बेटीक अपमानपर एक नजैर आ जीवन संघर्ष

बेटीक अपमानपर एक नजैर 
मैथिली साहित्‍यक एकटा वि‍धा नाटक अछि। जे वि‍धा सभ दिन रौदियाहे सन रहल। गिनल-चुनल नाटककारक किछु नाटक जे ऑंगुरपर गनल जा सकैत अछि, दोगा-दोगी कोनो पुस्‍तकालयक शोभा मात्र बढ़ौलक। एकटा समय छल जइमे नाटककार जे नाटक लिखलैन तइमे वाक्-पटुता नै रहबाक कारणे वा शुद्ध-अशुद्ध उच्चारण नै भेने वा समुचित वाद-संवादक संग समदियाक अभाव सभ दिन देखल गेल। चूकि ओना, हम जेते-जे ढकि ली मुदा एकटा सत्‍यकेँ स्‍वीकार करए पड़त जे हम मैथिल छी। हमरालोकैनक मातृभाषा मैथिली भेल। मुदा माएकेँ माँ कहैत कनीको लाज वि‍चार नै होइए। जेना कि आँखिसँ लाजक पानि खसि पड़ल। तात्‍पर्य मैथिल होइतों दोसर भाषाक दासताकेँ शि‍कार भेल छी आ ओकर भोग भोगि रहल छी। बुझाइत अछि जेना मैथिली लेल ऐठामक माटिए उसाह भऽ गेल अछि। जैपर गदपुरनि मात्र उपैज सकैए। मुदा ओहेन उसाह माटिपर “बेटीक अपमान आ छीनरदेवी” लिखि नाटककार बेचन ठाकुर, चनौरागंज, मधुबनी, मैथिली नाट्य जगतमे एकर सफल मंचन कऽ महावीरी झंडा गाड़ि मैथिली, समस्‍त मैथिल आ मिथिलाक मान-सानकेँ मात्र बढ़ेबे टा नै केलैन अपि‍तु चारि-चाँद लगा देलैन। ऐ लेल ठाकुर जीकेँ समस्‍त मैथिली भाषी आ नाट्य प्रेमीक तरफसँ हम कोटीश: धन्यवाद दैत अपार हर्ष महसूस कए रहल छी। हमरा वि‍श्वास अछि जे अपने ई दुनू रचना जेकर मंचन अपने अपनहि कोचिंग संस्थानक छात्र-छात्रा लोकैनसँ करा, ई साबित कऽ देलौं जे मिथिलाक माटिमे अखनो ओतेक शक्ति बचल अछि जैपर केशरो उपैज सकैत अछि। 

नाटककारक नाटकक वि‍षय अति उत्तम छैन। वर्तमान शताब्‍दीक सभ मनुख ऐ बातसँ भिज्ञ अछि, सरकारी सर्वेक्षणसँ सेहो स्‍पष्ट अछि जे दिनानुदिन लिंगानुपात बढ़ि रहल अछि। सभ राज्‍यक अनुपात थोड़े ऊपर-नीचाँ भऽ सकैए मुदा कियो ऐ बातसँ मुँह नै मोड़ि सकै छैथ जे प्रति हजार लड़िका-लड़िकीक बीच एकटा बड़का खाधि बढ़ैत जा रहल अछि जइ खाधिमे लड़िकीक अनुपात निरंतर नीचाँ मुहेँ गिरैत जा रहल अछि आ हमरालोकैन कानमे तूर-तेल दऽ निचेनसँ सुतल छी। जौं ई क्रम जारी रहल तँ आगू की हएत से तँ सोचू!! ई एकटा प्रश्नवाचक चिन्‍ह छोड़बामे नाटककार एकदम सफल रहला अछि। एतबे नै आजुक वैज्ञानिक युगमे यंत्रादिक सहायतासँ ई जानि जे माइक गर्भमे पलैत बच्चा, बेटा नै बेटी छी... ओकर निर्मम हत्या करबामे कनिक्को कलेजा नै कँपैए!! जेकर कोनो कसूर नै ओकरा कुट्टी-कुट्टी काटि खुने-खुनामे कऽ माइक