बाढ़ि, बाइढ़, दाही, रौदी आदि विषय श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे (लेखनमे)

“केकरो किछु हौउ मुदा जेकरा लूरि रहतै ओ जीबे करत। ऐठाम देखै छिऐ जे एक्के दहारमे किदैन बहारक खिस्सा अछि। सभ हाकरोस करैए!” 
मुँहक रोटी मुसना हाँइ-हाँइ चिबा जीबछी दिस देखैत बाजल- 
“तेते ने माछ भँसि-भँसि आएल अछि जे खत्ता-खुतीमे सह-सह करैए। कनी पानि तँ कम हौउ। जखने पानि कम भऽ उपछै-जोकर भेल आकि मछबारि शुरू कऽ देब। खेबो करब आ बेचबो करब। हरिदम दू पाइ हाथेमे रहत।” 
अपन नहिराक बात मन पड़िते जीबछी बाजए लगल- 
हमरा नैहरमे पच्छि‍मसँ गंडक आ पूबसँ कोसीक बाढ़ि सभ साल अबै छेलइ। तैबीच जे धार अछि ओकर पानि तँ घुमैत-फिरैत रहिते छल। सगरे गाम साउनेसँ जलोदीप भऽ जाइ छेलइ। टापू जकाँ एकटा परती-टा सुखल रहै छेलइ। ओइपर सौंसे गामक लोक बरसाती घर बना रहै छल। कातिक अबैत-अबैत खेत सभ जागए लगै छेलइ। तेकर पछाइत‍ लोक खेती करै छल। गहिंरका खेत आ खाधि-खुधिमे भैंटक गाछ सोहरी लागल जनमै छेलइ। अगहन बितैत-बितैत ओ तोड़ैबला हुअ लगै छेलइ। हम सभ ओइ भैंटकेँ तोड़ि-तोड़ि आनी, ओकरे दाना निकालि सुखा कऽ लावा भूजी। तेते लावा हुअए जे अपनो खाइ आ बेचबो करी।
..काल्हि गिरहत काका ऐठाम जाएब आ कहबैन जे चौरीमे जे मनसम्फे भैंट जन्‍मल अछि, ओ हमरा दऽ दिअ।”
अखन धरि दुनू परानी मुसना, चाउर आ चूड़ाक कुट्टी करै छल, सेहो ढेकीमे। किएक तँ गाममे एक्कोटा छोटको मशीन धनकुटियाक नै छल। अधिकतर परिवार अपन-अपन ढेकी-उक्खैर रखै छल। मुसना सेहो कुट्टी दुआरे अपन ढेकी-उक्खैर रखने अछि। नीक चाउर बनबैमे जीबछीकेँ सभ लोहा मानैए। ऐ बेर तँ धनकुट्टी चलत नहि। मुदा बाढ़िमे आन गामसँ तेते भैंट दहा कऽ चौरीमे आएल जे सापरपिट्टा गाछ सौंसे चौरीमे जनैम गेल अछि। तँए जीबछी मने-मन चपचपाइत। दोसरकेँ भैंटक भाँज बुझले नहि। सभ दिन नहाइ बेरमे जीबछी चौरी जा भैंट देख-देख अबैत। चौरगर-चौरगर पात सौंसे चौरीकेँ छेकने। थोड़बे दिनमे गोटि-पँगरा फूल हुअ लगलै। फूल देख जीबछीक मनमे होइ जे एतेटा फुलवाड़ी इन्द्रो भगवानकेँ हेतैन की नहि...।
पाँचे दिनमे सौंसे चौरी फूल फुला गेल। अगता फूलक पत्ती झड़ि-झड़ि खसए लगल, फूलमे नुकाएल फड़ निकलए लगल। गोल-गोल, हरिअर-हरिअर। फड़ देख जीबछी आमदनी बुझि, चौरीक कातमे बैस नव-नव योजना मने-मन बनबए लगल, ऐ बेर एकटा खूब निम्मन महींस कीनब। जँ महींस-जोकर आमदनी नै हएत तँ दूटा गाइए कीनि लेब। अप्पन तँ सम्‍पैत भऽ जाएत। ओकरे खूब चराएब-बझाएब। ओहीसँ तँ चारू परानीक गुजर चलत। जिनगी भरि तँ कुटाउने करैत रहलौं मुदा ऐ बेर कमलो महरानी आ कोसियो महरानी दुख हइर लेलैन।
मने-मन जीबछी कोसी-कमलाकेँ गोड़ लगलक। गोड़ लगिते मनमे उठलै- अपन धन हएत, तैपर सँ मेहनत‍ करब तँ कोन दरिदराहा दुख आबि कऽ हम्मर सुख छीनि लेत। मजगूत घर बान्हब, बेटा-बेटीक बिआह करब। नाति-पोता हएत, बाबा-दादी बनि कऽ जेते दिन जीबी ओ की देवलोकसँ कम भेल। अहीले ने सभ हरान अछि। केलासँ सभ किछु होइ छै, बिनु केने पतरो फुसि।
घनगर गाछ देख जीबछीक मनमे एलै, बीच-बीचमे सँ जँ गाछ उखारि देबै तँ सौरखियो करहर भऽ जाएत आ छेहर गाछ रहने फड़ो नमहर हएत आ दन्नो नीक। अखनेसँ आमदनी शुरू भऽ जाएत।
उत्साहित भऽ जीबछी भैंटक कमठौन शुरू केलक। मुदा करहर उखाड़ैमे तेते डाँड़ दुखाइ जे हूबा कमए लगलै। कमठौन छोड़ि देलक।
देखते-देखते फड़मे लाली पकड़ए लगलै।
अगता फूल अगता फड़ भेल। नमहर-नमहर, पोछल-पोछल, गोल-गोल पुष्ट, रंगल फड़ देख जीबछी बुझि गेल जे आब ई तोड़ैबला भऽ गेल। दोसर दिनसँ फड़ तोड़ैक विचार जीबछी मने-मन कऽ लेलक।
दोसर दिन भोरे जीबछी रोटी पका, दुनू बच्चो आ अपनो दुनू परानी खेनाइ खा प्लास्टिकक बोरा लऽ फड़ तोड़ैले विदा हुअ लगल कि धक-दे मन पड़लै, बोरामे तँ फड़ राखब मुदा पानिमे तोड़ि-तोड़ि कथीमे रखब। फड़ तोड़ैले तँ झोरा नीक जे अपना अछि नहि! आब की करब?
