सोलहन्नी पठने-पाठनक बीचक जिनगी धारण कऽ लेलैन तइसँ खेतीक आमदनी सेहो कमि गेलैन‍। ओना, खेत बँटाइ लगौने रहैथ‍ मुदा उपजा दूधक-डारही जकाँ रहैन‍। कारणो छल, एक तँ समयपर खेती नै भऽ पबै, दोसर खेतीक खोराक तँ पानि छिऐ से नै रहैन‍, तैसंग कोनो साल बीड़ारेमे बीहैन रौदी भेने जरि जाइत तँ कोनो साल बेसी बरखा-बाढ़ि एने गलि जाइ। जरन-गलन खेतीक प्रमुख बीमारी भइये गेल रहइ। ओना, कृष्णमोहनक किछु बँ टेदार खेतीमे पूजी लगा उद्योग बनबए चाहै छल मुदा खेतीक पूजी दू-दिसिया होइत। एक दिस खेतकेँ चौरस करब, पानिक ओरियान करब, जीव-जन्‍तुक उपद्रवक बचाव करब, तँ दोसर दिस होइत नीक बीआ, खाद, दबाइ कीनि उपजा बढ़ाएब। मुदा तइमे कृष्णमोहन पाछू हटि जाइथ। हटैक कारण रहैन जे पानि लेल बोरिंग-दमकल जे कारखानाक समान छी, तइमे मनमाना दाम रहने अधिक पूजीक जरूरैत पड़ैत, तहिना खेतो चौरस आकि छहरदेवालीसँ घेरब आकि कँटहा तारसँ बेरहब सेहो तहिना। आब ओ समय रहल नै जे टल्ला-छिट्टासँ लोक खेत सेरिऔत, गामक लोक भागि कऽ शहर-बजार पकैड़ लेलक तखन केना सेरिऔल जाएत। टेकटर सभ बढ़ियाँ काज करै छै मुदा ओकर तँ खर्चो बेसी छैहे। ओना, कृष्णमोहनकेँ एत

बाढ़ि-दाही नदी-नालाक किरदानी मिथिलाक वास्तवीक चित्र Mithila Flood baadh विषयक झलक_जगदीश प्रसाद मण्डल

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#पोखैरक_सैरात मार्च मासक तेसर सप्‍ताह। अनुमण्डल कार्यालयक ऑफिस जा गामक पोखैरक सैरातक सम्बन्धमे रमानन्द आवेदन दैत बाजल– “एते दिन जइ ढंगे भेल, भेल। मुदा आगूक बिनु विचार केने नै होइ?”  एक तँ ओहिना सरकारियो कार्यालय आ बैंको अदहा मार्चक पछाइत‍‍ बेसी व्यस्त भइये जाइए। व्यस्ततो केना नै हएत, सरकारी मासक आखिरी मास छी, साल भरिक काजक लेखो-जोखा होइए आ ऐगला सालक काजोमे हाथ लगबे करैए। ऑफिसक भीड़ दुआरे आलमारीम े आवेदन रखि, ऑफिससँ आश्वासन भेटल– “देखल जेतइ।” ऑफिससँ निकैल‍ रमानन्द अपन संगी सबहक संग आगूक परतीपर बैस‍‍ विचार-विमर्श करैक बैसार केलक। ओना, मार्च रहने गामो-गामक आ सरकारियो काजसँ जुड़ल लोकक भीड़ रहबे करइ। बैसार केकरो हौइ मुदा सार्वजनिक जगहक तँ अपन महत छै, तैसंग ईहो छै जे केकरो बजैक आकि सुनैक अधिकार तँ भइये जाइ छइ। आनक ओइ बैसारमे, सभकेँ सुनै आकि बजैक अधिकार नै होइ छै जे तरपेसकी रहल। मुदा ई तँ सार्वजनिक जगहक बैसार छी तँए सभकेँ अधिकार छइ। ओना, गामसँ रमानन्द पाँचे गोरे, पाँचो शिक्षित बेरोजगार विचारि कऽ पोखैरक सैरातक विरोध करैले पहुँचल छल मुदा एक्के-दुइए आनो-आन ब्‍लौकक आ आनो-आन गामक एक-डेढ़ साए लोक