गर्भसँ बहार कऽ दैत छिऐ। जइ बेथे ओइ बच्चाक माए पनरह दिन धरि बिछौन धेने रहैत अछि। ऐठाम एकटा गप हम फरिछा कऽ कहि दिअ चाहै छी, ओ बेथा हुनकर ओइ बेटीक प्रतिए नै जेकर ओ हत्या करौलैन अछि अपि‍तु शारीरिक बेथा छैन जइ लेल एत्ते आ एहेन कुकर्म करै छैथ। ओइ निर्दोष बच्चाक माए-बाप दुनू ततबाए दोषी छैथ। ओ ई नै बुझि रहल छैथ जे जइ बेटीक ओ हत्या करौलैन जौं ओ बेटी आइ नै रहैत तँ की अपने रहितौं? जौं बेटी नै हएत तँ सृष्टि‍क रचना सम्‍भव अछि? जौं हँ तँ केना वा नै तँ एहेन अपराध कऽ स्‍वयं किएक एतेक पैघ हत्यारा सावि‍त भऽ रहल छी। रानी झांसी, लक्ष्‍मी बाई, सावि‍त्री, अहिल्‍या, सती अनुसुइया, इन्‍दि‍रा गांधी, मैडम क्‍यूरी, मदर टेरेसा..., ईहो सभ तँ बेटीए छेली। जौं हिनको हत्या पूर्वहिमे कऽ देल गेल रहैत तँ आइ...। तखन आँखि रहैत एना हम सभ आन्‍हर किएक? वुधि रहैत मुर्खाहा जकाँ काज किअए करै छी?
मनुख तँ मनुख छी ने, छागर-पाठी आकि गाए-महींस तँ नै जे केतौ कोनो...। तहूमे साँढ़े-पारा अधिक भऽ जाए, गाए-महींस कम तखन की हएत? जौं ई हम-अहाँ नै सोचबै तँ के सोचता? ऐ हत्याक पाछाँ एकटा और कारण अछि जेकर नाओं थिक दहेज। मुदा उहो तँ हमहीं अहाँ लेबाल आ देबालो छिऐ। अखनो समाजमे आ प्राय: गाम पाछाँ एक-आध गोटे जरूर छैथ जे अपन बालकक बिआह एकटा नीक कुल-कनियाँ ताकि आदर्श बिआह कऽ उदाहरण बनै छैथ। ऐ काजक दोषीकेँ सजा नै दऽ निर्दोषकेँ जानेसँ मारि दुनू परानी ऐ पापक भागीदारी छी। छीं...। 
शास्‍त्रो एकटा बात बतबैत अछि जे “यत्र नार्यास्‍तु पूज्‍यते रमन्ते तत्र देवता।” मुदा ओकर पूजा की करबै, ओइ देवीक संसारमे एबाक अधिकारे छीनि, होइए जे बड़का काज केलौं। 
जेतए समस्‍त वि‍श्व ऐ समस्‍यासँ जरि रहल अछि ओतए नाटककार अपना नाटकक माध्‍यमे एकटा साधारणो लेखक सदृश अपन लेखनीक माध्‍यमे समाजमे ई संदेश देबामे पूर्णत: सफल छैथ जे समय रहैत जौं नै चेतब तँ नाटकक मुख्‍य पात्र दीपक सदृश हाल हएत। जे अन्तमे कनियाँक मुइला पछाइत अपनेसँ भात पसाबैथ, किएक तँ हुनक कनियाँ बरोबरि गर्भपात करेबाक कारणे शोनितक कमीसँ उड़ीस भऽ मुइली। एतबे नहि, बेटीक अभावमे नगद गीनि आ तखन पुतोहु घर अनला। तखन हुनका कवीर साहैबक ई पाँति मोन पड़ैत छैन, “सन्‍तो सभ दिन होत ने एक समाना।” आबो जौं नै चेतब तँ अहिना टाका दऽ बेटी बेसाहऽ पड़त। निरंतर चीज-बौस जकाँ बेटियोक दाम बढ़ैत जाएत, जेकरा किनैत-किनैत अहाँक प्राण निकलि जाएत। किएक तँ अपना समाजमे एकटा नै कएक टा मरूकियाबला अखनो जीवि‍ते अछि। जे चारि लाख एकावन हजार टाका नगद आ सभ सरंजाम संगहि बरिआती ऊपरसँ। चेतु हे मैथिल आबो चेतु। नै तँ आब ओ दिन दूर नै जे गाड़ीपर नाव रहत। आब बेटी अपन अपमान बरदास नै कऽ सकैए। 
