साहित्यकारक विवेक (कथा संग्रह)क होनी कथासँ (जगदीश प्रसाद

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सात दिनक पछाइत पटनासँ आएले रही। हाथो-पएर नइ धोने रही। तेते दौड़-बरहा भेल रहए जे देहक संग मनो चुरम-चुर भऽ गेल छल। देहक चुरम-चुर भेल दौड़-बरहामे देहक थकान आ मनक चुरम-चुर भेल जे जइ काजे गेल छेलौं, काजक सभ जोगार केलौं आ हाइ कोर्टक फैसला दिन काज लसैक गेल, आ तीन मास आगूक तारीक पड़ि गेल। एक तँ ओहुना देखै छी, आनक कोन बात जे अपन जीवनमे घटल एकटा केस माने चारि-साए-छत्तीस, सैंतीस बर्खमे फड़ियाएल आ दोसर तीन-साए-सात, एकतालीस बर्खमे।
ओना, पत्नी मनक रोहानीसँ बुझि गेली जे भरिसक काजक लड्डू सनेस लऽ कऽ घुमला अछि। लड्डू सनेस भेल काज नइ हएब। मुदा काजक फरिछौठ भेला पछाइत लड्डू प्रसाद नइ बाँटल जाइए सेहो बात नहियेँ अछि, सेहो अछिए। तखन तँ भेल जे बुधियारकेँ इशारा काफी। जे मन मानैन सएह बुझौथ। मुदा तैयो बेचारी (पत्नी) अपन मान-सम्मान निमाहैत बजली-
“तबघल पानि पीब नीक नहि हएत, तँए पहिने किछु खा लिअ।”
मन अपना काजसँ चिन्तित छल जे तीन हजार रूपैआक काज आगूमे आबि गेल। कहब जे तीनियेँ हजार रूपैआक काज ले मन किए चिन्तित भऽ गेल? पाइक इज्जत तखन ने होइए जखन ओकर सदुपयोग होइए। ऐठाम एहेन भ्रम नइ हुअए जे अपन बनल-बनाएल जीवन, नीको होइए आ भारियो तँ होइते अछि, से कहै छी। अपन जीवनानुकूल पाइक उपयोगे ने सदुपयोग भेल। एकरे देखब ने ऋषिपन छी। ..पत्नीकेँ हँ-हूँ किछु ने कहलयैन। ओना, एते तँ बुझले छैन जे बाहरसँ कोन समय घरपर अबै छी आ ओइ समय कोन वस्तुक मांग करै छी। चाहक संग लोटामे पानि नेने पत्नी आगूमे बैस मुँह दिस देख बजली-
“आब, गाममे दहेजक समस्या मेटा जाएत।”
पत्नीक बात सुनि अगदिगमे पड़ि गेलौं जे जइ समस्यासँ चूर भऽ केतेको माए-बाप बिलैट गेल छैथ आ बिलैटियो रहला अछि, तैठाम गप-सप्पक ठेल ठेललासँ दहेजक समस्या मेटा जाएत। फेर अपने मनमे ईहो उठल जे मानव निर्मित जे समस्या अछि, ओकरा मनुक्ख किए ने मेटा सकैए? अपने उदाहरण दैत बजलौं-
“अहाँकेँ बुझल अछि कि नहि बुझल अछि, से तँ अपने नइ बुझै छी, ओ तँ अहीं बुझैत हएब, मुदा अपनो दुनू गोरेक बिआह तँ बिनु दहेजेक भेल छल, कहाँ समाजमे दहेज मेटा गेल।”
बिआहक नाओं सुनि पत्नीक मन अतीतमे वौआ गेलैन। वौआ ई गेलैन जे जे बात बजलौं तैपर धियाने ने गेलैन आ मन पहुँच गेलैन बिआहसँ एक दिन पूर्वक कुमरमपर। जइ दाइ-माइक मुहेँ आइ कुमरमक गीत सुनै छी, ओही दाय-माइक मुहेँ काल्हि बिआहोक गीत ने सुनब। ..पत्नीक मनमे एकाएक जेना किछु खसलैन तहिना मन घुमलैन। घुमिते बजली-
“अहाँ तँ सात दिनसँ गाममे नइ छेलौं, तँए बीचक बात नइ बुझल हएत।”
बजलौं- “केना बुझल रहत। जखन गाममे नइ छेलौं तखन केना बुझबे करितौं।”
