अन्तिम परीक्षा (जगदीश प्रसाद मण्डल)
दिवाली पाबैनसँ एक
दिन पहिने, सूर्यास्तक समय दरबज्जाक ओसारपर बैसल कमलदेव बाबूक मनमे ऐगला-पैछला सभ
विचार तर पड़ि गेलैन आ अखन जे भार एलैन अछि, तइ पाछू अपन
जीवन भरिक प्रशासनिक पदक इमानदारी दाँवपर चढ़ि गेल छैन। ..प्रशासनकेँ तीन अंगमे एक
अंगक जिनगीक बीच रहलौं, तीत-मीठ देखैत अपन इमान बँचबैत
हँसी-खुशीसँ सेवा-निवृति भेलौं, अखनो प्रशासनक सीनियर अफसर
मानले जाइ छी। गाम-समाजक लोककेँ मतलबे कोन कमलदेव बाबूसँ रहलैन, एस.डी.ओ. सँ लऽ कऽ कमिश्नर बनि सेवा निवृत्त भेला, गामसँ
कोनो मतलब नहि रहलैन। गौंओकेँ हुनकर खगता नहियेँ रहल। अपन कोट-कचहरी छी अपने
गेने-एने ने काज हएत, तइले कमलदेव बाबूक खगते किए रहत..! तही बीच अपराजित, माने कमलदेव बाबूक पत्नी, चाह नेने दरबज्जापर पहुँच, हाथमे चाहक कप धरा
देलकैन। अपन विचारमे डुमल कमलदेव बाबू बिनु किछु बजनहि चाहक घोंट लिअ लगला। तैबीच
अपराजित अपन चाहक घोंट मारैत बजली-
“कथीक सोगसँ
सोगाएल छी?”
अखन तक कमलदेव बाबूक
आदत रहलैन जे प्रशासनिक जे विषय रहत, ओ पत्नी तककेँ नहि कहबैन। यएह ने शासक-शासितक
बीच दूरी भेल। कमलदेव बाबू बजला-
“अपने देशक
सुप्रीम कोर्टमे कृष्ण अय्यर[i]
साहैब न्यायमूर्ति भेला अछि। ओ प्रशासनक तीनू अंगमे न्यायालयकेँ श्रेष्ठ बुझि अपन
इमानदारीक सम्बन्धमे कहने छैथ- ‘हमहूँ कोनो समाजक छी। निसचित
समय-ले ऐठाम छी, फेर जहिना पहिने परिवार-समाजक अंग बनि छेलौं,
तहिना ने रहबोक अछि।’ यएह विचार मोन पड़ि गेल
तँए चेहराक सोगाएल रंग बुझि पड़ि रहल अछि।”
ओना, कमलदेव बाबू
पत्नीसँ पूर्ण सन्तुष्ट छैथ, किए तँ परिवारक जे ढर्रा,
माने परिवार चलैक जे दिशा रहल अछि तइमे अपराजित पूर्ण निपुण छथि।
तखन कहि सकै छी जे अपराजित जखन एते पतिधर्मा छैथ तखन विश्वासपात्र किए ने छैथ जे
प्रशासनिक सेवाकेँ दुनू मिलि असान बना निमरजना करितैथ?
