श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार

माथपर मोटरी नेने रवि शंकरक डेग आगू दि‍स बढ़ैत गेल, मुदा मनमे बेर-बेर पानिक हि‍लकोर जकाँ उठैत रहै जे विश्वविद्यालय स्तरक कार्यक्रम भेल, बेकती-विशेषक नै छल, तखन‍ किए ने बुझलौं? ..ने प्रश्नक जड़ि भेटै आ ने विचार आगू बढ़इ। मुदा तैयो बाढ़िक पलाड़ी जकाँ बहबे करइ। मन बहकलै, इन्दि‍रा अवासक जेकरे पक्का घर रहै छै हथि‍याक झटकीमे खसल घरक अनुदानो तेकरे भेटै छइ। सएह ने तँ भेल। की अहि‍ना भोजे-भातक शिक्षण संस्थान बनल रहत? धू:! अनेरे मनकेँ बौअबै छी। ठीके लोक बताह कहैए! एहने-एहने बतहपनी सोचने ने लोक बताह होइए! अनेरे हमरे किए एते सोग अछि। ‘जानए जअ आ जानए जत्ता।’ लसि‍गर होइ आकि खढ़हर से ओ जानए। हमहीं की बजितौं जे अनेरे माथ धुनै छी। बड़ बजितौं तँ यएह ने बजितौं जे साहि‍त्य जगतमे मध्‍यकालीन युग स्‍वर्णिम रहल। भक्ति‍मय साहि‍त्यक सृजन एते कहि‍यो ने भेल, मुदा भक्ति‍ साहि‍त्यक पछाइत‍ वैराग्य अबैत आकि श्रृंगार? एबाक चाहै छल ‘वैराग्य’ से नइ आबि ‘श्रृंगार’ आबि गेल! समैयो मुगले शासनक छल। मिथि‍लांचलक किसानक सुदि‍न नै दुर्दिन छेलइ। बीससँ तीस रौदी प्रति‍ सदी होइत आबि रहल छेलै, बाढ़ि-झाँट छोड़ि कऽ। तैसंग बड़का-बड़का भुमकमो भेल। आजुक संचार नहि, दू-गाम चारि गाम पसरैत-पसरैत अवाज विलीन भऽ जाइ छल। ने धार-धूर आजुक छी जे आबे बाढ़ि अबैए आ पहि‍ने नै अबै छल। खाएर छोड़ू। रौदीक मारिसँ जे परिवार नष्ट भेल, वा गाम छोड़ि कऽ जे भागल, तेकरा छोड़ि कऽ। जे इमानदार किसान छला ओ मिसियो भरि ओइ सभ प्रकोपसँ डोलला नहि, मातृभूमिक माटि-पानिमे अपनाकेँ समरपित केने रहला। भलेँ एक रौदीक मारि पाँच बर्खमे किए ने भरपाइ करए पड़ल होइन...।
एकाएक रवि शंकरक विचार आगू बढ़ल। मनमे उठलै- विश्वविद्यालय सर्वोच्च शिक्षण संस्थान छी। जे मिथि‍लांचल ऋृषि-मुनिक बास स्थल अदौसँ रहल आकि ओतबे गनल-गूथल छैथ‍ जेतेकेँ दोरिका छाप भेट गेलैन! विश्वविद्यालयक दायि‍त्‍व बनैत अछि जे जिनकर रचना दि‍वारमे सड़ि गेलैन‍, पानिक चुबाटमे गलि गेलैन‍ ओहनो-ओहनो रचनाकारक खोज हुअए।
गामक सीमानपर अबिते रवि शंकरकेँ भागेसर मन पड़ल। मन पड़िते बुदबुदाएल-
“गौंआँ-घरूआ रहने भागेसर बहुत उपकार केलक। ओकरे केने कौलेजक पुस्तकालयसँ सम्बन्ध बढ़ल। नइ तँ तेहेन-तेहेन लुटिहारा सभ अछि जे किताबक कोन चर्च जे आलमारियो उठा कऽ लऽ जाइए। जँ ओ नै रहि‍तए तँ अपने-बुते ओते भीतर तक थोड़े जा सकै छेलौं। ओकरे पाबि ने सभ रंगक किताबसँ भेँट भेल। जिनगी भरि ओकर उपकारकेँ नै बिसरब।”
#कथाअंश_स्वरोजगार
साभार : भकमोड़ 




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