गाम एलाक भनक टोलक लोककेँ सेहो लगि गेलैन। गामक बीचक प्रश्न छी.! ओना, पच्चीस-तीस घरक जे अपन टोल अछि, एक जाइतिक नहि, पाँच-छह जाइतिक मुदा एकठाम घरो रहने आ भूखण्डक बीच सेहो रहने, एक तरहक चलैन सेहो अछि। ओना, तहूमे दू रूपक अछि, सामूहिक रूपक चलैन आ जाइतिक बीचक चलैन। बुझल बात अछिए जे जहिना देवी-देवता, जिनकर अपन-अपन मन-पसन्द फूलो छैन आ फलो-मिठाइ छैन्हे आ तैसंग समाजक लोकक संग अपनो बँटाएले छैथ। माने, किछु देवी-देवता किछु जाइतिक आ किछु देवी-देवता किछु जाइतिक सेहो छथिए। मुदा अपना टोलमे से नहि अछि, अपन टोलक लोक खुलल दिमागसँ बुझै छैथ जे जे ब्रह्म वा भगवानकेँ चिन्है-जनै छैथ वएह परेख कऽ पकैड़ सकै छैथ, वएह हुनकर भक्त भऽ सकै छैथ। गाम-घरमे जेते झाल-झपट अछि माने अन्धबिसवास, ओ सभ धोखावाजी छी।
पाँच-छह जाइतिक टोलक बीचक सम्बन्धमे एते घनिष्ठता तँ अछिए जे एक-दोसरक सुख-दुखकेँ सभ अपन सुख-दुख जकाँ निमरजना करिते छैथ। एक्के-दुइये तीन-चारि पुरुष आ चारि-पाँच महिला पहुँचली। समाजक बीचक घटना छी, तँए सभक मनमे एते तँ जिज्ञासा जगबे कएल छेलैन जे आगू की हएत, नै हएत। ओना, थकानसँ अपन देहो आ मनो तेना चुरम-चुर भेल छल जे गप-सप्प करैक इच्छा नहि होइत रहए, मुदा अपन इच्छा तँ ओइठाम कमि जाइए जैठाम सामाजिक इच्छा जगि जाइए। तैबीच अपने एक लोटा पानि पीब कऽ चाह सेहो पीब नेने छेलौं। कपड़ा बदलैक सुर-सार कऽ रहल छेलौं, करै कि छेलौं जे गंजी-कुरता निकालि, लूंगी पहीरि, देहक निकालल वस्त्रकेँ रौदमे पसारिये रहल छेलौं कि एक्के-दुइये सभ पहुँचल छला। अपनो उम्रक संगी आ कम्मो आ बेसियो उम्रक, सभ मिलाकऽ छेलैथ। अपने गुम्मे रही, जे उचितो छल। किए तँ गाममे नइ रहने नइ बुझल छल। उचितलाल भाय बजला-
“विमल, तूँ तँ गाममे नइ छेलह तँए तोरा नइ बुझल हेतह।”
ओना, बिच्चेमे दुआरमवाली भौजीक मन बजैले लुस-फुसाइते रहैन, मुदा एते तँ चेतनता आबिये गेल छैन जे जँ कियो बजैत रहैथ तँ हुनकर विचार पहिने धियानसँ जरूर सुनी। बजलौं-
“हँ, से तँ नहियेँ बुझल अछि।”
उचितलाल भाय बजला-
“गामक सभ बुझै छैथ जे बाबूलालक बेटी- रूक्मिणी आ जियालालक बेटा- श्याम, एक्के कौलेजक एक्के क्लासमे पढ़ैए।”
अपनो बुझल अछिए, बजलौं-
“हँ से तँ पढ़िते अछि।”
उचितलाल भाय बजला-
“कौलेज सभमे सालमे एकबेर घुमै-फिड़ैले विद्यार्थियो आ शिक्षकोकेँ आर्थिक मदद भेटै छैन। ओही दौड़मे श्याम आ रूक्मिणी सेहो पुष्कर गेल छल।”
अपनो बुझल अछिए जे कौलेजमे टूरक कार्यक्रम चलिते अछि। बजलौं-
“वाह.! घुमब-फिरब जीवनक क्रियाक एक मद हेबाके चाही। जहिना भीतरक दुनियाँ देखैले दृष्टि चाही तहिना भूगोलक दुनियाँ देखैले आँखि सेहो चाहबे करी।”
सोइनमे सुइया फेरैत बिच्चेमे भगवानपुरवाली भौजी बजली-