विचारक दौड़मे एहेन विचार आबि सकैए मुदा प्रशासनिक तकनीकक बोधो तँ तइले चाही,
से अपराजितकेँ तँ नहि छेलैन। तँए कमलदेव बाबूकेँ विचार-विमर्श करैक
अनुकूल जगह नहि छेलैन। विचार-विमर्श ले तँ अनुकूल विचारो आ अनुकूल जगहो चाही,
से नहि छेलैन।
ओना, पत्नीसँ माने
अपराजितसँ, गप-सप्प करैक मन कमलदेव बाबूकेँ नहि छेलैन, किए तँ पाँचमे दिन समारोह हएत जइमे सभसँ श्रेष्ठ किसानकेँ दस लाखक
पुरस्कार भेटतैन। ओही किसानक चुनावक भार कमलदेव बाबूकेँ देल गेल छैन आ हुनके हाथे
सम्मान पत्रक संग दस लाख रूपैआक चेक सेहो देल जेतैन।
किसानक तँ देशे भारत
छी, करोड़ोक संख्यामे किसान छथिए, तइमे एकटा पुरस्कार
अछि, तँए करोड़मे एककेँ चुनव बाल-बोधक खेल नहियेँ छी,
तैसंग ईहो खतरा अछिए जे उचितकेँ नहि भेट जँ अनुचितकेँ भेटत तँ
करोड़ोक मुहेँ बेइमान सेहो कहेबे करब। एक-आधक प्रश्न नहि अछि जे एकटाकेँ जँ
अनुचितो देलिऐ तँ दोसर सही कहनिहार हएत आ करोड़ोक जे संख्या अछि ओ अपनाकेँ ओइसँ
अलग मानि मुँह बन्न केने रहत। ऐठाम तँ करोड़ोक प्रश्न अछि तँए समस्या जटिल अछिए।
..कमलदेव बाबूक मनमे
ईहो होनि जे अपन सरकारी सेवामे कहियो पत्नीकेँ ने कोनो बातक जानकारी देलिऐन आ ने
विचार पुछलयैन। नहि पुछला पछातियो हँसी-खुशीसँ अपन बत्तीस बर्खक सेवा इमानदारीसँ
निमाहलौं। ओही इमानदारीक चलैत ने आइ ओहन भार, सेवा-निवृतिक पछातियो देल गेल अछि...।
ओना, जीवनमे अनेको
बेर एहेन प्रश्न कमलदेव बाबूक सोझामे, माने काज करैक दौड़मे
आबि चुकल छेलैन, मुदा तेकरा ओ ऊपर-निच्चॉंक मध्य अपनाकेँ
बुझि दुनू दिससँ, माने ऊपरोसँ आ निच्चोँसँ विचार-विमर्श करैत
काजक निपटान करैत पार लगा लेलैन। दोसर बात ईहो अछि जे प्रशासनक भीतर, निर्णय गोपनीय सेहो रहिते अछि, जइसँ समयानुकूल
परिवर्तित करैक सम्भावना रहैए, मुदा ई तँ से नहि छी। माने
एकटा किसानकेँ श्रेष्ठ किसानक सम्मान देब, बाँकी करोड़ो
किसानक मनमे उठबे करतैन जे हमरा संग अन्याय भेल अछि। अन्यायोकेँ सभ एक्के रंग
थोड़े बुझै छैथ। कियो खिस्सा-पिहानी जकाँ बुझै छैथ, तँ कियो
अपन जीवन बुझि अपनाकेँ विरोधमे ठाढ़ करैत मुकाबला सेहो करिते छैथ। एहेन परिस्थितिक
बीच ठाढ़ छी। तैसंग कमलदेव बाबूक मनमे ईहो उठैत रहैन जे अपना जनैत जीवनमे कहियो
अनुचित काज नहि केलौं, हँसी-खुशीसँ अपन संगी सभक बीच सेहो
रहलौं आ सेवा-निवृतिक पछाइत समारोहपूर्वक सम्मान सेहो पेलौं, मुदा आइ तँ ओहन क्षितिजपर पहुँच गेल छी, जैठाम अस्सी
बर्खक जीवन, माने उमेरक हिसाबसँ, बीत
चुकल अछि, तइमे बत्तीस बर्ख जवाबदेहीक जीवन सेहो बीतल अछि,
जँ कनियोँ नाकर-नुकर हएत तँ सभ केलहा-धेलहा पानिमे चलि जाएत।
पानियेँटा मे किए जाएत, शेष जीवन जे अछि सेहो जीब गरगट भऽ
जाएत। जखने मृत्युक समय गरगट भेल तखने ने लोक बाजत जे करनी देखियौन मरनी बेर..! करनी मरनीक जे चर्च अछि ओ शारीरिक नहि, मानसिक छी।
शरीरक क्षेत्र विचारक क्षेत्रसँ अलग अछि। जेकरा अनेको रोग-वियाधिसँ सामना करए पड़ै
छै। कहलो जाइ छै जे शरीर वियाधिक घर छी।
कमलदेव बाबूकेँ
पत्नीसँ नहि पुछैक इच्छा रहितो बजला- “कठिन घड़ीमे पड़ि गेल छी..!”
