श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक साहित्यमे, लेखनमे, मैथिली साहित्यमे मिथिलाक बाढ़ि, बाइढ़, दाही, कोसी, कमलाक उपद्रव आदिक चित्र-विचार

“परसुका सगुन बढ़ियाँ रहल!”
बेलबाक सगुन सुनि लेलहा खिसिया कऽ बाजल- 
“सगुन-तगुन किछु ने होइ छइ।”
लेलहाक तामस बेलबा बुझि गेल जे भुखाएल बिलाइ खौंझाइते छइ। जखन ओहो दम मारत तखन ने मन असथिर हेतइ। ताबे लेलहा-हाथ चीलम पहुँच गेल। जिराएल लेलहा रहबे करए, तेते जोरसँ दम मारलक जे एक बित धधड़ा चीलमसँ धधैक गेलइ। दम मारि जहिना हाथसँ चीलमक धधड़ा मिझेलक तहिना अपनो मनक धधड़ा मिझा गेलइ। मुदा तेतरा लेलहाक बातकेँ पकैड़‍लेलक। दोहरौनी भाँज जाबे चीलमक शुरू होइ तैबीचमे सवाल फँसि गेल। अपनेमे दू पाटी बनि गेल। दू गोरे कहै जे सगुन-तगुन किछु ने होइ छै आ दू गोरे कहै जे होइ छइ। तेहाला कियो नहि, जेकरा दुनू पंच मानि फरिछबैत। रूकल चीलमकेँ धुँआइत देख‍ लेलहा बाजल-
“झगड़ा ने दन चुन-तमाकुल किए बन्न हौ, गप्पो चलतै आ चीलमो चलए दहक।”
जहिना एकघोंट चाह पीला पछाइत‍ आकि एक कौर खेला पछाइत‍ दोसर अपने अबै लगैत तहिना लुबलुबाइत लेलहा बाजल-
“सगुन-तगुन किछु ने होइ छइ।”
दोहरा कऽ बेलबा दम मारि चीलम आगू बढ़बैत बाजल-
“सगुन बड़ पैघ गुण छिऐ, तँए एकरा दोखी बनाएब उचित नइ हएत?”
बेलबा आ तेतराक विचार एक बटिया रहै तँए एक दिस भऽ गेल आ झिंगुरा, लेलहाक एक बटिया रहै तँए दोसर दिस भऽ गेल। दू-दू गोरेक पाटी चारू गोरेक बीच बनि गेल। बेलबाक विचारकेँ रोकैत झिंगुरा बाजल-
“सगुनकेँ दोखी कहाँ कहै छिऐ, जँ गुण सगुन भऽ जाए तखन तँ जरुर नीक भेल, मुदा जँ कोनो काजे केतौ विदा होइ आ माछ-दहीसँ सगुन बनाबी एकरा हम नीक नै कहबै?”
बेलबाक प्रश्नकेँ ठमकैत देख‍ सोंगर लगबैत तेतरा बाजल-
“दुनियाँ बड़ीटा छै, रंग-बिरंगक खेल चलै छै तँए अनका छोड़ह, अपने बात लएह। परसू जे छ-छ पसेरी मुसहैन भेलह तेकरा की कहबहक?”
तेतराक बातकेँ लेलहा लपैक कऽ पकड़ैत बाजल-
“जँ माछे-दहीसँ सगुन बनिते तँ मछिबारे आ माले-जाल बलाकेँ सभ किछु भऽ गेल रहितै, दिन-राति ओकरे देखैत-सुनैत रहैए...।”
तैबीच पहिल चीलमक गाँजा जरि गेल। गुलाब तकथीपर लटाएल-काटल गाँजा रहबे करै, झिंगुरा चीलममे बोझि आगि चढ़ा बेलबा दिस बढ़ौलक। ओना, तइले अपना बीच कोनो मलिनता केकरोमे नै रहइ। करणो रहै जे एक्के-एक्के दम ने कियो लगबैए। बरबैरक हिस्सा ने भेल। बड़ बेसी हएत तँ कियो दमगर अछि तँ कनी बेसी जोरसँ दम खींच लेत, तइसँ बेसी की करत..!
