DOHRI HAK Collection of Short Stories by Sh. Jagdish Prasad Mandal.
दोहरी
हाक
दोहरी हाक
जगदीश प्रसाद मण्डल
पल्लवी प्रकाशन
निर्मली
समर्पण भाव
गत-मत मीत मनुज मन
मन-मन्दिर भव भवन भवै
छइ।
तखने मन भवन भव
देव-दनुज मीलि तान
तनै छइ।
देव-दनुज...।
भविते भव भवन खिल-खिल
बाइन वाणी बिचैड़
बिचड़ै छइ।
वाणी वणिक करैण पकैड़
करैण-धरैण धड़ि धड़ै
छइ।
करणी-धरणी धीर धड़ै
छइ।
विवेक विचार विचरण
करै छइ।
विचैड़ विचार विवेक
बनि
पाप-पुनक पुल बनै छइ।
पाप-पुनक...।
ISBN : 978-93-87675-62-9
दाम : ` 250/-
सर्वाधिकार © श्री जगदीश
प्रसाद मण्डल
पहिल संस्करण
:
2018
प्रकाशक : पल्लवी
प्रकाशन
तुलसी भवन,
जे.एल.नेहरू मार्ग, वार्ड नं. 06,
निर्मली, जिला- सुपौल,
बिहार : 847452
मोबाइल : 8539043668, 9931654742
प्रिन्ट : मानव आर्ट, निर्मली (सुपौल)
आवरण : दी साहु प्रिन्टिग
प्रेस. निर्मली (सुपौल) पिन : 847452
DOHRI HAK
Collection of Short Stories by Sh. Jagdish Prasad Mandal.
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कथाक सत्तैर-
किछु ने फुरैए/08
महिरम/20
बेर परहक भदवा/30
सड़क-कातक खेत/44
दोहरी हाक/57
पाइक इज्जत/70
सेहन्ता/80
राक्षसक झड़/90
बेरपर/98
रचना क्रम (2014 सँ)/110
किछु ने फुरैए
अढ़ाइ मासपर गोपीलाल
इलाज करा कऽ पटनासँ घुमल छल। पटनाक इलाज सुनि अचरजो लागल आ खुशियो भेल। अचरज ई जे
पटना सन शहरमे अढ़ाइ मास तक रहि, गामक एकटा अदना आदमी अपन शरीरक इलाज करौलक। मुदा ई
तँ गामक उपलब्धि भेबे कएल तँए खुशी भेल। जे गोपीलाल दू पीढ़ीसँ, अंग्रेजक जमानासँ लऽ कऽ आइ धरि गामक चौकीदारक
रूपमे जिनगी बितौलक ओ आइ केतए अछि, तँए कनी बुझैक जिज्ञासा सेहो भेल।
तैसंग ईहो भेल जे समाजक रूपमे अपनो किछु दायित्व बनैए। गोपीलालसँ भेँट करए, पटनासँ एलाक दोसर दिन गेलौं।
गोपीलालकेँ भीतघर।
ओना, दरबज्जो भीतेक अछि, बड़ सुन्नर, बड़ बेस, दस गोरेक बैइसैबला। दरबज्जा खाली देख मन
झुड़झुड़ा गेल। झुड़झुड़ा ई गेल जे भरिसक गोपीलाल बेमारी लइये कऽ घुमल अछि, जँ दऽ कऽ घुमल रहैत तँ दरबज्जापर रहितए। मुदा जखन भेँट करए एलौं, तखन बिनु भेँट केने घुमबो केहेन हएत। तहूमे जँ अढ़ाइ मासमे रोग आरो मोटा
गेल होइ तखन तँ आरो जरूरी भेँट करब भाइये जाइए। फेर भेल जे डॉक्टर लग रहि रोग मोटा
जाएत, तँ ऐमे डॉक्टरक कोन दोख। ओना,
अपनो दोख नहियेँ। जेते चीनी देबै तेते ने मीठ हेतइ। आ जँ नहियेँ देबै, आकि थोड़े-थाड़ चीनी देबै आकि नूनू मिला देबै ई तँ अपन भेल किने। दस रंगक
दवाइ जहिना दस रंग काज करैए, तइमे कोनो जरूरी छइ जे मलेटरी
जकाँ कतार बन्दी चलए। तीर्थ स्थानक मेला छी, लोकक भीड़ रहबे करत, तइमे ऍंड़ी-दौड़ी लगबे करत किने। तहूमे डॉक्टर रोग छोड़बैबला दवाइ तँ नहि
छी, तखन दोखे किए...। तैबीच जीबछ भायकेँ देखलयैन जे गोपीलालक
भेँट करए ओहो आबि रहला अछि।
जीबछ भायकेँ देख मनमे
आरो हूबा भेल। फरिक्केसँ बजलौं-
“गोर लगै छी
जीबछ भाय।”
दरबज्जेपर ठाढ़ रही, पारखी जीबछ
भाय बुझि गेला। कहलैन-
“ऐठाम किए ठाढ़
छह?”
कहलयैन-
“दरबज्जा देख
धकमका गेलौं?”
रेहल-खेहल जीबछ भाय
छथिये, धड़धड़ाइत आँगन दिस बढ़ैत बजला-
“अखन अँगने ने
दरबज्जो बनि गेल अछि। तखन तँ एतबे परहेज करब जे चारि डेग पाछूए-सँ हिया कऽ देख लेब
जे कोन गप केकरा मुहेँ केहेन चलि रहल अछि, तइ अनुकूल अपनाकेँ
समाहित करब।”
जीबछ भाइक विचार नीक
लागल। पाछू-पाछू विदा भेलौं। अँगनाक मुहसँ चारि डेग पाछुए रही कि पुबरिया घरक ओसारक
एक भागक चौकीपर बैसल गोपीलालकेँ देखलयैन आ दोसर भागमे आठ-दसटा बैसल स्त्रीगण।
बेसीकाल सँ बैसल स्त्रीगण सबहक दरबारमे गोपीलालक बेमारीक विचार तर पड़ि गेल छल आ
अपन-अपन जिनगीक गप चलि रहल छल।
जीबछ भाय आगूमे ठमैक
कऽ ठाढ़ होइत आँखिक इशारासँ हमरा सचेत केलैन। भोजपुरवाली आ सुपौलवालीक बीच अपन-अपन
मातृभूमिक बड़ाइ दुनू गोरे अपना-अपना ढंगे करैत छेली, जइ बीच भाषा
आबि झगड़ा ठाढ़ केने छल। छुच्छे मुँहक गप झूठो भऽ सकैए मुदा जे लिखितमे अछि ओ केना
झूठ हएत। दुनूकेँ अपन-अपन पढ़ल रहबे करैन। जखने भाषा औत तखने भोजन औत आ जखने भोजन
औत तखने ओकर सुआद सेहो एबे करत। सुआद अबिते भोजपुरवाली बजली-
“मिरचाइक सुआदक
जेवरात ओकर तीतपन छिऐ।”
सुपौलवालीकेँ
अनसोहाँत लगलैन। अनसोहाँत ई लगलैन जे जँ मिरचाइक सुआदकेँ ‘तीत’ कहबै तँ करैलाक सुआदकेँ की कहबै? बजली-
“अपना मनक मौजी
आ बौहकेँ कहलौं भौजी..! अहींटा केँ कहलासँ नइ ने हएत।”
ओना, कहा-कहीमे
आठो-दसो स्त्रीगण दस दिस छिड़ियाल तँए अपना बेथे सभ बेथाएल। जइसँ चुपा-चुपी पसरले
छल, मुदा ई दुनू[1]
अपन राग-तान तँ पकड़नहि छेली...।
खखास करैत जीबछ भाय
अँगना पहुँचला, आ बिनु खसासे जीबछ भाइक पीठपर अपनो पहुँचलौं।
आठो-दसो स्त्रीगणकेँ
बैसल देख बजलौं-
“जीबछ भाय, लोकमे काफी जागरूकता आबि गेल। एना जँ बर-बेमारीमे जिगेसा-बात हुअए तँ
तेलोसँ चिक्कन हएत किने?”
‘तेल’क नाओं सुनि तिलियाइत जीबछ भाय बजला-
“कोन तेलसँ
केते चिक्कन हएत से कहाँ कहलह, जे खाइबला तेलसँ चिक्कन हएत
कि पीबैबलासँ, आकि मालिस करैबला तेलसँ हएत कि देह-हाथमे
सभदिन लइबलासँ। मुदा अखन एकरा छोड़ह।”
चामक मुँह छीहे बजबजा
गेल। ओना, चामोक मुँह चान सन सेहो अछि मुदा से नहि, बजा
गेल-
“जीबछ भाय, जँ सोझे महककेँ एना छोड़ैत जेबै, सेहो नीक नहियेँ।”
हमर बातसँ जीबछ
भायकेँ कुवाथ नइ भेलैन। मुस्की दैत बजला-
“सभ दिन तोहू
अनाड़ी-के-अनाड़ीए रहि गेलह..!”
जीबछ भाइक मुहेँ ‘अनाड़ी’ सुनि मनमे परपन शुरू भेल। मन हरियाए लगल, खुशियाए
लगल। जइसँ जेहने खुशी मनमे खुशियाएल तेहने ठोरसँ निकलल-
“दुनियाँमे
जेते ढोल अछि भाय, ओते तँ बजौनिहारो ने अछि।”
ओना, जहिना बहैत
धारमे सड़लसँ पाकल धरि सभ-पानि एकेगतिये भँसियाइत चलैए तहिना सड़लसँ पाकल धरि सबहक
रस्तो नमहर अछि किने। तँए, सभकेँ एक्के गुण-धरम मानल जाएत..?
बजैत-बजैत जीबछ भाय
बिच्चे धारमे रूकि गेला। पाछूसँ धकियबैत बजलौं-
“भाय साहैब, बिच्चे पाँतरमे किए रूकि गेलौं, गाड़ीक पेट्रोल सठि
गेल?”
जहिना हम धकियौने
छेलिऐन तहिना ओहो धकियबैत बजला-
“अपन एकटा बात
बीचमे आबि गेल से पहिने कहै छिअ। पैछला बातकेँ ताबे पराग्राफ बना थामह। एक दिन
कानमे टनकी उठल। हहाइत-फुहाइत जा ओछाइपर पड़ि रहलौं। पड़ल देख पत्नी जोरसँ बजली- ‘की भेल?’ बगले घरक दोसर गोरे रस्तेपर ठाढ़ सुनली, ओहो कनी जोर लगा बजली। सौंसे टोल समाचार पसैर गेल। काने टनक छल।
एके-दुइये सतरहटा जनानी जिगेसा करए पहुँचली। पुरुख सुनला कि नहि, मुदा एको गोरे नइ पहुँचला। अपन जिगेसा छल तँए सबहक बातक संग विचारो सुनए
पड़त। सतरहो गोरे सतरह रंगक दवाइ बता देलैन। तखन बुझि पड़ल जे दुनियाँमे कोनो
साइंस बढ़ल तँ ओ मेडिकल साइंस बढ़ल। जेते मनुख तेते डॉक्टर..! बता तँ देलैन मुदा एकटा भेटत हिमालय पहाड़मे आ दोसर भेटत जगरनाथ लगहक
समुद्रमे, मुदा आनत के? लंकासँ जे
हनुमानजी आमक आँठी-सभ फेकलैन, से रोपने के केते अछि..!”