ओना, संयमित
भाषामे कमलदेव बाबू बजला मुदा ‘कठिन घड़ीमे पड़ि गेल छी’,
ई की भेल? कोन चीजक कमी अपना अछि जे कठिन घड़ीकेँ
असान घड़ी नहि बनौल जा सकैए। फुदैक कऽ अपराजित बजली-
“केहेन कठिन
घड़ी?”
पत्नीक प्रश्न सुनि
कमलदेव बाबूक मनमे अस्सी मन पानि एक्केबेर, पहाड़क झरना जकाँ, झहैर गेलैन। झहैर ई गेलैन जे अनेरे कोन दुरमतिया चढ़ि गेल जे मधुमाछी
छत्तामे गोला फेक देलिऐ। मुदा आब उपायो तँ दोसर नहियेँ अछि। जखन गोला फेक देलिऐ आ
मधुमाछी उड़ि गेल तखन काटैक डरे भगने हएत। सेहो तँ नहियेँ अछि। तहूमे कोनो-कोनो जीबठगर
मरदनमा माछी एहेन होइए जे कोस-कोस भरि चानिपर उड़ैत काटैले पछुअबैए। ..कमलदेव
बाबूक मनमे उठलैन जे परम प्रिय पत्नी छैथ जँ कहिये देबैन तँ की हएत?
जहिना विश्वमोहिनीक
सभामे नारदजीकेँ बनरमुँह देख शिवदूत हँसैत रहैन तहिना कमलदेव बाबूक मनमे इमान मोहैत
कहलकैन, कानमे पड़ैत देरी जँ कहि दैथ, माने विचार दैथ,
जे हमरो भाए की एक्की-दुक्की किसान छैथ, पचास
बीघाक जोत छैन, दू जोड़ा बरद छैन, तेसलिया
नारक टाल अखनो छैन...। तखन की करब?
विचित्र स्थितिमे
अपनाकेँ देख कमलदेव बाबू नारदजी जकाँ अपन चौरासियो आसन सम्हारि विचारकेँ बदलैत
बजला-
“अनेरे कोन
नोकरीक चक्करमे पड़ि जिनगी बर्वाद कऽ लेलौं, जे मरणतियो बेर
जान नहि छोड़ए चाहैए।”
पतिक विचार सुनि
अपराजितक मन चपचपेलैन। चपचपाइक कारण भेलैन जे पेंशनक आमदनीसँ अतिरिक्त आमदनीक उपाय
भऽ रहल अछि। अपन मनक चपचपीमे चपचप करैत अपराजित बजली- “काल्हि
दिवाली छी, लक्ष्मी
पूजाक संग काली पूजा सेहो हएत, तइ बीच तँ साक्षात् लक्ष्मीए-क
आगमन ने भऽ रहल अछि।”
जखन मन अनुकूल रहल
तखन कोनो शब्द कानमे एने जे अर्थ प्रकट करैए वएह शब्द शंकुल मन रहने ओइसँ तिरछिआएलो
आ विपरीतो अर्थ दइते अछि। ओना, पत्नीक बीचक जे बेवहारिक जिनगी कमलदेव बाबूक रहलैन
तइ अनुकूल आभास भइये गेलैन मुदा आभास तँ आभास छी। एक तँ ओहुना कमलदेव बाबूक मन
पत्नीकेँ सोझमे देख खिन्न भइये जाइ छैन जे माता-पिता, माने
पत्नीक माता-पिता, जेहेन छेलैन तइ अनुकूल बच्चासँ बढ़वाड़ि
भेलैन, मुदा सियान-चेष्टगर भेलापर पत्नीक रूपमे जखन अपना संग
एली तखन अपनो ने ऐ प्रश्नपर विचार तेही दिन करि कऽ ओइ साँचमे ढालैक संकल्प मनमे
रोपितौं..?