ऐ प्रकारे नाटककार समाज लेल एकटा पैघ संदेश दऽ रहल छैथ जे गर्भपातसँ पैघ कोनो पाप नै होइत अछि। तँए ऐ पापसँ बची आ बेटीक बाप बनी। अहुना बेटा आ बेटी दुनू कोखिक श्रृंगार होइए। ऐ तरहेँ श्री बेचन ठाकुरजी हमरा लोकैनकेँ नीन तोड़ैमे सफल रहला। जे हुनक कक्का श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डलजीक प्रेरणापूर्ण आदर्शवादी बेकतीक हाथ हुनका माथपर छैन। हम सेहो बिनु मंगने शुभकामना दैत छिऐन, रहबैन, जे अहिना नाटक लिखैत रहथु, मंचन करबैत रहथु, हम समीक्षा।
धन्यवादक पात्र श्रुति प्रकाशनक श्रीमती नीतू कुमारी आ नागेन्द्र झाजी केँ जे प्रकाशन समस्‍त भार उठा कृतज्ञ हेबाक मौका देलखिन। जौं वि‍देह प्रथम पाक्षि‍क पत्रि‍काक सह सम्‍पादक उमेश मण्‍डल एवम् सम्‍पादक गजेन्द्र बाबूकेँ जिनक अथक सहयोगक प्रसादे प्रकाशनक रस्‍ता सुगम आ प्रकाशन सफल भेल। तँए नै लिखब, कहब तँ अनुचित तँए अपने...। 




जीवन-संघर्ष 
मैथिली साहित्याकाशमे एकटा एहेन नक्षत्र जे आरदरा नक्षत्र जकाँ सुधी पाठककेँ सभ तरहेँ मनोरंजनसँ लऽ आदर्शवादी समाज, बेकती‍‍, व्याक्तिक कुत्सित एवम् दमित भावना, मनमे उठैत वि‍भिन्न प्रकारक समस्या आ ओकर निदानक रूपमे भरिपोख मार्ग दर्शन करैत अछि, जीवन-संघर्ष। जीवन संघर्ष थिक आ संघर्षे जीवन। जौं जीवन अछि आ जीवनमे संघर्ष नै तँ ओ जीवन जीवन नहि। तहिना जदी संघर्ष अछि तँ ओ संघर्षे जीवन थिक। एक-दोसराक बिना दुनू शब्द अपूर्ण सन बुझना जाइत अछि। जीवन अछि तँ संघर्षसँ अपने बँचि नै सकै छी आ संघर्षेकेँ जीवन मानि लेब जीवन थिक। अर्थात् जीवन-संघर्ष उपन्यास अपन संज्ञाक अनुसार आदिसँ अन्त धरि खड़ा उतरल अछि। सम्पूर्ण उपन्यासमे जे पात्र लोकैन छैथ ओ कखनो संघर्षसँ अलग नै भऽ सकला अछि। जे संघर्षकेँ स्वीकार कऽ लेलैन हुनका जीवन लेल एक नै अनेको बाट स्वागतार्थ प्रकृतिक संग नैसर्गिक सुख लऽ उपस्थित भेल। 