जीबछ भाइक बात सुनि
जेना अपनो मनमे भेल जे दुनियाँक साए बेबकूफमे एकटा हमहूँ छी, जे एलौं हेन
गोपीलालक बीमारीक जिगेसा करए आ सुनि रहल छी मौग-मेहरीक इलाज..!
ओना, सौंसे ओसार
भरल लोक छल तँए किछु बजलौं नहि, तैबीच जीबछ भाय गोपीलालकेँ
पुछलखिन-
“गोपी, रोगक की हाल?”
गोपीलालक मन रोगसँ
रोगियाएल छल आकि लोक देख मन सोगियाएल छल से तँ गोपीलाल जानए। मुदा अनजानमे आकि
जानि कऽ गोपीलाल बाजल-
“भाय साहैब, किछु ने फुरैए..!”
गोपीलालक बात सुनि
जीबछ भाय चौंकला। मनमे फुटलैन- ‘अरे बाप! ई तँ परती खेतक
भाँजमे पड़ि गेलौं! ओ हमर अगुताइ मानत..?’
जीबछ भाय बजला-
“गोपी, अखन अपनो चैन नइ छी आ बहुत लोक बैसलो छैथ, तँए अखन
छुट्टी दएह। काल्हि तँ कनी मधबनी जाएब, परसू भिनसुरके पहर
आबि सभ गप करब।”
जीबछ भाय तँ कनछी
काटि कौल्हुका भॉंज मेटा लेलैन मुदा असगरे जीबछ भाय नइ ने छैथ, अपनो छी किने।
मनमे उठल- एक तँ जिगेसा करए एलौं, सेहो जँ नीक जकाँ नहि कऽ
पेलौं तखन एबे किए केलौं। गोपीलालकेँ की कहबै? मुदा लगले फेर
भेल जे जखन जिगेसा करए एलौं, तखन जँ जिज्ञासु मनमे बिनु
धाराक धारक चहटी जकाँ प्रवाहे रूकि जाएत तखन धरियाएत केना?
बजलौं-
“गोपीलाल, जीबछ भाइक परसुका भाँज भेलैन आ हमर कौल्हुका रहल।”
दुनू हाथ जोड़ने
गोपीलाल ओसारपर ठाढ़े रहल दुनू गोरे विदा भेलौं।
आँगनसँ निकैलते जीबछ
भाय बजला-
“श्याम, गोपीलालक वंशक खेरहा केते बुझल छह?”
जीबछ भाइक बात सुनि
दलिदर भीखमंगा जहिना बजैए जे तीन दिनक भूखल छी, तोहूसँ टपैत बजलौं-
“भाय साहैब, गोपीलालकेँ सोझे बुझै छी जे गामक चौकीदारो छी आ घरो गामेमे अछि।”
गोपीलाल गामक
चौकीदारक पीढ़ीमे दोसर नम्बरमे छैथ। पहिल नम्बरपर हुनकर पिता रहथिन जे अंग्रेजक
हुकूमतक समए नियुक्त भेल छला। निम्न जातिक परिवार, कहैले पनरह रूपैया दरमाहा रहैन
मुदा ओ रहै बेठेकान, एक तँ मासे-मास भेटै नहि, दोसर- सरकारी तंत्रसँ जुड़ल सेहो नहि रहै, सर्किलक
हिसाबसँ असेसर होइत रहै जे ओइ क्षेत्रक जमीनदार सबहक परिवारसँ जुड़ल रहैत।
चौकीदारी टैक्सक रूपमे गामक किसान सभसँ तसीलल जाइत आ चौकीदारकेँ दरमाहाक रूपमे
भेटैत छल। पहचानक रूपमे एकटा मुरेठाक कपड़ा सेहो देल जाइत रहइ।
पहिल पीढ़ीक अन्त भेल, देशो अजाद
भेल। मुदा ओ ओहिना-के-ओहिना, माने जेहने जिनगी जीबै छल तेहने
रहि गेल। ओही चौकीदारक दोसर नम्बरक माने दोसर पीढ़ीक चौकीदार गोपीलाल छी।
स्वतंत्र भेला पछाइत
देशमे उथल-पुथल भेबे कएल। किछु ऊपर उठल, किछु निच्चॉं धँसल। मुदा जे भेल, जेतए भेल...।
गोपीलाल जेहने छोट
खुट्टीक तेहने देहोक एकहारा तँए जुआनो होइमे देरी लगलै आ जुआन भेला पछाइत जुआनियोँ
बेसी दिन टिकबे केलइ हेन। जँ जन्म-कुण्डली ठीक-ठाक रहितै तँ आठ बर्ख पहिनहि
सेवा-निवृत्ति भऽ गेल रहितै, मुदा से नहि, अड़सैठ बर्खमे
चलितो गोपीलालक अखन तीन साल नोकरी आरो बाँकी छइ।
दोसर दिन, भिनसुरका
पहरक चाह-पान केला पछाइत जखन दिनक रूटिंग मिलेलौं तँ काजक सूचीमे पहिल नम्बर
गोपीलालक बेमारीक जिगेसा करब छल। जे उचितो छल। जीवनमे जहिना भोजनकेँ प्रमुखता
रहितो बेमारीकेँ प्रमुख मानल जाइए तहिना, बेमार गोपीलालक
जिगेसा करबकेँ प्रमुख मानि विदा भेलौं।
संजोग नीक बैसल।
महिला जगतकेँ भानस-भात, नोकरी-चाकरी करैक पहर रहने गोपीलालक ऐठाम मेला-ठेला जकाँ भीड़-भार नहियेँ
छेलइ। अनुकूल मौसम पेब मन खुशी भेल जे भरि पोख गप-सप्प करैक सुसमय भेटल।
जइ चौकीपर गोपीलाल
बैसल छल तहीपर जा बैसलौं। ओना, गोपीलालक नातिन कुरसी अनलक,
भाय! बेमारीक अवस्थामे जँ डॉक्टर-ओकील जकाँ बैसैक कुरसी तकता
तखन तँ भेल रोगक इलाज! ओना, अपना ऐठाम
एहनो तँ धारणा बनल ऐछे जे पैघसँ पैघ रोगकेँ छुतहा रोग[2]
बुझि लोक रोगी लग जाइसँ परहेज करए चाहैए। चौकीपर बैसिते गोपीलाल बाजल-
“भाय साहैब, किछु ने फुरैए..!”
गोपीलालक बात सुनि मन
पड़ल जे काल्हियो यएह बात गोपीलाल बाजल छल आ आइयो यएह बात बाजल। जरूर किछु तेहेन
विचार रोगक जड़िमे अछि जे बेर-बेर गोपीलालक मनमे अँकुर रहल छइ। ओना, अँकुरो-अँकुरोमे
अन्तर अछि। तँए केकरो डिम्ही, केकरो अँकुर, केकरो अँखुआ आ केकरो गाछ कहले जाइए, तँए केकरो
केलहा मन पड़ै छै तँ केकरो करैक इच्छा मन पड़ै छै आ केकरो संकल्पित काज पछुआइत देख
मन पड़ै छइ। खाएर जे छै, जेतए छइ से तेतए छइ, ऐठाम गोपीलालक बात अछि।
बजलौं-
“गोपी, अपने तँ अनुभव करैत हेबह ने जे एना किए पछड़लौं?”
हमरा पुछैसँ पहिनहि
गोपीलालक मन बेसी बेथित रहै आकि पुछला पछाइत भेलै, ई गोपीलाले जानत, मुदा तैयो हुब-हुबाइत बाजल-
“भाय साहैब, जखन पुछलौं तँ सभ बात कहिये दइ छी।”
बजैत-बजैत बिच्चेमे
पत्नीपर गरैज उठल-
“भाय साहैबकेँ
एक घन्टासँ बेसी एना भऽ गेलैन आ हिनका चुल्हिकेँ लोहारक लोहा छुबि देने छैन!”
हमरा रोचे आकि घरबलाक
रोचे बेचारी नातिनक हाथे लगले दू कप चाह पठा देली।
एक घोंट चाह पीब
गोपीलाल अपन दहीन हाथ देखबैत बाजल-
“भाय साहैब, ऐ हाथसँ बहुत काज जिनगीमे केलौं।”
काजक चर्च होइते बजा
गेल-
“वाह, वाह बहादुर।”
पहड़िया बहादुर बुझि
आकि अपन बहादुरी बुझि गोपीलाल बाजल-
“जहिना बाबू
पनरह रूपैआक नोकरीक संग परिवारो देलैन तहिना हमहूँ आइ धरि निमाहैत एलौं। छोट भाय
सभ छँटगर होइत गेल, परिवार अलग करैत गेल। पाँचटा अपनो
बेटा-बेटीकेँ पोसि-पालि, बिआह-दान करा देलिऐ।”
बजलौं-
“यएह सभ ने
परिवारकेँ जीवित रखैक जीवन देब भेल। अही जीवनसँ ने परिवारक संग समाजो जीबैए, जैपर समाजक नींव सेहो ठाढ़ होइए।”
गोपीलाल पाशा पलैट
बाजल-
“भाय साहैब, जहियासँ नोकरी शुरू केलौं, तहियासँ कि कोनो एक्केटा
हुज्जैत भेल, बुझि पड़ैए जेना गाममे सभसँ बेसी हुजतिया हमहीं
छी। जेना हम सभ आन देशक लोक होइ तहिना ने अपनो देशमे गुलामीक गनजन होइते अछि।”
गोपीलालक विचारधारा
देख मनमे भेल जे भरिसक गोपीलालक सभ रोग छुटि गेल अछि। बजलौं-
“से की?”
गोपीलाल बाजल-
“पनरह रूपैआक
नोकरी आइ पनरह हजार भेल, से कि अहिना भेल। नीक जकाँ ते मन नइ
अछि मुदा सात-आठ बेर जहल जरूर गेल हएब। ओना जहलोमे कम दुर्गैत भेल सेहो नहि। जहिना
नरकोमे ठेलम-ठेल होइए तहिना जहलोमे भेल। चिन्हरबा चोर सभकेँ जखैन सोझा पड़ियै आ कि
चारिटा गारि ओहो पढ़ए आ चारिटा हमहूँ पढियै।”
बजलौं-
“एक्के घरमे सभ
रहै छेलहक?”
गोपीलाल बाजल-
“सरकारक ने जहल
छी, सभकेँ ने एक्के रंग अधिकार अछि।”
गोपियेलालक बातकेँ
उनटबैत बजलौं-
“गोपी, ई नहि बुझि पेलौं जे किए कहलह जे किछु ने फुरैए?”