लगले अपने मन उत्तर
देलकैन जे आइ अस्सी बर्खक जिनगी बितला पछाइत जे मन कहि रहल अछि तइ दिन, माने शुरूक
दिन तँ ओ बाल-बोध कृष्णे जकाँ छल, जैठाम अन्हारक अपेक्षा
इजोत कम, वा इजोतक हिसाबे अन्हार बेसी छलैहे। पत्नीक मुँहक
कहल लक्ष्मीक चर्च करैत कमलदेव बाबू बाजए चाहलैन मुदा मन ईहो कहैत रहैन अखन ई काज, माने जे जिम्मा आएल अछि, ओ मनकेँ तेना झकझोड़ि देने
अछि, जे किछु आगू-पाछू सुझिये ने रहल अछि। मुदा जे प्रश्न
तत्काल सोझामे आबि गेल अछि ओकर निपटान तँ अपने ने करब। जँ अखने नहि सलटा लेब तँ
आगू, भारी-भरकम गुड़ घाव जकाँ जँ नहियोँ तँ रूँइउपार घाव जकाँ
तँ भइये जाएत। पत्नीक चित्तकेँ चेतन करैत कमलदेव बाबू बजला-
“काल्हि दिवाली
पाबैन छी, दीपक इजोतमे लक्ष्मी पूजा हएत आ निसभेर अन्हारमे
कालियो पूजा हेबे करत। तेकर परात, माने परसू गोबरधन पूजाक
संग बलिराजाक पूजा सेहो हेबे करत।”
कमलदेव बाबू अपना
विचारे विचारक भूमिका, माने धरती तैयार करैत सिलसिलेबार ढंगसँ विचारक क्रम मनमे बनैबते रहैथ कि
बिच्चेमे अपराजित टपैक गेली-
“चारिम दिन
भैयादूज सेहो छी।”
कमलदेव बाबू बजला-
“भैयादूजक संग चित्रगुप्त
पूजा सेहो छी।”
पतिक विचारमे विचार
साटैत अपराजित बजली-
“हँ, से तँ छीहे।”
पत्नीक सुढ़ियाएल मन
देख कमलदेव बाबू बजला-
“लक्ष्मीक जे
चर्च केलौं ओ मात्र धनसँ सम्बन्धित लक्ष्मी छैथ, मुदा क्षीर
सागरमे जे विष्णुक संग लक्ष्मी छैथ ओ उच्चकोटिक दोसर श्रेणीक छैथ। तेसर श्रेणीक ओ
लक्ष्मी छैथ जे इन्द्रक संग छैथ, तँए केते मोन राखब, जइ दिनक जे भोग-पारस हएत से भोगब। एते तँ मनमे अखनो खुशी अछिए ने जे केहनो
दुनियाँ किए ने रहल, मुदा अस्सी बर्ख तँ जीब लेबे केलिऐन।”
ओना, कमलदेव बाबूक
विचार सुनि अपराजितक मन उज-गुजा गेलैन। जइसँ पति-मुँहक कहल सभ बात नीक जकाँ नहियेँ
बुझली, मुदा एते तँ भावनामे जगबे केलैन जे अपनो बाल-बच्चाकेँ
अपना आँखिये लोक नहि देख पबैए, तैठाम जँ पाँच पीढ़ीक वंशगत
बीच जीब रहल छी, यएह कम भेल। ऐ सँ बेसी की चाही। अपराजित
बजली-
“हँ! से तँ नीक कि बेजाए, जीब लेबे केलिऐन..!”