उपन्यासकार एकटा लब्ध प्रतिष्ठित जाहुरी जकाँ वि‍भिन्न प्रकारक संघर्षकेँ जे देखौलैन तँ ओकर समाधानो तकबामे केतौ पाछाँ नै रहला। जीवनमे संघर्षक समाधाने तँ जीवनक अभिप्राय थिक। ऐ बातकेँ स्पष्ट‍ करबामे उपन्यासकार शत-प्रतिशत सफल भेला। उपन्यासक आदियेमे उपन्यासकार बँसपुरा गामक एक गोट नववि‍वाहित यौवना जे जीवनक आ यौवनक सुआद मात्र बुझने हेती। गामक सटले आयोजित दुर्गापूजाक मेला देखए गेली। गनगनाइत मेला चहुओर लॉडस्पीकरक गगनभेदी आबाज चरिकोसिक नीन्न उड़ेने, गामक तीनटा लफुआ छौड़ा बहला-फुसला कऽ भनडार घर लऽ जा हुनका संग बलत्कार...। समाजक सामंतवादी व्यवस्थाक ज्वलंत उदाहरण अछि। आखिर ऐ तरहक जे बेवस्थाक हमरा समाजक बीच बाल-बच्चामे व्याप्त अछि जे माए-बहिनक संग बलात्कारक संग प्रस्तुत हुअए तखन इज्जत केकर बँचि पौत? के इज्जतदार रहता? एकटा प्रश्नचिन्ह छोड़बामे उपन्या्सकार पूर्णत: सफल भेला अछि। 
समाजमे व्याप्त ई जे कुबेवस्था अखनो अछि निश्तुकी ओ हमरा सभकेँ लज्जित करबामे कनियोँ धोखा-धड़ी नहि। जइसँ सम्‍भव अछि जे समाजक ऐ कुबेवस्थासँ गाम-घरक धारमे पानिक बदला शोनित बहए लागत। उपन्यासकारक उपन्‍यासक उदाहरणसँ स्पष्ट अछि जे पत्नी-बेटीक मुँहक बात सुनैत-सुनैत पतिकेँ कहलक- 
“जहिना हमर बेटीक इज्जत सिसौनीबला लूटलक तहिना सिसौनीक दुर्गास्थानमे मनुखक बलि परत।”
मुदा बाह-रे उपन्यासकार! जखन सम्पूर्ण बँसपुराबला सिसौनीबलाकेँ कचरमबध कऽ लहाशक ढेरी आ शोनित बहबैले तैयार रण लेल शंखनादक ध्वनि, लाठी, फरसा, गराँस लऽ मरै आ मारैले सिसौनी दिस बिदा भेल तखन गामक सभसँ बेसी उमेरक मनधन बाबा द्वारा रस्तापर चेन्ह दऽ ई कहब- 
“ऐ डाँरिसँ जौं कियो एक्को डेग पएर आगाँ बढ़ेबह तँ हम एत्ते प्राण गमा देब।”
मनधन बाबाक ई एक वाक्य, आगिमे पानिक काज केलक। सभ शान्त भऽ जाइ छैथ।
तखन सिसौनी दुर्गापूजाक प्रतिरूप बँसपुरामे कालीपूजा ठानल गेल। अध्य‍क्ष, उपाध्यक्ष चुनल गेला। एक्कैस आदमीक कमिटी बनौल गेल। कोनो काज हुअए ओ सर्वसम्मतिसँ हुअए। ऐठाम उपन्यासकार समाजिक सद्भावनाकेँ स्पष्ट करबामे शत-प्रतिशत सफल भेला। जे उत्तर आधुनिक कालक मध्य‍ उन्नत समाजवादी दर्शनक कसौटीक झलक सहजहि भेल। समाजकेँ आगाँ बढ़ेबामे दसगर्दा काज जरूरी अछि। जाधैर लोकक मनमे दसनामा काजक प्रति झुकाउ नै हेतैक ताधैर समाज आगू मुहेँ बढ़त केना? समाजेक बीच मंगल सन सोझमतिया लोक अछि तँ गणेश सन ठकहर सेहो। जइ सम्‍बन्‍धमे उपन्यासकार कहए चाहैत छैथ- 
“एक्के कुम्हारक बनौल पनिपीबा घैल सेहो छी आ छुतहरो। मुदा देखैमे दुनू एक्के रंग होइ छइ।”