जेना गोपीलालो अपन
बात कहैले तैयारे रहए तहिना बाजल-
“भाय साहैब, ऐ बातक जवाब पछाइत देब, पहिने दोसर सुनि लिअ।”
हुँहकारी भरैत बजलौं-
“बड़बढ़ियाँ
बाजह।”
एकाएक जेना गोपीलालक
चेहराक रंग उतरए लगल। जेना ट्यूवेल वा बोरिंगक पाइप धरतीमे गाड़ैकाल तर मुहेँ
सरसराइतो आ केतौ-केतौ ठमैकतो बढ़ैए तहिना गोपीलालक मन सेहो अपन बेमारी दिस बढ़ए
लगल। बाजल-
“भाय साहैब, तीन सालसँ जहिना दरमाहा बेसी भेल तहिना दुनू परानी तेना रोगा गेलौं जे
खरचे बेसिया गेल। मुदा संतोख अछि जे कर्जा-बर्जा नइ होइए,
कहुना काज ससारैत चलै छी।”
बजलौं-
“यएह ने भेल
तोरा सन काबिल लोकक काज।”
‘काबिल’ सुनि जेना गोपीलालक कबिलैती घोंसरए लगलै तहिना बाजल-
“भाय साहैब, दरमाहा लोभे नोकरी नइ छोड़ै छी, तीन सालसँ दवाइयो
चलैए आ ड्यूटियो करै छी। मघारिमे केहेन शीतलहरी भेल से ते देखले अछि। सात दिनक
ड्यूटी एनएचपर भऽ गेल। तेहेन ठंढी लागल जे जान बँचब कठिन भऽ गेल। तखन पटना गेलौं, ओतुके इलाजसँ अखनो जीबै छी।”
बजलौं-
“बेटाकेँ किए
ने नोकरी दऽ दइ छहक?”
गोपीलाल बाजल-
“तीनटा बेटा
अछि। अपना भैयारीमे हम जेठ छेलिऐ तँए बाबू हमरे नोकरी देलैन आ हमहूँ भाय सभकेँ
परिवार ठाढ़ कऽ देलिऐ।”
बजलौं-
“ई की कोनो
चोरौल बात अछि।”
‘चोरौल बात’ सुनि जेना गोपीलाल हिया हारि देलक तहिना बाजल-
“बाबूक
अमलदारीमे चारू भाँइ एकठाम छेलौं, तँए बँटवारामे कोनो
राहु-केतु नइ लागल। मुदा अपन तीनू बेटा भीन अछि! अखन काजुल
छी तखन तँ कियो देखते ने अछि आ काज छुटलापर के देखत।”
वजनदार विचार
गोपीलालक बुझि पड़ल। मुदा जँ कहीं नोकरीक बिच्चेमे मरि गेल तखन तीनू बेटाक बीच की
हएत? बजलौं-
“नीक हेतह जे
अपना जीविते तय-तसफिया कऽ लेबह।”
गोपीलाल बाजल-
“तही ओझरीमे
तेना ओझरा गेल छी जे किछु फुरबे ने करैए।”
¦
शब्द संख्या : 2095, तिथि : 12 नवम्बर 2017
महिरम
विदेशसँ
एफ.आर.सी.एस.क डिग्री पेब डॉक्टर नैनाराम अपन पढ़ाइक चरम सीमा छुबि सोझे गाम
पहुँचल। लछमनपुर गाममे सभ रंगक लोकक बास अछिए, अही गामक डॉ. नौनाराम। चरिचकिया
गाड़ीसँ गाम पहुँचल, गामक सिमान टपलाक पछातियो गामकेँ नीक
जकाँ नहि देख पौलक। तेकर कारण भेल जे डॉ. नैनारामक मनकेँ ओ विचार घेरि कऽ पकैड़
नेने छल जे जइ आशा-बिसवाससँ पुनियानन बाबा हमरा पाछू पड़ल छला, तीन बर्ख धरि विदेशमे अध्ययन केला पछाइत तेकरा पूर्ति केलौं। वएह ने अपनो
जिनगीक नव सीमा आ हुनको पहिल भेँट छी, तँए पहिने हुनकासँ भेँट
करैत आगूक आज्ञा पबैत जिनगीमे पएर रोपब...।
ओना, पुनियानन
बाबाकेँ सेहो जानकारीमे छेलैन्हे जे नैनाराम डॉक्टरीक उच्च डिग्री प्राप्त केला
पछाइत आइ पहिल पहिल डेग गाममे राखत। नव लोकसँ भेँट हेबे करत...। पुनियानन बाबाक मनक
जेतेक आन-आन किरियाकलाप छेलैन सभकेँ मनेमे उसाइर डॉक्टर पोतापर नजैर अँटका नेने
छला।
भरि गाड़ी चीज-बौसक
संग डॉ. नैनाराम आएल अछि। दरबज्जापर गाड़ी लगिते पुनियानन बाबा गाड़ीक समानक संग
डॉ. नैनारामकेँ गाड़ीसँ उतारैक पाछू लगि गेला आ नैनाराम अपना संग अपन समान उतारैक पाछू
लागल, तँए ने पुनियानन बाबा पोता-रूपमे नैनारामपर नजैर देलैन आ ने नैनाराम बाबाक
रूपमे पुनियानन बाबा दिस तकलक। अपन चीज-वौस उतारैक पाछू लगल रहल, तँए प्रणामो करब पछुआएले छेलइ। गाड़ीक भाड़ा दैत नैनाराम गाड़ीकेँ विदा
केलक। दरबज्जाक आगूमे नव-नव रंग-ढंगक चीज-बौस छेलैहे। दरबज्जापर सँ गाड़ी निकलला
पछाइत पुनियानन बाबाकेँ होश एलैन जे जइ नैनाकेँ ज्ञानार्जन-ले विदेश पठेलौं ओ ज्ञानक
अर्जन केला पछाइत गाम पहुँचल अछि। मुदा केहेन बनि आएल अछि?
ओना, विदेशी पानि जँ किछु दबो अछि तँ किछु पानि तेज नहि अछि
सेहो नहियेँ कहल जा सकैए। ओही पाइनिक पनियाएल ने डॉ. नैनाराम सेहो छीहे। तैबीच डॉ.
नैनाराम अपन आँखिक नजैरसँ बैग-एटैचीक गिनती पुरबैत पुनियानन बाबाक पैरपर झूकि, दुनू हाथे छुबि माथ ऊपर उठौलक। ने पुनियानन बाबा किछु बजला आ ने डॉ.
नैनाराम। किछुकाल धरि दुनूक अपन-अपन मन अपन-अपन विचारक बोनमे बोनियाएल रहल। ओना
पुनियानन बाबा मने-मने पोताकेँ गोर लगैक असिरवाद दइले नइ सोचै छला से बात नइ छल, मुदा कखनो एहेन भऽ जानि जे जहिना चालू रस्ताकेँ चालू धार तोड़ि अवरूद्ध
कऽ दइए आ बीचमे फँसल यात्रीक जे दशा होइए तेहने भऽ जाइन। मुदा लगले एहनो हुअ लगैन
जे जहिना एके छड़पानमे हनुमानजी समुद्र फानि लंका पहुँच गेल छला तहिना ने हमरो
छड़पान अछि। गाम रूपी समुद्रक पहिल फनबैया तँ भेबे केलौं किने। एक तँ गाममे अखन तक
पाँच साए परिवार रहितो तीन गोरे मेडिकल साइंस पढ़ि डॉक्टर बनल अछि। तइ तीनमे हमहीं
ने ओहूसँ आगू (एफ.आर.सी.एस.) हनुमानजीक लंकाक समुद्रकेँ फनलौं। ओना, एक तँ अपन देश-दुनियाँक शिरोमणि अछि तहूमे देशक शिरोमणि ने अपनो सभ
सगरमाथबला भेलिऐ। गंगा-महानन्दा सन नदीसँ लऽ कऽ ब्रह्मपुत्र धरिक बीच बसैबला...।
पुनियानन बाबाक मन बुदबुदेलैन-
“कहू जे
विदेशसँ पोता ज्ञान गुनि कऽ आएल, अबिते गोड़ लगलक अछि, किछु असिरवाद नइ देलिऐ!”
मुदा लगले दोसर मन
पुनियानन बाबाक पहिल विचारकेँ दोसर विचार ई रोकैत धोपलक जे आब अपना रहल कि जे
पोताकेँ असिरवादमे देब। आब तँ ऐगला पीढ़ीक ओ ने भेल, अपन जे विचारमे छल ओ तँ काइये
पुरौलौं किने...। एकाएक, पुनियानन
बाबाक मनमे जेना हूबा जगलैन। हूबा जगिते नजैर ऊपर केलैन तँ डॉ. नैनारामक आँखि मलिन
बुझि पड़लैन। नैनारामक मलिन आँखि देख मने-मन विचारए लगला जे कोनो गाछक फूल वा कोनो
गाछक फल, तखन ने अपन रूप बेदरंग बनबैए,
जखन ओकरा देहमे कोनो रोग-वियाधि गरसने रहल।
पचीस बर्खक नौजवान
डॉ. नैनाराम, जेकर उठाइन पहाड़ जकाँ अछि। मुदा मनक उठाइन जहिना पहाड़ जकाँ उठैत रहैए
तहिना विचारैत समुद्र जकाँ गहिंर नइ होइए सेहो नहियेँ कहल जा सकैए। गामसँ उठल
नैनाराम, स्कूल-कौलेज होइत शिखरपर पहुँच गेल अछि। होइतो तँ
अहिना अछि जे गरीबीमे जहिना धड़धड़ाइत जिनगी खसैए तहिना अमीरीमे धुधुआइत उठिते
अछि। डॉ. नैनारामक सेहो ने एहने जिनगी अछि।
दरबज्जाक कोठरीमे डॉ.