भावसँ भरल अपराजितक
मन देख कमलदेव बाबूक अपनो मन भावुक भऽ गेलैन। विचार जगलैन जे पत्नीकेँ किए ने
चीज-बोस गनैक भाँजमे लगा दिऐन आ अपने ओइ दृष्टिसँ समस्यापर विचार किए ने करी जे
अपन जान अपना मुट्ठीमे पकैड़ इमानक बीच सीमाक रक्षा करी। मनकेँ दहलबैत कमलदेव बाबू
बजला- “आब की चाही।”
ओना, तुष्टिक
खियालसँ कमलदेव बाबू बाजल छला, मुदा परदेशियाक पत्नी जकाँ,
माने जखन परदेशसँ कमा-खटा परदेशी गाम अबै छैथ आ परिवारकेँ नजैरमे
रखि पत्नीसँ पुछै छथिन जे आरो की खगता अछि, तहिना अपराजितक
मनमे सेहो जगलैन। ओना, कमलदेव बाबू अपना काजकेँ प्रमुखतासँ
पकड़ने छैथ, तँए पत्नीक संग बेसी समय नहि लगबए चाहि रहल छला,
मुदा पत्नियोँ तँ जीवनक संगी छिऐन्हेँ। बकलेलो-ढहलेल बेटा-बेटी वा
पति-पत्नी किए ने रहए मुदा माता-पिता वा पत्नी-पतिक बीच प्रिय सम्बन्ध रहिते अछि।
सुपुट मुहेँ कमलदेव बाबू पत्नीकेँ कहलैन-
“अखन जिनगीक
अन्तिम परीक्षाक घड़ी आबि गेल अछि, जँ ऐ मे चुकब तँ शेष
जीवनक संग मृत्यु सेहो नारकीय हएत।”
पतिक बात सुनि
अपराजित विस्मित हुअ लगली। मनमे अनेको विचार जागए लगलैन। मुदा तइ सभ विचारकेँ
मनेमे शान्तिसँ सैंत बजली-
“हमरा की कहै
छी?”
पत्नीक बात सुनि
कमलदेव बाबूक मनमे अनेको प्रश्न एकसंग उठि गेलैन। उठि गेलैन जे कहैले ते बहुत किछु
अछि मुदा छी कोन जोकरक,
से तँ अपनो मन कहैए किने। मुदा तइमे दोख केकर। की लोहेटाक दोख आकि
लोहारोक? अपने मन दुतकारि कमलदेव बाबूकेँ जवाब देलकैन।
शुरूमे, माने जखन अपराजितक संग सम्बन्ध स्थापित भेल, तइ दिनमे पत्नीक अध्ययन नीक जकाँ जँ भेल रहैत तँ जहिना अपन जीवनक निर्माण
उच्च श्रेणीक केलौं, तहिना तँ करौल जा सकै छल। जँ से भेल
रहैत तँ दुनियाँमे केकरो दोसरकेँ तकैले जाए पड़ैए से तँ संगेमे ने छेली। मुदा की
अपन मन नहि कहैए जे चूक भेल। ओना, जँ मानल जाए तँ दुनू दिससँ
चूक भेल मुदा चूकक जवाब तँ ओकरे ने दिअ पड़त जे अपने अकास छुबि लेलक मुदा जीवनसंगीकेँ
भानसक भनसिये रखला। विचलित होइत कमलदेव बाबू बजला-
“अखन किछु ने
कहै छी, जहिना साधु-संयासी एकान्त बास तकै छैथ तहिना अखन
छोड़ि दिअ।”
ओना, अपराजित
साधु-संयासीक एकान्त बास केना बुझि पेबितैथ जे एकाग्रता जीवनक सभसँ मूल्यवान भावनाक
भवन छीहे, जैठाम अमृत बरसा सेहो होइते अछि, मुदा एते तँ बुझबे केली जे अखन पति अपन वेदनामे बिरहाएल छैथ तँए ऐठामसँ हटिये
जाएब नीक हएत। ‘हँ, हूँ’ बिनु किछु बजनहि अपराजित ओतए-सँ हटि गेली।
पत्नीकेँ लगसँ हटिते, अपराजितक
सम्बन्धसँ पूर्वक विचारो आ विचारक संकल्पो कमलदेव बाबूक मनमे बिजलोका जकाँ छिटकलैन।
