श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे, मैथिली साहित्यमे मिथिलाक बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार
कथा-
#चोर_सिपाही
#चोर_सिपाही
चोरिक बाढ़ि एने गामे-गाम चोरक सोहरी लगि गेल। जहिना घोरन लुधकैत तहिना चोरो लुधकए लगल। सेहो एकरंगा नहि, सतरंगा! पाँखिसँ बिनु पाँखिबला घोरने जकाँ घुरछा-घुरछे! जेकर बहुमत तेकर राज-पाट! शासक-सँ-सिपाही धरि...।
अगहन मास। गामक अदहासँ ऊपर उपजल धानक खेतमे 144 लगि गेल। कोनो बटेदारीक चलैत तँ कोनो फटेदारीक। सरकारियो काज तँ सरकारीए छी। एक घन्टाक काज मासो दिनमे हएत तेकर कोनो गारंटी नहि। तखन 144 मे जप्त भेल खेत 44 दिनक बदला 44 मासो रहि सकैए। खाएर...।
ओस पला गेल। दिन खिआ कऽ पानि भऽ गेल। दिन-राति शीतलहरीमे डुमि गेल। दर्जनो भरि सिपाही धानक ओगरबाहि करैत अपना जिनगी दिस तकलक तँ बुझि पड़लै जे जान बँचब कठिन अछि।
पहिल सिपाही बाजल-
“खस्सी मासु खाइ-जोकर समय अछि।”
दोसर सिपाही बाजल-
“जँ बनबैले तैयार होइ तँ खस्सी आनि देब।”
सएह भेल। दूटा सिपाही विदा भेल। जेना हाथमे हथियारो आ देहमे वर्दियो रहबे करइ तहिना दिनके देखल खस्सियो आ घरो छेलैहे। अपने जकाँ एक गोरे मुँह दबलक आ दोसर उठा कऽ लऽ अनलक।
बना-सोना कऽ सभ भरि मन खेलक। मुदा दोसरे दिनसँ दुनू सिपाहीकेँ आन-आन सिपाही ‘चोरबा’ कहए लगल।
सालो नइ लगलै, ग्लानिसँ ओ दुनू सिपाही गड़ि दुनू नोकरी छोड़ि अपन पुरना वृतिमे लगि गेल। एक समाज ‘चोर-सिपाही’ तँ दोसर समाज ‘सिपाही-चोर’ कहए लगलै।
अगहन मास। गामक अदहासँ ऊपर उपजल धानक खेतमे 144 लगि गेल। कोनो बटेदारीक चलैत तँ कोनो फटेदारीक। सरकारियो काज तँ सरकारीए छी। एक घन्टाक काज मासो दिनमे हएत तेकर कोनो गारंटी नहि। तखन 144 मे जप्त भेल खेत 44 दिनक बदला 44 मासो रहि सकैए। खाएर...।
ओस पला गेल। दिन खिआ कऽ पानि भऽ गेल। दिन-राति शीतलहरीमे डुमि गेल। दर्जनो भरि सिपाही धानक ओगरबाहि करैत अपना जिनगी दिस तकलक तँ बुझि पड़लै जे जान बँचब कठिन अछि।
पहिल सिपाही बाजल-
“खस्सी मासु खाइ-जोकर समय अछि।”
दोसर सिपाही बाजल-
“जँ बनबैले तैयार होइ तँ खस्सी आनि देब।”
सएह भेल। दूटा सिपाही विदा भेल। जेना हाथमे हथियारो आ देहमे वर्दियो रहबे करइ तहिना दिनके देखल खस्सियो आ घरो छेलैहे। अपने जकाँ एक गोरे मुँह दबलक आ दोसर उठा कऽ लऽ अनलक।
बना-सोना कऽ सभ भरि मन खेलक। मुदा दोसरे दिनसँ दुनू सिपाहीकेँ आन-आन सिपाही ‘चोरबा’ कहए लगल।
सालो नइ लगलै, ग्लानिसँ ओ दुनू सिपाही गड़ि दुनू नोकरी छोड़ि अपन पुरना वृतिमे लगि गेल। एक समाज ‘चोर-सिपाही’ तँ दोसर समाज ‘सिपाही-चोर’ कहए लगलै।
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