नैनारामक सभ वस्तु-जात रखबा सुखिया दादी लग आबि पोताकेँ कहलैन-
“बौआ, कखुनका खेने हेबह कखुनका नहि, तँए पहिने
कपड़ा-लत्ता बदैल नहा-सोना लएह।”
पत्नीक विचारकेँ
सहर्ष मानि पुनियानन बाबा बजला-
“हँ बौआ, पहिने नहा-धो लएह, किछु खा-पीब लएह, पछाइत निचेनसँ आगू-पाछूक सभ गप हेतइ।”
ओना जहिना कपड़ा
पहिरबोक चलैन सभठामक अलग-अलग अछि तहिना नहाइ-धोइक अन्तर सेहो अछिए। मंत्रो स्नान
नइ होइए सेहो तँ नहियेँ अछि। मुदा जैठामक रहैक अभ्यस्त नैनाराम भऽ गेल छल तैठामक
लेल अनुकूले छल। मुदा ‘जेहेन देश तेहेन भेष’ सेहो अनुचित नहियेँ अछि। गर्म प्रदेशमे
जहिना कमसँ कम, हल्लुकसँ हल्लुक वस्त्रक जरूरत होइए तहिना
ठंढ प्रदेशमे गर्मसँ गर्म आ अधिकसँ अधिक वस्त्रक जरूरत होइते अछि। ओना, डॉ. नैनाराम तीन साल विदेशमे रहल मुदा तइसँ पहिलुका–बाइस-तेइस बर्खक–जिनगी
तँ अपने ऐठाम बीतल छेलइ। तैसंग ईहो तँ भाइये गेल अछि जे नैनारामक विचारमे परिपक्वता
सेहो आबिये गेल अछि। जइसँ बोधमे सुबोधता सेहो आबि गेल...। तैबीच सुभद्रा चाहो आ
पानियोँ नेने दरबज्जापर पहुँचली।
चाह-पानि देख सुखिया
दादी बजली-
“बौआ, जँ अखन नहाइक मन नइ होइ छह तँ नहि नहाबह, हाथे-पएर
धोइ पहिने चाह पीब लएह।”
ओना पुनियानन बाबा सेहो
मने-मन नैनारामक मलिन नजैरकेँ अपना नजरिये आँकि रहल छला मुदा मनक बात तँ तखने ने
बुझता जखन डॉ. नैनारामक मनक भरास निकलत। से तँ नैनारामो निकालि नहि रहल अछि, जइसँ पुनियानन
बाबाक मनमे ईहो होनि जे हमरा की, सभकेँ बुझल छै जे ‘गमैया गोनैर दुनू कात चिकने..!’ जँ परिवारक आमद समटल
बान्हल रहत आ तइ बीचक जिनगी रहत, ओकरा जँ कियो, माने तइ परिवारोक आ परिवारजनोकेँ, ऑंगुर उठा कनाह
वा अन्हराएल आँखिये देखत, तँ ओहू परिवारजनकेँ बराबरीक विपरीत
पाशा तँ ओहन भाइये जाएत जे कनहाक बँचलोहो आँखि आ अन्हराक चौपटोकेँ फोरत।
संयोग नीक बनल, एक तँ ओहुना जेना
बोनाएल बोनमे अनगिनत गाछक बीच अनगिनत रस्ता रहने जेमहर जाइक हुअए, रस्ते-रस्ता रहैए, तहिना परिवारोमे कोनो रूपक नव
आगमन भेने सेहो एकठाम बैस बतियाइक संजोगक रस्ता नइ बनैए सेहो नहियेँ कहल जा सकैए।
तहूमे गामे छी, जखन ऊँट-गदहापर लदल लोकक प्रवेश होइए आ दसटा
देखनिहार आगू-पाछू होइत देखए लगैए तखन तँ डॉ. नैनाराम सहजे ‘डॉक्टर’ बनि परिवारमे पहुँचल अछि। सोभाविके अछि जे परिवारमे कमासुत पुत भेने
जहिना माए-बापक मनमे पुतपन जगै छैन तहिना बाल-बोध आसक संग दहेजी दुनियाँमे दहाइत
बेटी-बहिनक आशा सेहो जगिते अछि। बाबा-दादी भलेँ गरियाइये-गरियाइये
किए ने कहथिन जे ‘बेहूदा निमक-हराम भऽ गेल! केकरा एते नून खुएलौं जे बीस बर्खक बिसैर गेल! एहेन
बिसराहकेँ जे छह मासक पछाइत नून चटेलौं, से जन्मक छठिये दिन
चटा दैतिऐ।’
तैसंग ईहो ने कहबे
करथिन जे ‘जेकरा बुझै दुआरे पढ़ेलौं, ओ जे एते बुझला पछाइतो ऐगला
नइ बुझत, तँ की आनो अपन सात जन्मक औरुदा ओकरे दऽ देत! सभ अपना-अपना औरुदे ने जीबो करैए आ मरबो करैए। औरुदा केकरो कियो केतौसँ
आनि कऽ देत आकि अपना मने-देहमे छइ।’
संजोग बनल जे चाहे
पीबैत-पीबैत रंग-रंगक चाह सेहो जगिये गेल। भाय, ‘जेतइ चाह तेतइ
ने राह।’ सभकेँ अपन-अपन जिनगीमे बधो-रूकाबट छइहे। चाह चलला
पछाइत पान चलल। पान तँ चलल मुदा डॉ. नैनाराम मनाही करैत सुभद्रा-बहिनकेँ कहलक-
“नइ, बुच्ची पान नइ खाइ छी।”
ओना, सुभद्राक
मनमे ईहो भेल जे अपनो ऐठामक डॉक्टर आ विदेशोक सभ पान नइ खाइ छैथ, सिगरेटे चुरुट पीबै छैथ। मुदा से बाबाक सोझामे एहेन गल्ती हम केना करब।
खाहिंस हेतैन आ बजता तँ छोट बहिन छिऐन्हे आनि देबैन। मुदा एते रच्छ रहल जे चाहे तक
विचार अँटैक गेल।
पुनियानन बाबा अपन
ताकमे रहैथ जे अपन अनुभव तँ नैनारामे ने बाजत। जे हम सभ नइ बुझने छी, बुझब। ओना
पुनियानन बाबाक अपन विचार छैन जे मनुखक जिनगीमे जहिना काजक महिरम तहिना विचारक
महिरम जँ प्रेमसँ मिलल-जुलल नइ रहत तँ चलैक महिरम केना औत। आ जखन चलैक महिरमे जे नइ
बुझत तँ ओ जिनगीक महिरम की बुझत। आ जखन जिनगीक महिरमे नइ बुझत तँ ‘महि’मे रमब केना बुझत? केना
बुझत जे करमे जीवन छी आ मने बिसवास? आ जखन सएह नइ बुझत तखन ‘महि’मे महियाक कील बनि मेहकेँ अँटकौत केना? आ जँ से नइ तँ ओ मनुखक भेल आकि जंगलधारी बनमानुखक?
भाय! बोनक बास जहिना ऋृषि-मुनिक छै तहिना ने मनुखो-बनमानुखक
छइहे।
ओना परिवारक सभजन
सोझमे कातो-करोटसँ नव लोकक बीच नव-नव विचार सुनि नवांकुर जिनगीक विचार सुनैले कान
लगौने छल।
डॉक्टर नैनाराम शुरूहेसँ
नीक विद्यार्थी रहल, शुरूहेसँ नीकपन बनल रहलै आ अखनो ओहिना छइ। अपन अध्ययनक दौड़मे डॉक्टर
नैनाराम ओइ सिमानपर पहुँच गेल अछि जैठाम आगूक अध्ययन शेष अछि। सोभाविक अछि जे उत्तर
बाँकी रहबे करत। ओना, सुखिया दादीक मनमे खौंझ सेहो उठैत रहैन
जे केहेन ई छौड़ा भऽ गेल अछि, जेना एते ऊपरसँ आएल तेना सभसँ हँसैत-बजैत सभकेँ
हँसबैत-बजबैत रहैत मुदा.., अनेरे गोंग जकाँ मोम बनल अछि।
जेना धोबियाक गदहा जकाँ सौंसे दुनियाँक बोझा उधने हुअए तहिना मुँहचुरु केने अछि। मुदा
लगले सुखिया दादीकेँ युक्ति सुझलैन, पुनियानन बाबा दिस मुँह
घुमा कऽ बजली-
“बौआक पढ़ाइसँ
तँ निवृत्ति भाइये गेलौं। आब बिआहो काइये दियौ।”
परिवारक जे वृद्धजनक
सोचक विचार अछि ओइ अनुकूले सुखिया दादीक विचार छेलैन। मुदा पुनियानन बाबाक मनमे
एकसंग अनेको प्रश्न उठि मोटा जकाँ लदा गेलैन। नैनारामकेँ उठैमे जहिना अपन नजैर
केलकै तहिना ने हमहूँ नजैरमे रखलिऐ। रखबे नइ केलिऐ अखनो रखने छिऐ जे नैनारामे किए
तइसँ आगू मैनारामोक अपन जहिना नीक दिस बढ़ैक नजैर उठतै तँ ओहिना हमहूँ अपन दायित्व
भरि नजैर उठौने रहबै...। मुदा लगले पुनियानन बाबाक नजैर सुखिया दादीपर गेलैन। मनमे
खौंझ उठलैन जे बीचमे भादवक भदवा बनि बैसल छैथ, तँए तेते ने हौहैटिया कलकैलिया जकाँ
देह-हाथ-मुँह कुरियौनाइकेँ सुख बुझि जिनगीक सुखकेँ आरो भूखा देती जे किछु कहौ कि
नहि! कहू ई केहेन भेल जे नैनारामकेँ पढ़बैमे मिसियो भरि अपना
मनमे खरोंच नइ रहल जे नैनारामक विचारकेँ कहियो दबलौं। आब ओ अपन विचारक स्वतंत्र
मालिक अछि, अपन कर्ता-धर्ता भेल। तैबीच हिनका[3]
बिआहक कोन खगता भऽ गेलैन! भाय, ई की छोट-छीन
बात छी, बजैकाल तँ सभ बाजि दइ छिऐ जे पचास प्रतिशत महिला आ पचास
प्रतिशत पुरुख अछि। गाममे अदहा-अदही महिला रहनौं नैनारामक जोड़क दोसर नइ अछि, अहिना ने सभ गाममे छै, तखन परिवारक गाड़ीक पहिया
केना पाहि लगा चलत। ओ तँ दू रंग चलबे करत किने। आब ऐ बुढ़ाड़ीमे गामे-गाम लड़कीक
खोज-पुछारि करब हमर साधक अछि जे अनेरे बीचमे टपैक गेली..!
पत्नीकेँ हटैत-डपटैत
पुनियानन बाबा बजला-
“बुझि पड़ैए जेना
अहीं विदेशसँ पढ़ि-गुनि आएल होइ तहिना बीचमे टपकै छी। नैनाराम डॉक्टरीक शिक्षा पेब
विदेशसँ घुमल अछि, आगू-ले ओ अपने की सोचि रहल अछि, से नैनारामक मुहेँ ने अपना सभ सुनब।”
ओना, सुखिया दादी
पुनियानन बाबाक विचारकेँ नजरियेसँ परेख लइ छैथ, तँए विचारकेँ
मोड़ैक ढंग सेहो सीखिये नेने छैथ...।
सुखिया दादी बजली-
“बेस बात
बौआकेँ बुझौलिऐ!”
पुनियानन बाबासँ
नैनाराम बच्चेसँ प्रभावित रहल। जेकर प्रभाव अखनो ओहिना मन-मस्तिष्कमे मसल-गसल
छइहे। विचारक बोझतर दबल नैनाराम दादीकेँ सम्बोधित करैत बाजल-
“दादी, जखन डॉक्टरी शिक्षा लेब शुरू केलौं तहिया नमहर दुनियाँ देखै छेलिऐ। मुदा एम.बी.बी.एस.