छिटैकते देह भुलैक गेलैन। रूइयाँ-रूइयाँ जगि कऽ ठाढ़ भऽ गेलैन। मोन पड़लैन समाजक
बीचक ठाढ़ भेल पहाड़क दुर्गम स्थल।
बच्चेसँ कमलदेव
तीक्ष्ण बुइधिक छैथ। हाइ स्कूल तक अबैत-अबैत अपन गाम-समाजक अध्ययन गहींर रूपेँ तँ
नहि मुदा चलैनिक हिसाबसँ, माने बेवहारिक हिसाबसँ अध्ययन कऽ लेलैन। अध्ययनक क्रममे देखलैन जे समाजक
ओही जातिक हमहूँ छी जइ जातिमे बाबू-बबूआन सेहो छथिए। जइ बीच माने साधारण परिवार आ
जमीनदार परिवारक बीच नमहर खाधि अछि। बिनु पढ़लो-लिखल, पढ़ल-लिखलक
ओइ ओहदापर विराजमान छैथ जे साधारण परिवारक तीक्ष्ण-सँ-तीक्ष्ण बुइधिक लोक किए ने
होथि जे हीरा रहितो कोयलासँ झाँपल रहल अछि। समाजक बीच कोनो बेवस्थाकेँ तोड़ब,
वा सुधारब नान्हिटा काज नहियेँ अछि। ओ बेकती-विशेषसँ नहि
समाज-विशेषसँ तोड़लो जा सकैए आ सुधारलो तँ जाइये सकैए। बेकती-विशेष एते जरूर कऽ
सकै छैथ जे अगुआ कऽ समाजक जागरण करैत समस्याक सोझा ठाढ़ होइथ। कमलदेव बाबू से नहि
केलैन अपन प्रतिभाकेँ अपनेमे समर्पित करैत, आइ.ए.एस. भेला।
ओना, जीवनमे नवपन जरूर अबैत गेलैन मुदा काजक ओझरी काज दिस
खींच मनोचित जीवनसँ अलग खिंचेत गेलैन। मुदा किछु भेलैन अपन इमानकेँ अपन धर्म मानि जीवन-धारण
केने रहला। तेकरे फलाफल एते भारी काज पकड़ब छिऐन्हेँ।
अपनापर सँ कमलदेव
बाबूक मन अपन भार दिस बढ़लैन। भार दिस बढ़िते अपन ओ काज मन पड़लैन जे जीवनक अन्तिम
परीक्षाक रूपमे आगूमे ठाढ़ भेलैन। आगू-पाछू केतबो कमलदेव बाबू तकलैन मुदा रस्ता
नहि देख मन सामर्थ्यहीन हुअ लगलैन। जहिना अपन बुइधिक नि:आशा देख लोक दोसरकेँ पुछैए
तहिना कमलदेव बाबूक मनमे सेहो एलैन जे हमरा सन-सन केते पदाधिकारी भेला अछि, आ जेहेन भार
अपना भेटल अछि तेहेन भार सम्हारि अपन इज्जतकेँ ओहिना बरकरार रखलैन अछि जेना
मानवोचित होइए। ..कमलदेव बाबूक मनमे आशाक तीक्ष्ण लकीर खिंचेलैन। खिंचेलैन ई जे
अपनो तँ ओहन जीवनमे संगी रहबे केलाह अछि जे कौलेजसँ लऽ कऽ प्रतियोगिता परीक्षा तक
संग रहला। जहिना अपने एस.डी.ओ. सँ कमिश्नर धरि बनलौं तहिना ने सोमनाथ सेहो बनला।
सोमनाथपर नजैर पड़िते
कमलदेव बाबूक मनमे आश जगलैन। आशो केना ने जगितैन? जे काज वा विचार अपने नहि बुझै
छी ओ दोसरोसँ मदैत लऽ कएले जा सकैए। दिन-राति लोक करितो अछिए...।
सोमनाथपर नजैर
पहुँचते कमलदेव बाबूक मनमे बेचैनीक जगह चैन एलैन। मन चैन होइते सोमनाथक जीवनपथ दिस
नजैर दौड़ौलैन तँ देखलैन जे ओ तँ बदनियतिक बदनामी मुकुट सभ दिन पहिरनहि रहला।
रंग-बिरंगक विचार हुनका सम्बन्धमे, माने सोमनाथक सम्बन्धमे, अखनो लोक बजिते छैथ। लगले अपन मन कहलकैन, ‘जखन एक