मुदा तैसंग ईहो तँ रहबे करै जे पेटगरोकेँ बेसी खेनो पेटे भरै छै आ कम खेनहारकेँ सेहो पेट भरिते छइ। धुँआ फेकैत बेलबा बाजल-
“परसू जे अपना सभकेँ ओते मुसहैन भेल ओकरा नीक सगुन नै कहबै तँ की कहबै?”
जेना लेलहाकेँ प्रश्नक उत्तर बुझले रहै, तहिना बाजल-
“तूँ सभ भलेँ जे कहक मुदा हमर मन नै मानैए। तीन सालक बाढ़िमे धान तँ उपैज गेल मुदा मुसहैन किए निपत्ता भऽ गेल। जे चीजे निपत्ता अछि ओ सगुन केना भऽ पौत?”
लेलहाक बातमे चोंगरा भरैत झिंगुरा बाजल-
“दिल्ली गेल छहक, रेलबे टीशनमे जे मूस देखबहक तँ बिसवासे ने हेतह जे मूस छी आकि बिलाइ।
मुदा गाममे तँए देख‍‍ते छहक रौदी होइ छै तैयो मूसकेँ पड़ाइन लगि जाइ छै आ बाढ़िमे तँ सहजे, जँ नै भागत तँ डुबकुनियाँ काटि-काटि मरबे करत। ई तँ गुण भेल जे सुभितगर समए भेल तँए धानो उपजल आ मूसक बाढ़ि एने मुसहैनो भेल।”
तेसर चीलम चलैत-चलैत चारू गोरेक मन भरि गेल। कौल्हुका विचार करए लगल। तेतरा बाजल-
“काल्हि दू ठाम काज अछि। एकठाम तीनगोरेक आ दोसरठाम दू गोरेक।”
तेतराक बात सूनि झिंगुरा बाजल-
“तीन गोरे तँ जोड़ियाएल छी मुदा पाँचम नै रहने दोसर केना हएत?”
बेलबा बाजल-
“किए ने हएत? दुनू काजकेँ मिलानी करि कऽ देखहक। टुकड़ी बनै-जोकर जँ हेतै ओकरा टुकड़ी बना लेब आ जँ नै बनैबला हेतै ओकरा पूरा कऽ करब।”
बेलबाक बात सुनिते लेलहाक मन मानि गेलइ। बाजल-
“बेस तँ भैया कहलहक। दुइए-टा ने भऽ सकै छै, या तँ पाँचम केनिहारकेँ भाँजह या तँ काजेकेँ टुकड़ी कऽ दहक।”
तेतराक मन सीकपर टाँगल, तँए खोलि कऽ तँ नहि बजैत मुदा मुड़ी डोला-डोला हुँहकारी भरैत रहए। सीकपर टाँगल ई रहै जे परसू जे मुसहैन खुनलक तइसँ नमहर दोसर रहइ। ओना, ईहो मनमे उठै जे ऊपरका काज ने हूसि सकै छै, तरका काजपर तँ एकाधिकार ऐछे, ओइमे दोसर कइये की सकैए। मुदा तँए की, काज करए जाएब तइसँ दोबर-तेबर बेसी ओइमे हएत, तेकरा पहिने करब आकि जइमे कम हएत, तेकरा करब...।

#उपरोक्त कथा अंश श्री जगदीश प्रसाद मण्डलक 'भकमोड़' पोथीक 'मुसहैन' कथासँ राखलौं हेन, ई पुस्तक २०१३ ईं.मे पहिल संस्करण प्रकाशित भेल, श्रुति प्रकाशन- दिल्लीसँ। आ टटके ऐ पोथीक लोकार्पण सेहो भेल। ऐ लेल पोथीमे प्रकाशित समर्पण देखल जाए- चित्रकार स्व. मिलन सदाय (निर्मली) क स्मृतिमे आयोजित 'सगर राति दीप जरय’क 87म कथा-साहित्य गोष्ठीमे उपस्थित समस्त साहित्य प्रेमीकेँ सादर समरपित 



Comments

Popular posts from this blog

ढाई आखर प्रेम का

ढाई आखर प्रेम का

अप्पन साती