केलाक बाद दुनियाँ आरो विशाल बुझि पड़ल। मुदा जहिना हजारो रोगीक हजारो रोग अछि
तहिना हजारो रोगक हजारो दवाइ मनमे नचैत छल।”
सुखिया दादी मुड़ी
डोलबैत बजली-
“एकरा के काटत!”
दादीक सह देख नैनाराम
बाजल-
“दादी! आब ओइ हजार रोगमे सँ एकवाहि भऽ गेलौं।”
बजन्ता दादी छथिये।
बिच्चेमे जहिना आमक गाछक टभकल आम बिनु हवोक खसैए, तहिना सुखिया दादी बजली-
“की एकवाहि बौआ?”
नैनाराम बाजल-
“दादी, आब एक्केटा रोगक नीक जकाँ पढ़ने पैछला सभ रोगो आ रोगक इलाजो तर पड़ि गेल।
जहिना तर पड़ि गेने कपड़ाक थानमे कपड़ाकेँ, किताबक थानमे
किताबकेँ लोक बिसैर जाइए तहिना ने भाषाक शब्दक सेहो तर पड़ने बिसरिये जाइए। जेकर
उपयोग नइ भेने ओहो बिनु टिकट कटौनहि मनसँ ससैर जाइए।”
पुनियानन बाबा नजैर
उठा डॉक्टर नैनारामपर देलैन। बाबाक नजैर पड़िते नैनाराम चौंकल। नैनारामक चौंकब देख
पुनियानन बाबा बुझि गेला। जइसँ बाबा-पोताक बीचक धारकेँ धारावाहित करैत बजला-
“बौआ, जहिना हरिक हजार नामक जप, भक्तजन जपै छैथ तहिना
तोरो पुरान वस्तु ओते अपना गेल छह जे जिनगीमे केतौ बाध-बाधा नइ हेतइ। मुदा आगूक
बाट बिटिया बढ़बह कि अतीतमे बेतीत करबह।”
ओना, डॉ. नैनाराम
विचारक गम्भीरतम स्तरसँ विचार करैत छल मुदा विचारोक स्तरमे जिनगीक जंगलमे गली-कुची
कम अछि सेहो तँ नहियेँ अछि। झड़बैरक जंगल-झाड़ जकाँ निच्चाँ खाली रस्ता जकाँ जँ
जगहो अछि तँ ऊपर मेघडम्बर जकाँ कॉंटक जाल सेहो लगले अछि। तही बीचमे ने अपनो सभ
छिऐ। तँए कि ओ निच्चॉं खाली ऊपर भरल नइ भेल सेहो नइ ने कहल जा सकैए। साँझक भोर आ
भोरक साँझ सेहो तँ होइते अछि। जहिना सभ-ले दिनो होइए आ रातियो होइए, जइसँ जहिना भोरो होइए आ साँझो होइए, तहिना ने साँझो
होइए आ भोरो होइते अछि। आशा भरल मनसँ पुनियानन बाबा पत्नी दिस तकैत बजला-
“पोताकेँ
असिरवाद दियौ, जे प्रेमसँ बौआ हँसैत-खेलैत चलैत रहए।”
सुखिया दादी बजली-
“हम जे कहबै ओ
कि अहाँ कहने नइ भेलइ।”
दादीक बात सुनि डॉ.
नैनारामक मन्हुआएल मन पुन: मन-मनाइत मनुआ महि-सँ-महिया महिरमक लग पहुँच गेल।
¦
शब्द संख्या : 1984, तिथि : 20 नवम्बर 2017
बेर परहक भदवा
सौन मासक अन्हरिया
पखक खष्टी तिथिक शुक्र दिन। चारि बजे भोरमे मध्यम अछार भेल छल तँए मौसम खुशनुमा।
ओना, मौसमकेँ खुशनुमा बनैमे सोल्होअना जश अछारेकेँ नहि देल जा सकैए, किए तँ जाड़क मौसम हुअ कि गरमीक आकि बरसातक, सभ
मौसमकेँ अपन-अपन चौबीसो घन्टाक जिनगीमे जहिना बारहो मास छै तहिना छबो ऋृतुओ तँ छइहे।
ओहीमे ने ऋृतुओ सभ अपन-अपन पाला बदैल कहियो साँझ तँ कहियो भोरक धुरी पकैड़ ऋृतुराज
वसन्त बनि वसन्ती हवामे वसन्त गीतो आ वसन्त बहारो बहारि-बहारि अपना दिस समेट लइए।
जँ से नइ समटैए तँ किए पतझड़ गुलाबक गाछ शीत-पाला सहितो मनमे आशाक मोटरी बन्हने रहैए
जे हमरो वसन्त औत आ फूल-पातसँ आच्छादित बनि हमहूँ कलियेबे करब।
ओना मौसममे सोन्हौन
जरूर बुझि पड़ै छल मुदा जेहेन ढेनुआर मौसमक होइए तेहेन नहि छल। जहिना गाए-महींसिक
दूधक दू छोर होइए- ढेनुआर आ बकेन। ढेनुआर दूधमे पानिक मात्रा बेसी रहने मक्खन कम बनैए आ
जेना-जेना समय आगू बढ़ैत जाइए तेना-तेना मक्खन बढ़ैत जाइए आ पानिक मात्रा कमैत
जाइए।
ओछाइनेपर पड़ल रही, ओना सुति कऽ
उठैक बेर सभकेँ अपन-अपन होइए, हमरो अपन अछि, तँए बेसी बिलम नहि भेल छल मुदा बिलैम जरूर गेल छेलौं। जहिना रेडियो
स्टेशन सभ खुजिते पहिने भरि दिनक कार्यक्रमक परिचय दइए तहिना मनमे भेल जे अपनो भरि
दिनक परिचय पेबैक खगता तँ अछिए, औझुका दिन मन पाड़ैमे ऐगला
दिनक खगता पड़बे करैए मुदा तइले पहिने पैछला दिनक तारीक मन पाड़ब तखन ने ओइपर नवका दिन रोपब। जे फुलैत-फड़ैत काल्हिकेँ
पकड़त। मन पाड़ए लगलौं।
काल्हि अनहरियाक
पंचमी छल तँए आइ खष्टी भेल, पक्ष तँ ठामे रहल किएक तँ पनरह दिनक होइए। दिनोक भाँज लगिये गेल जे
काल्हि बरस्पैत छल आइ शुक्र भेल। शुक्र मन पड़िते मनमे उठल- जहिना वृहस्पतियाचार्य
तहिना ने शुक्रोचार्य सेहो भेला। सहोदर भाए जकाँ दुनूक घरो सटले छैन। मुदा मन आगू
कि बढ़त जे पाछूए घुसैक गेल। पहिल बरखा दिनसँ अखाढ़ मानल जाइए–‘अषाढ़स्य प्रथम दिवशे’- कालीदास–से अखन तक कहाँ भेल? भोरमे एकटा अछार भेल। जखन
अखाढ़े पछुआएल अछि, तखन सौन केना भेल?
ओझराएल मने संकराँइतकेँ
मोन पाड़लौं। परसू अखाढ़क संकराँइत छी, तखन सौन केना आगुरवारे आबि गेल? जहिना पुर्ण राजाकेँ तीसटा दिन छैन, भलेँ छोटे-पैघ
किए ने होइत रहए मुदा छैन तँ जरूरे, तहिना ने सकराँइतो
महराजकेँ तीसेटा दिन छैन। अंग्रेजिया जकाँ नहि ने जे कोनो अठाइस दिनक तँ कोनो
एकतीस दिनक हएत। मन तँ सोझराएल नहियेँ मुदा ओछाइनेपर पड़ल रहने सोझराइयो जाएत सेहो
तँ बात नहियेँ अछि। ओना मनमे खुटखुटी जरूर लगि गेल छल। खुटखुटी ई जे कखनो हुअए- जे
जखन भोरके जतरा भङ्गैठ गेल तखन दिनमे की हएत की नहि! फेर
हुअए जे हेबाक हेतै से हेतइ, तइले माथे-कपार पीटि लेब तहूसँ
तँ नहियेँ हएत। की करितौं, असमंजसमे पड़ल रहनौं, उठिते रही कि कानमे अवाज आएल-
“हरिहर छह हौ?”