रंगक जीवन रहल अछि, माने सोमनाथक संग, तखन
जीवने ने किए देखल जाए। लोक तँ अनेरो कखनो जाइतिक उन्मादमे, कखनो
साम्प्रदायिक उन्मादमे तँ कखनो क्षेत्रीय उन्मादमे एक-दोसरकेँ बदनाम सेहो करबे
करैए। मुदा, तइसँ अपना कोन मतलब अछि। अपना तँ ओतबे मतलब अछि
जे सोमनाथक काजक दौड़ केहेन रहलैन। जँ नीक रहलैन तँ नीक भेला, नहि जँ अधला रहलैन तँ अधला भेला। अधलासँ अधला विचार केलाक पछातिये ने अधला
हेबाक सम्भावना सेहो रहिते अछि। ..एकाएक कमलदेव बाबूक मनमे अनायास खसलैन जे जहिना
आइ अपने विशाल जनसमूहक बीच ठाढ़ छी तहिना ने सोमनाथोकेँ एकबेर ठाढ़ हेबाक मौका
भेटलैन। परिणाम की भेलैन? परिणाम यएह ने भेलैन जे माफी मांगि
जान बँचौलैन। एकाएक कमलदेव बाबूक मन ओइ सीमापर आबि अँटकलैन जे एहेन लोकसँ, माने सोमनाथ सन लोकसँ, विचार लेब जोखिम उठाएब हएत।
लगले अपने मन कहलकैन जे जँ सोल्होअना अलग हएब सेहो नीक नहि हएत। अपन काज छी अपना
मनसँ निर्णय करब। तइ बीचमे जँ पुछि कऽ किछु जानकारी लऽ ली, ओते
तँ विचारैमे असान हेबे करत। मन मानि गेलैन, माने कमलदेव
बाबूक मन मानि गेलैन जे सोमनाथसँ विचार लेल जा सकैए। किछु छैथ मुदा एते तँ छथिए
किने जे पैघ-सँ-पैघ जवाबदेहीक बीच सभ दिन रहला। ओना, जहिना
अपने बीस बर्ख सेवा निवृत्ति, नोकरीसँ भेना भेल अछि तहिना
हुनको भेल छैन। जइसँ एते तँ अनुभव आरो बेसी भइये गेल हेतैन जे जहिना जीवन
द्वन्द्वक बीच चलैए, तहिना विचारक द्वन्द्व सेहो अछिए। तहूमे
नोकरीक जीवन किछु आरो होइए आ नोकरी छुटला पछातिक जीवन किछु आरो होइए। ऐ बीच जँ अपन
भूल-चूक, माने जीवनक भूल-चूककेँ विचारक दौड़मे
सम्हारि-सुधारि नेने होथि, ईहो तँ सम्भव भइये सकैए। मोबाइल
उठा कमलदेव बाबू सोमनाथसँ सम्पर्क करैत बजला-
“सोम भाय,
एकटा तेहेन जवाबदेहीक भारमे पड़ि गेलौं अछि जे अनभुआर रहने किछु
सुझिये ने रहल अछि। तँए अहाँसँ सम्पर्क केलौं...।”
उमेरक हिसाबसँ सोमनाथ
अस्सी बर्खक भइये गेल छैथ,
मुदा जीवनक कोनो दुर्गति बाँकी नहि रहल छैन। हीया हारि सोमनाथ बजला-
“शरीरक सभ अंग
शिथिल पड़ि गेल अछि। प्राणटा बाँचल अछि, तँए बजै छी। मुदा ने
आँखि काज करैए आ ने कान। मनोमे ओहन शक्ति नहियेँ रहि गेल अछि जे किछु गम्भीर विचार
करब।”
कमलदेव बाबू बजला-
“सएह।”
सोमनाथ उत्तर देलखिन-
“हँ, से सएह।”
सोमनाथक उत्तर पेब
कमलदेव बाबूक मन घुरमोड़ लेलकैन। घुरमोड़ लैत मनमे उठलैन जे जखन लोक दुनियाँक
निस्सारता बुझि जाइए,
तखन ओकरा वास्तविकताक बोध होइ छै, मुदा तइमे
एकटा जबरदस मोकर सेहो फुटिते छै। ओ फुटब भेल जे पाछू उनैट जखन ओ तकै छैथ तखन
दुनियाँकेँ, माने लोककेँ, अपन करनीक