“एहेन जिद्दो, माइये-बाप आकि गामे-समाजकेँ नइ राखक चाही। सब जनै छी जे अखनो हमसब साहोरेक दतमनि करै छी आ नवका लोक ब्रश करैए। जहिना युग-जमाना बदैल रहल अछि तहिना अपनो चालि-ढालिकेँ बदलैत चली।”
ओना, भगवानपुरवाली भौजी पंचैतियाह सोभावक छथिए जिनका आइये नहि, सभ दिनसँ मानैत एलिऐन अछि, तँए धियानसँ हुनकर बात सुनलौं। नीक लागल। ओना, मनमे ईहो भेल जे भगवानपुरवाली भौजीक विचारमे अपनो दिससँ एते जोड़ि कहिऐन जे ‘भौजी, पैछला लोककेँ हिसाब जोड़ैमे गड़बड़ होइत रहैन तँए सतयुगसँ त्रेता जोड़ैमे हजारो बरख लगि गेलैन, मुदा अपना सभ एक्केसमी सदीक ने लोक छी, ओ सभ जे कहै छेला जे ‘कलयुगक लोक लग्गी लगाकऽ भँट्टा तोड़त।’ से अहीं कहू जे एहेन होइ.! हवा जहाजमे चढ़ि-चढ़ि लोक अकासमे बिआहो करैए आ भोजो खाइए आ भँट्टा तोड़ैले लग्गी लगौत? अखुनका लोक तँ खुलल दिमागसँ बुझिये रहला अछि जे साठि हजार बेर दिनमे मन चलैए आ धरती-आसमान तँ सदिकाल चलिते रहैए, तँए ओ बेहिसाब अछि।’ मुदा बजलौं ऐ दुआरे नहि जे अखन समाजक बीच जे समय बनि गेल अछि ओ दोसर दिस देखैक नहि अछि। समाजक बीच, जखन बिआह पद्धतिक रूप नेने आएल, तहियाक समाज आ औझुका जे समाज अछि, ओ बहुत आगू बढ़ि गेल अछि, तँए परिवेश आ पद्धतिमे सम्बन्ध केना बनत, ई तँ अपने सभकेँ ने करए पड़त।
भगवानपुरवाली भौजीकेँ पुछलयैन- “भौजी, अहाँकेँ जड़िसँ छीप धरि बुझल अछि?”
भगवानपुरवाली भौजी थकथकाइत बजली- “नइ।”
बजलौं- “तखन?”
‘तखन?’ सुनि भगवानपुरवाली भौजी उचितलाल भाय दिस इशारा करैत बजली-
“भइयेकेँ सभ बुझल छैन, वएह बाजैथ।”
उचितलाल भाय बजला-
“कौलेजक बैच माने विद्यार्थीक संग शिक्षक धरि, टूर प्रोग्राममे पुष्कर गेल छल। पता लागल जे पाँच जोड़ी बिआह ओइठाम सेहो भेल। ओहीमे एक जोड़ी अपनो गामक, माने श्याम आ रूक्मिणीक, पुष्करक जे दछिनबरिया घाट अछि, जैठाम ब्रह्माजीक मन्दिर छैन, माने ई जे राजस्थानमे झीलनुमा पुष्कर अछि, ओकर चारू महारमे ब्रह्माजीक मन्दिर अछि, ओही मन्दिरक पुजारीक आगूमे दुनूक बिआह भेल। वएह दुनू गाम आएल अछि।”
ओना, तत्काल समाजपर सँ नजैर हटि गेल तँए बजा गेल- “ई तँ बढ़ियाँ भेल, समाजक दहेज पनचैतीसँ नहि ने मेटाएत, परिवर्तनसँ मेटाएत। पछाइत की भेल?”
उचितलाल भाय बजला-
“गाम आबि रूक्मिणी अपन माए-बाप ऐठाम नहि गेल आ श्यामे ऐठाम रहैए। ओना, गाममे तना-तनी बनले अछि, हमहूँ सभ विचारसँ श्यामकेँ मदैत कइये रहलिऐ हेन।”
बजलौं- “कोनो अप्रिय घटनाक सम्भावना नइ ने अछि?”
उचितलाल भाय बजला-
“दुनू दिस समकश अछि, तँए कोनो अप्रिय घटना नइ घटत। विचारसँ सभक समाधान भऽ जाएत।”
शब्द संख्या : 1236, तिथि : 29 अक्टूबर 2022



 

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