..लगले जीबछी पुरना साड़ीकेँ फाड़ि दूटा झोरा सीलक। झोरा सीबि बोरो आ झोरोकेँ चौपेत एकटा झोरामे रखि, दुनू बच्चो आ दुनू गोरे अपनो, चौर दिस विदा भेल।
फड़क रूप-रंगसँ जीबछीक मन गदगद। मुदा अनभुआर काज बुझि मुसना तर्क-वितर्क करैत। चौरक कात पहुँच‍ ऊपरका खेत जे सुखाएल छल तइमे दुनू बच्चो, बोरो आ रोटियो-पानिकेँ रखि दुनू परानी भैंट तोडै़ले पानिमे पैसल।
पानिमे पैसते जीबछीक नजैर भैंटक फड़क ऊपरे-ऊपर नाचए लगलै। जहिना केकरो रूपैआक थैली भेटलासँ खुशी होइ छै, तहिना जीबछीक मनमे भेलइ। एक टकसँ देख जीबछी दुनू हाथे हाँइ-हाँइ फड़ तोड़ए लगल। खिच्चा फड़ देख जीबछी पतिकेँ कहलक-
“जुएलके फड़टा तोड़ब, अजोहा अखन छोड़ि दियौ। पछाइत‍ तोड़ब।”
झोरा भरिते जीबछी ऊपर आबि-आबि बोरामे रखैत। मुसनो सएह करैत। दुनू बोरा भरि गेल। ऊपर आबि जीबछी पतिकेँ कहलक-
“कनी काल सुस्ता लिअ। पानिमे निहुरल-निहुरल डाँड़ो दुखा गेल हएत। अहाँ एत्तै रहू, हम एक बेर अँगनासँ रखने अबै छी।”
जीबछी एकटा बोरा उठा आँगन विदा भेल‍। एक तँ पानिक भीजल, दोसर ओजनगर वस्‍तु। मुदा जीबछी भारी बुझबे ने करए। किएक तँ सम्‍पैत‍क मोटरी रहै किने! आँगन आबि ओसारपर बोरा रखि पुनः जीबछी चौर दिस रमकल विदा भेल। लग आबि पतिकेँ कहलक-
“हम बोरा लइ छी, अहाँ दुनू बच्चो आ डोलोकेँ सम्हारने चलू।”
दुनू बच्चाक संग एक हाथमे डोल नेने आगू-आगू मुसना आ माथपर बोरा नेने पाछू-पाछू जीबछी विदा भेल। थोड़े दूर बढ़लापर जीबछी पतिकेँ कहलक-
“भगवान दुःख हइर लेलैन।”
मुदा स्त्रीक बात सुनि मुसनाकेँ ओ खुशी नहि एलै जे जीबछीकेँ रहए। आँगन आबि जीबछी पहिलुके बोरा लग दोसरो बोरा रखि भानसक ओरियान करए लगल। चारिम दिन पहिलुके खेप भैंट तोड़ै काल मुसनाकेँ एकटा ठेंगी बाँहिमे पकैड़ लेलकै। जे शुरूमे नै बुझलक। मुदा जहन ठेंगी भरि पोख खून पीब भरिया गेल, तहन नजैर पड़लै। ठेंगीकेँ देखते मुसनाक परान उड़ि गेलइ। थरथर काँपए लगल। खूब जोरसँ घरवालीकेँ कहलक-
“बाप रे बाप! देहक सभटा खून ठेंगी पीब लेलक। कोन पाप लागल जे ऐ मौगिया भाँजमे पड़लौं। एक तँ बाढ़िक मारल छी जे भरि पोख अन्न नै होइए, सुखा कऽ संठी भेल छी। तैपर जेहो खून देहमे छेलए सेहो ठेंगीए पीब गेल। झब-दे आउ नहि तँ हम पानियेँमे खसि पड़ब।”
पतिक बातकेँ अनठबैत जीबछी हाँइ-हाँइ फड़ो तोड़ैत आ मने-मन बजबो करैत- “जेना नाग डँसि नेने होइ तहिना अर्ड़ाहैए। भभटपन ने देखू! एहने-एहने पुरुख बुते परिवार चलत!”
#साभार_भैंटक_लावा कथासँ... (जेपीएम) 



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