फलमे ओझराएल देख रिसिया जाइते छैथ, जइसँ ओहन दुनियाँसँ
अपनाकेँ बिमुख करए चाहै छैथ। अपन विचारपर कमलदेव बाबूक अपन बिसवास जगलैन। बिसवास ई
जगलैन जे विचार दइसँ सोमनाथ अनठा रहला अछि। तँए किए ने ओहन नहरनी भिराबी जे अधिकसँ
अधिक तरक पीजकेँ निकालि सकइ। जइसँ, माने जइ निकालबसँ,
मनमे सुआसो अबैए आ शरीरक रोग सेहो तँ भागिते अछि। कमलदेव बाबू बजला-
“भाय, आब अपने सभ ने दुनियाँक विधि-विधाता भेलिऐ, तँए
प्राण अछैत जँ हारि मानि लेब तखन अपना सन लोक, माने ओइ स्तरक
लोक, बेपनाह हेबे करता किने।”
कमलदेव बाबूक विचार
सुनि सोमनाथ बजला- “कमल भाय, सरकारी कार्यक्रम छी, सभ तौर-तरीका निर्धारित हेबे करत, ओकरा नीक जकाँ देख
ओइ अनुकूल काज कऽ लेब।”
कमलदेव बाबू बजला-
“बड़बढ़ियाँ।”
ओना, बजैक क्रममे ‘बड़बढ़ियाँ’ मुहसँ कमलदेव बाबूकेँ निकैल गेलैन मुदा
जखन गौड़ केलैन तखन बीचमे नैतिकताक प्रश्न मनमे उठि गेलैन। अपन नैतिकता काजक पछाइत
की कहत? अखन तँ काजक दौड़ अछि, समय
निर्धारित अछि तइ बीचमे समारोहक सम्पादन करैक अछि। ओना, कार्यक्रम
तय करैमे धड़फड़ी भेल, किए तँ जेते नमहर काज अछि तेते
मनन-चिन्तन करैक समय नहि भेटल। समारोहक जे सम्मान अछि, ओ
देशक माटि-पानि-हवासँ लऽ कऽ मरल-अधमरल, जीअल-अधजीअल तकसँ ने जुड़ल अछि। अपन नैतिकता की कहत? मुदा तइसँ पहिने ने देखब जे ‘नैतिकता छी की?’
नैतिकता छी की? मनमे उपैकते कमलदेव
बाबूक मन विचारक संग अनायास भूत दिस भगलैन, माने अतीत दिस
बढ़लैन। शास्त्र-पुराणमे जइ तरहक नैतिकताक प्रतिपादन भेल अछि ओ समय सापेक्ष छल।
ओना, विचारोक अपन आयु होइए। आजुक नीक विचार काल्हि अधला भऽ
जाइए। तहिना काजो आ समाजोक अछिए, एकक नीक दोसरक अधला भऽ
जाइए। एक गामक अनुकूल दोसर गामक लेल प्रतिकूल भऽ जाइए। खाएर जे अछि मुदा एते तँ
निर्विवाद अछिए जे मानवोचित बेवहार जे शास्त्र-पुराण देलैन ओ अखनो, माने एकैसमी शदीक आजुक वैज्ञानिक युगमे, ओहिना
गतिशील अछि, जहिना हजारो बर्ख पूर्वमे छल।
एकाएक कमलदेव बाबूक
मन अतीतसँ ससैर वर्तमानमे आबि अँटैक गेलैन। अँटैक ई गेलैन जे समयाचारकेँ जँ
नैतिकतासँ अलग देखब तखन ओ समयोचित केना भेल? जँ से नहि भेल तँ ओ समुचित केना भेल?
तहिना लोकाचार अछि। लोकक समयोचित मन भावनकेँ केतेक उचित आ केतेक
अनुचित कहल जाए, ई के करत। नीक यहए ने भेल जे अपन जिम्मेवारीकेँ
इमनदारीसँ पुरबैत चली, सएह ने भेल सभसँ पैघ नैतिकता। एकाएक
कमलदेव बाबूक मन फुला गेलैन। विचार जगलैन, अखन पाँच दिन
समारोहकेँ बाँकी अछि। बुझल जेतइ।
q
शब्द संख्या : 2937, तिथि : 18 नवम्बर 2020
Comments
Post a Comment