उपन्यासकारक नजैर लगिचाइत अमवसिया दिन साँझे दिवाली आ निशा रातिमे कालीपूजा। गाममे आएल धी-बहिनसँ बेसी साइरे-सरहोजि, तहूमे परदेशि‍या सारि-सरहोजि आबि कऽ गामक तँ रंगे बदैल देलक। मेला लेल मुजफ्फरपुरसँ नाटक आ मेल-फि‍मेल कौव्वालीसँ लऽ महिसोंथाक नाचक आयोजनक संग वि‍भिन्न प्रकारक दोकान सभपर नजैर सेहो छैन। मेलामे वि‍भिन्न प्रकारक दोकानक बीच, चेस्‍टरबला दोकान सेहो उपन्यासकारक नजैरसँ नै बँचि सकल तँ दोसर दिस रमेसरा सन लोकक ई कथन- 
“धूर बुड़ि दिल्ली तँ हौआ छिऐ।”
अर्थात् पलायनवादी संस्कारकेँ चुनौती दैत गामेमे आयोजित कालीपूजामे बाजार देख चारि-पाँच हजारक समान बनौलक। जे नोकर नै बनि मालिक बनब! केतेक पैघ स्वाभिमानक परिचायक अछि? एवम् प्रकारे वि‍भिन्न प्रकारक जाति वि‍शेषसँ जुड़ल व्यवसायपर बल दऽ ग्रामीण उद्योगकेँ बढ़ाबा देलैन, जे सम्राज्‍यवादी प्रदूषणकेँ साफ करैत अछि।
ऐ प्रकारे उपन्यासक सार समस्त मिथिला आ मैथिल समाजक समस्याकक चित्रण करैत अछि। समाजक बीच व्याप्त वि‍भिन्न प्रकारक समस्या जे चाहे पलायनवादी होइ वा किसान मजदूरक। सरकारी मसोमातक होइ वा समाजिक मसोमातक। वि‍भिन्न प्रकारक जाति वि‍शेषसँ जुड़ल व्‍यवसायसँ हुअए वा कोसी कहरक समस्या। हमरा समाजक बीच धर्मक आड़िमे राजनैतिक समस्या सभपर उपन्यासकारक दूर दृष्टि छैन। खास कऽ वि‍धवा लेल कएल गेल प्रयासक पाछाँ बुझना जाइत अछि जे उपन्यासकार कोनो-ने-कोनो रूपमे नायकक भूमिकामे होथि। चूँकी वि‍धवाक समस्याकेँ एतेक लगसँ देखब आ ओतेक बढ़ियाँ समाधान निकालब साधारण बेकती लेल सम्‍भव नहि। अन्धवि‍श्वासक आड़िमे भगति खेला केकरो शीलभंग करब आ जहल काटब, सेहो उपन्यासकारक नजैरसँ नै बँचि सकल। समाजेक मंगलक वि‍चार जोगिनदरकेँ नीक लागब आ समाजिक वि‍धवाक सहायताक उपाए करब, किनको नीक लागि सकैत अछि। एतबे नहि, दुखनीक वि‍चारकेँ दुखनियेक शब्दमे उपन्यासकार लिखलैन- 
“हमहूँ तँ पाइयेबला ऐठीन रहलौं मुदा सभ सुख-सुवि‍धा रहितो ओकरा एहेन नीन कहाँ होइ छइ।'' देखै छी जे पेट खपटा जकाँ खलपट छै, भरिसक खेबो केने अछि कि नहि। तखन जोगिनदर घुट्ठी हिलबैत बाजल- 
“काकी, काकी...।” आ मोटरी खोलि जोगिनदर जोर भरि साड़ी, साया आ एकटा आँगीक संग दसटा दस टकही आगूमे राखि देलक। ऐ तरहक समाजक दबल-कुचलल मसोमात वर्गक सेवाधारीक रूपमे हुनक यथार्थ सेवा भावना ओहिना झलकि रहल अछि, जे ओ केतेक पैघ समाजसेवी छैथ। 