‘हरिहर’ सुनि अवाजेसँ बुझि गेलौं जे जीवेश्वर काका छैथ। सुग्गा जकाँ बोल बदैल
बजलौं-
“हँ काका, एलौं...।”
सुग्गा जकाँ बोल बदलब
भेल जे दूरीक हिसाबसँ अपन बोलमे स्वर भरब। ओना जीवेश्वर काकाकेँ समाजमे बेसी लोक ‘उन्मादी काका’ सेहो कहै छैन, मुदा तेकर अर्थ अखनो तक नहि बुझि
पेलौं अछि जे लोक किए हिनका ‘उन्मादी’
कहै छैन। लोकक बोली छी, एकरा कोनो व्याकरणसँ तँ नहियेँ काटल
जा सकैए, मुदा शब्दक गुण तँ तकले जा सकैए। मुदा ई भेल समाजक
बात, अपन सम्बन्ध-सूत्र जीवेश्वर कक्काक संग ई अछि जे एक दिन
कौलेजसँ अबैत रही। परीक्षाक तिथिक घोषणा भेल छल तँए धार आकि पोखैरमे डुमकी मारैबला
लोक जकाँ हमहूँ अपन असरा ताकए लगलौं। संजोगसँ जीवेश्वर काका रस्तेपर भेट गेला। भाय, असरा केतौ राखल अछि आकि बौको-बकलेल काका-बाबा किए ने होथि हुनको जखन गोड़
लगबैन तखन ने ओहो मुँहक असराक मुँगबा देता। काकाकेँ आगूएसँ कहलयैन-
“काका, गोड़ लगै छी।”
ओना बजैक क्रममे बाजि
गेलौं मुदा लगले भेल जे ‘गोड़ लगै छी काका’ सँ बेसी नीक होइत पएर छुबि प्रणाम
करब। मुँहक चुकल बोल आ पैरक चुकल हाथीक उपाये की। मुहसँ तँ बजलौं मुदा मनमे रहए जे
आब कि परीक्षा कोनो अपने लिखने कियो पास करैए। चीट-पुरजी पहुँचेनिहारसँ लऽ कऽ
कॉपीमे नम्बर देनिहार तकक आसरा तँ करइ पड़ै छइ। तँए कक्को सन लोकक असरा तँ अछिए।
तैबीच असीरवाद दैत
काका बजला-
“बौआ, तोरे सबहक असरामे ने जाबे जीबै छी ताबे जीबै छी,
तँए नजैर रखिहह।”
कक्काक विचारे नइ
बुझलौं आकि की, धड़फड़मे बजा गेल-
“अहाँकेँ ऐ
देहक जखन जरूरी हुअए काका, तैयार रहत।”
तइ दिनसँ सम्बन्धो
बनैत-बढ़ैत गेल आ समयो खटियाइत गेल।
रस्तापर अबिते
जीवेश्वर काकापर नजैर दैत मुँह उठा कऽ तकलौं कि काका बजला-
“कौल्हुका जे
हरिद्वार जाइक प्रोग्राम बनौने छेलह से काल्हि छोड़ि दहक।”
हरिद्वार जाइक
प्रोग्राम छल, जेना-जेना समय लगिचाइत गेल तेना-तेना ओरियानो कऽ नेने छेलौं।
कपड़ा-लत्तामे आइरन आ दतमैनक ओरियान काइये नेने छेलौं। एक तँ भिनसुरका समय, तैपर हरिद्वारक विचारक बात, एक्केबेर जेना दुनू
कानमे दुनू दिससँ थप्पर लगि गेल। कान तँ झनैक उठल मुदा मन थीर रहल। ओना आन अलगटेंट
धिया-पुता जकाँ ई नइ बाजि पेलौं जे ‘काका, बुढ़ भऽ गेलौं मुदा बजै-भुकैक ठौर-ठेकान नइ अछि। नइ जेबाक छल तँ नइ
बजितौं आ जखन मरदक मुहेँ बजलौं तखन मरदगानीसँ पाछू किए डेग ससारै छी? ओना, धड़फड़मे किछु बाजबो उचित नहि बुझि पड़ल। किए
तँ बनल प्रोग्राममे बाधा भेल तेकर तँ सइयो कारण भऽ सकैए। अनठेकानी जँ किछु कहबैन आ
तइसँ जँ हुनक मन-विपरीत होनि तखन तँ अनेरे आरो भोरका जतरा भङ्गैठ जाएत। तहूमे जँ
किछु खा-पीब नेने रहितौं तखन तँ जतराक किछु भदवा अपने कटि जाइत आ जखने किछुमे
कटनियाँ लागए लगैत तखन ओकरामे खाली छबे-छअ, छअ दइक छल। किछु
भदवा भेल जे अपना इलाकामे किछु गाम एहेन दगनीसँ दगा गेल अछि जे सुति-उठि ओइ गामक नाओं
नेने भरि दिन अनजल नइ हएत, जे आइये नहि कहिया केतए-सँ एहेन
धारणा बनल अछि। एहेन तरहक भदवाक बाट तँ खेलहा-पीलहा लोककेँ कटिये जाइए। ओना अहू
बातसँ नकारल नहियेँ जा सकैए जे किछु पुजेगरी सभ छथिये जे बारह-एक बजेमे नहा कऽ
पूजा करै छैथ तेकर पछातिये दिनक फलक भोग चढ़बै छैथ, तँए
हुनका सबहक भिनसर भेल बारह बजे दिनक पछाइत। तैसंग दोसरो नइ अछि सेहो नहियेँ कहल जा
सकैए। दोसर अछि जे किछु गोरे भिनसरमे जे पूजाक ओरियानमे लगै छैथ ओ आठ बजे तक
फुलडाली साजि-धाजि लइ छैथ जे ई फूल भेल फल्लाँ देवक, तँ ई
भेल फल्लाँ देवीक। भोला बाबा तँ भोले बाबा भेला–ऐँठ-काँठ तीत-मीठ खाइबला–तँए जे फूल किनको पसिन नहि से हुनकर भेलैन। खाएर जे भेलैन से भोला बाबा
अपन फरिछा लेता। नअ बजेमे तिलक धियान करैत पूजापर बैस फूलक रस-पान चढ़ा एक बजेमे
उठबे करै छैथ तँए हुनकर दिनक भिनसर एक बजे बेरुका बादे होइ छैन...।
मन अनेरे घोर-मट्ठा
हुअ लगल। बिना घोर-मट्ठा भेने ने घोरे बनत आ ने मक्खने बनत। घोरमे उज्जर पानिक रंग
जे मट्ठाक धोनक पानि भेल, जेकरा लोक दालिक बदला तीमन बना सेहो खाइते अछि। मट्ठा तँ मट्ठे भेल जे
अपन अन्तिम मैल तियागि मखनैत घी बनत...।
बिना किछु बजनहि जीवेश्वर
कक्काक मुँहपर आँखि गड़ेलौं। ओ बुझि गेला जे हरिहर कौल्हुका प्रोग्रामक विषयमे
बुझए चाहि रहल अछि। जीवेश्वर काका बजला-
“हरिहर, तोरा दरबज्जाक चाहो पीना बहुत दिन भऽ गेल। चलह चाहो पीब आ किछु गपो-सप्प
करब।”
ओना, सुति कऽ लगले
उठले रही तँए मन कनी सकपका जरूर गेल। मुदा कक्काक विचारकेँ टारलो तँ नहियेँ जा
सकैए। सकपकाइक कारण भेल जे चाह पीब गप-सप्प करैक प्रक्रियामे पर-पैखाना, हाथ-मुँहमे पानि लेब इत्यादि पछुआएले छल, मुदा
दरबज्जापर जीवेश्वर काका सन लोककेँ चाह पियाएब धिया-पुताक खेलो नहियेँ ने छी।
तैठाम जँ जीवेश्वर काका अपने मुँह खोलि चाह पीब गप-सप्प करैक विचार देलैन, तखन मुहोँ मोड़ब नीक केना हएत, तँए आग्रह करैत
बजलौं-
“ऐँह काका! अहीं सन लोककेँ ऐने ने टुटल-फुटल दरबज्जाक रंग चमकत। नहि तँ मुरुदघटी
जकाँ तँ लगिते अछि।”
गुरुक रूपमे जीवेश्वर
काका बजला-
“एना जे
बकलेल-ढहलेल जकाँ बजबह तखन..?”
‘तखन’ कहि काका अपन बोलीमे साइकिल जकाँ बिरेक लगा लेलैन। हुनकर मुँहक बात छिनैत
बजलौं-
“काका, तीत कि मीठ, अहाँ लग जेना बजै छी तेना आनो लग थोड़े
बजै छी।”
जीवेश्वर काका पाछू
घुसकैत बजला-
“देखहक हरिहर, शब्द कोनो अधला नइ अछि। एक्के शब्दक विपरीत परिस्थितिमे माने बदैल जाइए।
जेना संगी-साथीक बीच गदहा शब्दक चलैन, बुड़िपना देखि लोक
बजैए। मुदा वएह गदहा शब्द विचारक टकराहटक जगहपर खुनिया शब्द बनि जाइए!”
मुदा तैबीच पत्नी एते
सतरकी केने छेली जे चाह बना नेने छेली। दरबज्जापर जीवेश्वर काकाकेँ बैसबैत आँगन
गेलौं। पत्नीकेँ चाह कहि, बाथरूप दिस बढ़लौं। मनमे बिसवास बनले छल जे जँ कहीं जीवेश्वर काका खोजो
करता तँ तीन-केँ-तेरह बनबैवाली पत्नी छथिए जे जीवेश्वर काकाकेँ अलंकारेमे वौआ
देतैन। माने भेल दुनूक अपन-अपन विचारक अनुकूल शब्दक विन्यास आ ओकर जेबरो-गहना बुझै छी....।
जीवेश्वर कक्काक
हाथमे चाह देख अपन मन थिरैक गेबे कएल छल। मनमे उठल- हाथमे चाह गेला पछाइत जीवेश्वर
काका अपन मुँह बन्ने रखने हेता से असम्भव। ओना, ईहो भाइये सकैए जे चाह दइवालीपर सँ
नजैर उछैट चाहेपर चलि गेल होनि आ ओकरे रंग-रूप निहारए लगल होथि तँए भरिसक
चाहवालीकेँ किछु ने पुछलैन। ओना, पत्नीक आचारणसँ पूर्ण परचित
छीहे जे जँ जीवेश्वर काका हमर खोज केने हेता तँ पतिव्रता पत्नी छथिए। हुनका
हाथे-मुहेँ कियो बेपाइन थोड़े होइ छैथ जे हम हएब। कहि देथिन जे सूलबाहि होइ छैन।
भलेँ सत्-केँ फुसि बना अपन इज्जत गमा लेती मुदा हमर पाग थोड़े खसए देती। से तँ
पाइयो भरि कम नहि, सोल्होअना पत्नी छथिए।
ओना, अपनो काजमे सतरकी
कऽ नेने छेलौं। सतरकी ई केने छेलौं जे लेटरीनेमे ब्रश सेहो नेनहि गेल छेलौं आ
गैस्टिक बेमारी सेहो नहियेँ अछि। तँए धड़फड़ करैत,
कनियेँ-कालक पछाइत काका लग पहुँच बजलौं-
“काका, बिनु बुझल चाह बनल छल तँए नीक नइ लगल हएत। एक बेर आरो पीबू तखन मन
सोल्होअना चाहपीबू जकाँ भऽ जाएत।”
ओना काजक एकटा
प्रक्रिया जीवेश्वर काकामे छैन्हे जे जहिना हम सभ विचार मानै छिऐन तहिना ओहो हमरो
सबहक मानिते छैथ। भलेँ किछु टुट-फाट किए ने भऽ जाए। मुदा मूल तत्व ओहिना रहैए। ओना, जीवेश्वर
काकाकेँ बजैक विचार जगि गेल रहैन मुदा हमर विचार सुनि मन ठमैक गेलैन। ठमकैक कारण
भेलैन जे हम नीक मुहेँ बाजब आ सुनिनिहारक काने उड़ल रहत तखन ओइ लागल अपनो विचार ने
उड़ि जाएत। तँए सुनिनिहारक कान सेहो ने चहगर हेबा चाही। मुदा मन बहलबैत जीवेश्वर
काका बजला-
“हरिहर, हरियरीक की हाल-चाल?”
एक तँ ओहुना भिनसरेसँ
मन भङ्गठल छल, कटही गाड़ी जकाँ ढकर-ढकर चलैत रही, तैपर तेहेन
सोझराएल शब्दमे ओझराएल विचार काका रखि देलैन जे सोझरा कऽ जवाब हमरा बुते देले ने
हएत! मुदा साँझ-भोरक ने हवा खाएब छी। रंग-रंगक फूल-पातक गन्ध
लगले रहैए...।
बजलौं-
“काका, की हरियरीक हाल रहत। कखनो बेहाल भऽ जाइए तँ कखनो पेमाल भऽ जाइए आ कखनो
नेहाल भऽ जाइए।”
तही बीच पत्नी चाह
नेने दरबज्जापर पहुँचली। चाहक लीकर देख जीवेश्वर कक्काक मन खुशी भऽ गेलैन। मुस्की
दैत बजला-
“हरिहर, भगवान तोरो नीक भनसिया देलखुन?”
ताबे तीन-चारि घोंट
चाह पीब नेने रही, कनी-कनी मन फुहराम हुअ लगल रहए। निरुत्तर करैत बजलौं-
“से कि काका हम
दहेजमे दहाएल कनियाँ पकैड़ कऽ अनने छी, आकि हाथी चढ़ि गौड़
पूजल अनने छी।”
चाह सठल, पान चलल। मुँहमे पान लइते जीवेश्वर काका बजला-
“बौआ हरि, कौल्हुका जे हरिद्वारक प्रोग्राम छल ओ बाधित भऽ गेल।”
जिज्ञासा भेल, बजलौं-
“की बाधित भेल?”
पैछला विचारकेँ
अगुअबैत जीवेश्वर काका बजला-
“बेर परहक भदवा
आगूमे ठाढ़ भऽ गेल अछि। ओना, जखन मन हुअ तखन कहिहह। लगले
तैयार भऽ विदा भऽ जाएब। मुदा भदवा अगुआ कऽ जाएब नीक नहि।”
बजा गेल-
“तब ते अवसरक
भदवा कहियौ कि भादवक भदवा आकि बेर परहक भदवा, पकड़िये लेलक! मुदा एकटा उपाय तँ अछिए जे भदवाक नाँगैर पकैड़ कहियौ- ‘रे भदवा भाग-भाग, रे भदवा भाग-भाग।’ तखन ओ पड़ा जाएत आ अपना सभ विदा हएब।”
अपना जनैत हम बुझल
बात बजने छेलौं मुदा जीवेश्वर काका से नइ मानलैन। बजला-
“सुप बजौने जँ
ऊँट भागै तँ दुनियाँ आछन्न भऽ जाएत।”
ओना, भिनसुरका पहर
छल तँए मन हाथक काज दिस ससरए लगल छल, मुदा कोन तरहक भदवा
काकाकेँ लगल छैन से तँ बुझब जरूरी अछिए। बजलौं-
“काका! छोड़ू दुनियाँदारीकेँ, कोन मायाजालमे अनेरे पड़ब।
अपन की भदवा लगल से कनी कहियौ।”
जे बात कहैले
जीवेश्वर काका आएल छला, तैठाम आबि गेला। जेना नव कोनो उलझन मनकेँ झमारि देने होनि तहिना झमरैत
बाजब शुरू केलैन-
“गाममे एकटा
एहेन अपाहिज लोकक आगमन भेल अछि जे केतेको अपाहिजकेँ जन्म देत! से सुनबो केलह आकि..?”
आगूक विचार कक्काक
पेटेमे रहैन तइ बिच्चेमे बजा गेल-
“नइ!”
‘नइ’ सुनि जेना काकाकेँ अचरज भेलैन तहिना बजला-
“एहेन-एहेन
पैघ-पैघ दुर्घटनाक पुल बनैए आ तूँ आँखि-कान बन्न रखने रहै छह!”
ओना जइ घटना दिस
जीवेश्वर काका इशारा करै छला से अछि सोझेमे, मुदा आँखिमे ग्लुकोमा भऽ गेल अछि आकि
गेजर से बुझिये ने पेब रहल छेलौं। मुदा एते तँ मनमे बिसवास बनले अछि जे कोनो नइ
बुझैबला बातकेँ एक बेरक कोन बात जे सइयो बेर जँ काकाकेँ पुछबैन तैयो हुनका जीहपर
तिलबा नहियेँ जनमतैन। मनमे जे होइत होनु मुदा मुँहक मुस्की मुस्कियाइते छेलैन।
बजलौं-
“काका की कहब, तेहेन ने धिया-पुताक चालिमे पड़ि गेल छी जे भरि दिन तंग रहै छी, मुदा तैयो तबाही रहिते अछि।”
जीवेश्वर काका-
“से की?”
“से, की कहब काका, छोटका बेटो आ बेटियोकेँ प्राइवेट
स्कूलमे पढ़ैले देने छिऐ। अपने जेते कौलेजमे खर्च होइ छल तइसँ बेसी खर्च होइए। ओ
दुनू मिला दोबरा गेल अछि तैपर समए-साल देखते छिऐ।”
समए-सालकेँ तँ
जीवेश्वर काका मनेमे रखला मुदा पढ़ै-लिखै दिस नजैर बढ़ि गेलैन, बजला-
“जहिना गीताक
पछातिक भागवत अछि तहिना ने तोरासँ ऊपर तोहर बेटो-बेटी हएत।”
काका व्यंग केलैन आकि
रस्ताक बात कहलैन से निर्णय धड़फड़मे भाइये ने सकल। तँए विचारक मुड़ीकेँ लत्तीक
मुड़ी जकाँ ओकर दिशा बदैल बजलौं-
“काका, आब की स्कूल-कौलेज ओ स्कूल-कौलेज रहल। आब तँ दोकानक कोन बात जे बजार बनि
गेल अछि। जखने बच्चाकेँ नाओं लिखबियौ तखनेसँ ओकरा दोकानक किताब, कॉपी, कलम, कीनियौ। देहक
वस्त्र कीनियौ, खाइ-पीबैसँ लऽ कऽ खेलै-धुपै धरिक वस्तु-जात
कीनियौ, माने जिनगीक सभ किछु..!”
हमर बात सुनि
जीवेश्वर काकाकेँ जेना अकच्छ लगलैन तहिना अकच्छाइत बजला-
“हरिहर, छोड़ऽ ऐ सभ बातकेँ, जहिना गाछक भँट्टा कनाह तहिना ने
लत्तीक सीमो लहियाएल। सभ अपने बेथे बेथाएल अछि।”
हमरो नीक लागल, बजलौं-
“की कहए लगलिऐ
काका जे गामक घटनाक पुल?”
जीवेश्वर काका बजला-
“परसूखन एकटा
हेराएल संगीसँ भेँट भेल।”
बजा गेल-
“भोज-भात खाइ बेरमे
हरिहर थोड़े मन रहत?”
जीवेश्वर कक्काक मन
मलिन नइ भेलैन। बाजए लगला-
“परसूखन, भदवानन दुनू परानी गाम आएल। बचपनक संगी तँए भेँट करए गेलौं।”
बिच्चेमे पुछलयैन-
“के भदवानन?”
ओना बुझल अछिए जे
भदवानन गामेक छैथ। मुदा ओ तँ उमेरदार डॉक्टर छैथ। शहरमे रहै छैथ। ओ किए गाम औता। आ
जँ गाम देखैले आएले हेता तँ घन्टा-दू-घन्टामे घराड़ीक दर्शन करि चलि गेल हेता।
जीवेश्वर काका-
“भदवाननक संगी
छी। संगे दुनू गोरे गामक स्कूलसँ हाइ स्कूल धरि पढ़ने छी। ओ तेजगर रहए, डॉक्टर बनल। हम भुसकौल रही गाममे रहि गेलौं।”
बजलौं-
“भदवानन अहाँक
संगी छैथ काका! मुदा जिनगीक हाड़-काठसँ दुनू गोरे संगी जकाँ
नइ लगै छी। सुनै छी जे कमा कऽ ओ बुर्ज लगा नेने छैथ आ अहाँ साढ़े तीन हाथक साढ़े
तीनियेँ हाथ छी!”
जीवेश्वर काका-
“कमाएत की दैवक
कपार। दू भाँइ अछि, भाए ओहन ऊहिगर नइ छै, तेकरा ऊहि कहाँसँ दइते तँ अपने दुनू परानी मौज करैए आ भाइक दशा देखते
छहक।”
बजलौं-
“सभकेँ अपन-अपन
कपार होइ छै किने काका। जँ से नइ होइतै तँ लोक किए घरवाली-ले हाथी चढ़ि गौड़
पूजैए।”
हमर गप जीवेश्वर
काकाकेँ नीक नइ लगलैन। जहिना मुँहपर माछी-मच्छर बैसते लोक ओकरा हाथसँ रोमि लइए
तहिना हमर बातकेँ रोमैत जीवेश्वर काका बजला-
“केहेन, भाग होइ छै से तँ दुनू परानी बुझिते अछि।”
बजलौं-
“से की, काका?”