ऐ तरहेँ उपन्यासक एक-एक पाँति जीवन-संघर्षक सार्थकताकेँ प्रमाणित करैत अछि। पाठककेँ उपन्यास- जीवन एकटा संघर्षक रूपमे बुझना जाइत अछि। प्रस्तुत उपन्यासमे सभ तरहक उदाहरण- हँसब, बाजब, कानब, मारि-पीट इत्यादिसँ लऽ नव उत्सा‍ह, नव चेतना आ नव दिशा भेटैत अछि। आन कोनो ओझराएल उपन्यासकार जकाँ जिनगीकेँ कोनो चौबट्टीपर नै छोड़ि बल्कि एकटा नव सृजनात्मक रस्‍ता खोजि पाठकक संग समाजोक लोककेँ देखौलैन अछि। जहिना नदीक पानि अपना जीवनमे अनेको उतार-चढ़ाबकेँ पार करैत अपन बाट अपने‍ बनबैत अछि तहिना प्रस्तुत उपन्यासमे उत्‍पन्न भेल समस्याक समाधान करैत समाजोकेँ एकटा प्रशस्त‍ मार्ग देखबैत निर्विरोध आगाँ बढ़ल जा रहल अछि। उपन्यासमे एकटा समस्या नै अपि‍तु अनेको समस्या उपस्थित होइत अछि मुदा ओइ समस्याक स्वत: बुधि-वि‍वेक द्वारा निदान सेहो समस्येसँ निकलैत अछि। समाजक सभ वर्ग चाहे ओ दुखनी हुअए आकि पवि‍त्री, श्यामा हुअए आकि तमोरियावाली भौजी। नारीक एकटा सशक्त शक्तिक रूपमे देखा उपन्यासकार एकटा कृत केलैन ‍अछि। सम्पूर्ण उपन्यासमे उपन्यासकार मिथिला समाजक सभ्यता एवम् मान्यताकेँ देखाएब सेहो नै बिसरला अछि। मैथिल बेटीक प्रेम माए-बापक प्रति श्यामा द्वारा आनल गेल पाँच गो दलिपुड़ी, एक धारा चाउर, सेर तीनियेक खेसारी दालि, एकटा उदाहरण अछि। ओतबए नहि, मसोमात दुखनीक बेटा भुखना द्वारा आनल रूपैयाक गड्डी देख ई बाजब आ सोचब- 
“झाँपह-झाँपह नै तँ लोक सभ देख लेतह। आखिर ढहलेलो अछि तँ बेटे छी किने।” मने-मन भगवानकेँ गोड़ लागि बाजल- 
“भगवान केकरो अधला नै करै छथिन।”
उपन्यास जेना-जेना आगाँ बढ़ैत अछि सारगर्भित भेल जा रहल अछि। पाठक एकसूरे पढ़ैले बाघ्य छैथ। उपन्यासक मादे भोजनो-भातक धियान नै रहि जाइत अछि। अन्त: उपन्यासक सारक रूपमे प्रोफेसर कमलनाथ द्वारा प्रस्तुत कथन- 
“रतुका घटना दुखद भेल। मुदा ओ काल्हुक भेल। कालक तीन गति, भूत, वर्तमान आ भवि‍स । जे समय बीत गेल वएह समय वर्तमान आ भवि‍सक रस्‍ता देखबैत अछि। ढंगसँ एकरा बुझैक खगता अछि। दुखक भागब माने सुखक आएब भेल।” 
ऐ प्रकारे जीवन-संघर्ष उपन्यास कल्पना नै अपि‍तु यथार्थपर आधारित बुझना जाइत अछि। तँए अन्तमे ई कहब जे आशाक संग जिनगीकेँ आगू मुहेँ ठेलैत पहाड़पर चढ़ा अकासमे फेक दियौ। स्पष्ट अछि जे जीवन संघर्ष थिक आ संघर्ष जीवन, अर्थात् जगदीश प्रसाद मण्डलक जीवन-संघर्ष। आ प्रकाशक छैथ नागेन्द्र कुमार झा जे मैथिली साहित्याकाशमे पोथी प्रकाशनक झंडा फहरा-फहरा कऽ बहुत किछु कहि रहल छैथ। ऐ लेल श्रुति प्रकाशनक संग उपन्यासकारकेँ सेहो दुर्गानन्द तरफसँ बहुत-बहुत साधुवाद। 

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