जीवेश्वर काका-
“बाजल जे से
कहै छिअ। तीन बर्ख नोकरी अपन बाँकी छै आ पाँच बर्ख घरवालीक बाँकी छइ। तेकरा छोड़ि
दुनू गाम आबि गेल अछि। मतिछिन्नु जकाँ दुनूक दशा भऽ गेल छै,
मुदा अपना धिया-पुता भेबे ने केलइ। मुदा जखन गाम आबि गेल तखन तँ ओहो समाजे भेल
किने। जखन समाजमे कोनो बेर-बेगरता उपस्थित भऽ जाए, तेकरा
छोड़ि बाहरो जाएब नीक नहियेँ ने हएत।”
बजा गेल-
“हँ से तँ
नहियेँ हएत।”
ओना मनमे ईहो हुअ लगल
जे लोक तँ हरो जोतैबला बरदो कीनैए तँ ओकर मुँह-कान, सींग-नाँगैर देख लइए, तैठाम मनुख तँ मनुख भेल किने। मनकेँ खाइबला भेल कि खुअबैबला? मुदा लगले मनमे उठि गेल जे ई बात कोनो कि जीवेश्वर काका नइ बुझै छैथ। ओ
सभ किछु देख-सुनि नेने हेता किने। ओना हमर ठमकल मन देख जीवेश्वर काका आँकि नेने
छला, जे-सभ बात मनमे छल से अनुमान कऽ
नेने छला। तँए सभ विचारकेँ अष्टरस शर्बत बनबैत बजला-
“बौआ हरि, अखन तक दुनू परानीक मनमे छेलै जे सन्तान होइबला उमेर अछि। मुदा जखन पचपन
टपि गेल आकि विचार खधिया लगलै। पागल जकाँ दुनूक मन उच्छटए लगलै। हारि कऽ नोकरी
छोड़ि आएल अछि।”
बजा गेल-
“काका, अहाँ तँ धोती-खूटक पानि गाड़ि कऽ जेकरा दइ छिऐ तेकरो बेटा-बेटी भाइये जाइ
छै किने।”
जीवेश्वर काका बजला-
“धुर्र बुड़ि! एते जँ सामर्थ रहैत ते अही गाममे रहितौं, आकि उड़ि
कऽ अकासमे चलि गेल रहितौं। परसू जखन भेँट करैले गेल रही ते देखलिऐ जे एक दिस होमक
सूरसार होइत आ दोसर दिस झाड़ो-फूकबला आ गहबरियो सबहक लिस्ट बनैत! की करितौं हमहूँ कहलिऐ जे ‘हरिवंश पुराणक कथा सुनि
लएह, सन्तान हेबे करतह।”
¦
शब्द संख्या : 2726, तिथि : 29 नवम्बर 2017
सड़क-कातक खेत
जेठ मासक अन्तिम समय।
मास पुरैमे मात्र दू दिन बाँकी रहि गेल अछि। ओना सकराँतिक हिसाबसँ अखनो सात दिन
बाँकी छै, पूर्णिमाक हिसाबे मात्र दू दिन। चारिम दिन अखाढ़ो चढ़त आ आर्द्रा नक्षत्र
सेहो। जेठ मासक जे लक्षण होइए ओइसँ भरल-पुरल मास अछिए। माने ई जे आने साल जकाँ
गरमीक तापमान अकास छुने अछि। ओना, पैछला मासमे[4]
छोट-छीन एकटा अछार जरूर भेल मुदा ओ रस्ते-पेरे रहि गेल जइसँ धरती छगाएले रहल।
कनी-मनी मौसममे मीठपन जरूर आएल मुदा पाँच दिन बीतैत-बीतैत ओहो मेटा गेल, जइसँ पूर्वतक रूपमे मौसम पुन: पहुँच गेल। लोकोक मनमे बर्खाक गुण विलीन भऽ
विला गेल।
आइ तीन बजे भोरमे
निम्मन बरखा भेल। बलुआह खेतमे बीत भरि हाल पकैड़ लेलक मुदा आन-आन माटिक खेतमे से
नहि भेल, कोनो खेतमे छह आँगुर तँ कोनो खेतमे मात्र चारि आँगुर हाल भेल आ हल्लुक
दोमट माटिमे धानक बीआ खसबै-जोकर हाल भेल। ओना ओहासी परक खेत-सभमे पानि लागि गेल।
ओहसगर खेत ओ भेल जइ खेतमे घरो-आँगन, गाछियो-बिरछी आ नीचरस
खेत रहने ऊँचरस खेतो सबहक पानि टघैर-टघैर आबि जमि जाइए। तँए एक रंग बरखा भेनौं सभ
खेतमे एकरंग हाल नइ पकड़लक। पकड़बो केना करत, सबहक हालक
अपन-अपन कारणो अछि किने। ओना धरतीक स्नान नइ भेल सेहो नहियेँ कहल जा सकैए। भलेँ ओ
कौआ-नहान हुअए आकि मंत्र-स्नान मुदा भेल तँ जरूर। जखन स्नान भेल तखन स्नानक हालो
तँ हेबे करत, भलेँ ओ केतौ कम भेल आ केतौ बेसी...।
अगियाएल-धधियाएल धरती
नहेबो कएल आ थोड़-थाड़ पानियोँ पीबे केलक। भोरमे बरखा भेने सोनमे सुगन्ध तँ आबिये
गेल। एक तँ ओहुना कोनो मासक वा मौसमक चौबीस घन्टाक दिन-रातिमे भोरुका-पहर अपने-आप वसनतानि
भाइये जाइए, तैपर कड़ुआएल धरतीपर मधुआएल झमटगर बरखा भेल जइसँ असमान-सँ-धरती धरिक मानसूनक
बीच रस्सा-कस्सी चलिये रहल छल। ओना जखन बरखा भेल तखन मेघो खूब गरजल, छोट-पैघ बिजलोको खूब लौकल आ हवो खूब बहए लगल जइसँ नीन टुटि गेल, जगले रही। मुदा अदहा घन्टा बीतैत-बीतैत जहिना हवा शान्त भेल तहिना अपनो
शान्त होइत जा कऽ ओछाइनपर सुति रहलौं। ओछाइनपर सुतैक माने भेल देह-हाथकेँ समेट
सिरमापर माथ रखि आँखि मुनि चेतना-विहीन हएब, मुदा सुतबक आरो
माने अछि। जेना, कोनो काजमे हाथ लगा बिच्चेमे छोड़ि देब।
तहिना जीबैक आनो-आनो सभ काज अछि जेकरा कियो जगि कऽ, चेतनशील
भऽ कऽ करैए आ कियो सुति कऽ, चेहनहीन भऽ कऽ निमाहिते अछि। तँए
दुनूक लीलो आ धामोमे तँ अन्तर हेबे करत। मुदा से सभ नहि, जखन
समैये मधुरा कऽ आनन्ददायी बनि गेल तखन जँ चैनक नीन नइ लेब सेहो केहेन हएत। तँए
अवसरसँ नहि चुकलौं। बिछौनपर जा सुति रहलौं।
बर्खासँ पहिने
पहिलुका तोरमे जे नीन भेल छल तइसँ कनी बेसी नीको, सोहनगरो आ सक्कतो नीन जरूर
भेबे कएल। बर्खाक पछाइत की भेल से किछु ने बुझलौं। जे भेल से भेल मुदा आने दिन
जकाँ नीन अपना समैपर पूरि गेल, जइसँ समैयेपर भक् खुजल।
ओछाइनपर सँ उठलौं। उठिते मनमे उठल जे जिनगीक लीलाक अखन शुभ मुहूर्त ने छी। अखुनके
बिहुसल मन ने भरि दिन..! बिहुसैत खिलैत रमैत रमल रहत। तँए
शुभ प्रभात तँ भेबे कएल।
लगले धाँइ-दे मनसँ खसल-
“हे भगवान अदहा
बरखा अहाँ दुनियाँ-ले देलिऐ आ अदहा हमरे-ले देलौं! नमस्कार..!”
ऐठाम एकटा शंका जरूर अछि
जे एक्केरंग बरखा सौंसे गाममे भेल मुदा बर्खाक फल सभकेँ एकरंग नइ भेटल। जखने एक
रंग फल सभकेँ नइ भेटल तखने ने एहेन हेबे करत जे जिनका जेहेन कतरनी करैक लूरि हेतैन
से तेहेन अपना दिस फाजिल कतैर अपने दिस कऽ लेता। फाजिल कि जे बीज तक कतैर कऽ लइये
लैत हेता..! मुदा से सभ बात नहि अछि। बात अछि जे गाममे जेते किसान परिवारक लोक छैथ ओ
ढहैत किसानी जिनगी छोड़ि चढ़ैत उद्योग-धन्धा दिस उन्मुख भऽ शहर-बजार दिस बढ़ि
जिनगीकेँ आगू बढ़ा रहला अछि। मुदा गाम तँ पहिलुका गामोसँ बेसी पाछू पड़ि रहल अछि।
ओना रंग-रंगक उपकरण सभ सेहो खेतियो लेल आबि रहल अछि, मुदा बेवस्थित
ढंग नइ पकड़ने निच्चे-मुहेँक रूखि पकड़ने अछि। खाएर...।
कहने छेलौं जे अदहा
बरखा अनका-ले भेल आ अदहा हमरे-ले...। एकर कारण दोसर अछि। एकर कारण अछि जे एकबेर
आठम-नअम दशकमे, नब्बे प्रतिशत सरकारी सहायतासँ किसानकेँ बोरिंग भेटल। ओना ऐ पाछू बहुत
बाधा उपस्थित भेल, से सभ अखन नहि। अखन एतबे जे पाँचटा बोरिंग
अपनो गाममे भेल। हजार-बारह साए रूपैआक खर्चपर किसानकेँ बोरिंग भेटल। चारि गोरेक
संग पाँचम अपने रही। ओ चारू चालू-पुरजा लोक, खेतीसँ बिमुख भऽ
अपनो खेत-पथार बटाइ लगा, दोसर-दोसर धन्धामे लगि गेला तँए ओ चारू
बोरिंग बैस गेल। तेसर साल टपैत-टपैत पाइपकेँ माटि खा गेलै आ केते पाइपमे मूसो सभ
अपन-अपन किला बना-बना घरवालीक संग बालो-बच्चाकेँ लोहाक किलाक सुख नइ देलक सेहो बात
नहियेँ अछि।
खाएर जे भेल से भेल, अपना
बोरिंगकेँ जीया कऽ रखलौं। जीया कऽ राखब भेल, ओकरासँ पानियोँ
लेब आ ओकर ताको-हेर करब। मुदा गामक खेती ओतइ अँटकल रहि गेल जेतए पहिने छल। ओना
अपना बोरिंगकेँ जीवित रखने अपनो आ तीन-चारिटा आनो-आन किसानक खेती एके रंग
चुहचुहाइत आबि रहल छल। तेसर साल अपनो बोरिंगक पाइप नष्ट भऽ गेल। समुच्चा पाइपकेँ
माटि खा गेल। मुदा खेतीक रंग-रूप अखन तक ओहने अछि जेहेन पानि रहला–माने बोरिंग
रहला–पर छल। मुदा ऐबेर अपन बोरिंग नष्ट भेने समैपर ने गरमा धाने आ ने बरसाती
तीमने-तरकारीक खेती कए सकलौं। जून मास समाप्त भऽ गेल। तँ पियासल मन रहने कहा गेल-
“अदहा बरखा
हमरे-ले भेल।”
ओना भगवानो तँ भगवाने
छैथ, ओ थोड़े बुझता जे भक्तजन हमरा बेइमान बना रहल अछि। हुनका तँ जेहेन सेवक
भक्त छैन तेहने ने ओहो भक्तक सेवक छथिन। तैठाम जँ कनी-मनी किछु भाइये गेल तइ दिस ओ
धियाने किए देता। हुनको तँ ढेरी काज छैन्हे, जँ एमहर धियान
देता ओमहर अपन काज छुटि जेतैन। अपनो कि कम काज छैन,
दुनियाँमे जेतेक जीवधारी भक्त छैन तेतेक ने भक्तियो पुरबए पड़ै छैन, तँए भगवानो अपना पाछू तबाह रहिते छैथ।
गाममे बेवस्थित किसान
किसुन काका छैथ। सालक पहिल बरखा छी तँए शुभ-मुहूर्तमे शुभ विचार जरूरी अछिए। कहैले
तँ किसानेक गाम छी मुदा कोन धानक बीआ कहिया खसाएब, तेकरोअखियास नहि। रहबो केना
करत, दिनक हिसाब जोड़ि जइ धानक खेती हएत तैठाम जे मौसमक
हिसाब मनकेँ पकड़ने अछि ओ कहियो काल तँ सुधैर जाइए मुदा पुन: फेर ओहीठाम पहुँच जाइए।
कोनो जिनगीक मुख्य काज तँ यएह ने होइए जे जे गुण-अवगुण अपन भेल ओ समैपर चुकबैत
चली। जँ से नइ चुकबैत चलब तँ केतौ अपने चुइक जाएब वा केतौ कियो आने चुका देत..! पत्नीकेँ कहलयैन-
“ओना किसुन
काका ऐठाम सेहो चाह पीबे करब मुदा घरसँ निकैल रहल छी तँए पहिल घरक पूजा हएब जरूरी
अछि। इन्होरो-तिन्होरो चाह पीआ दिअ। मुदा से जल्दी पिया दिअ। नहि तँ चाह छोड़ि चलि
जाएब। जरूरी काज भऽ गेल अछि।”
ओना कखनो काल, कखनो काल किए
बेसी काल, पत्नी भंगठले रहै छैथ मुदा अखन से नहि, अखन एकमुहरी सुढ़ियाएल छेली। चाहक खगता सुनिते बजली-
“जाबे अहाँ मुँह-कानमे
पानि लेब ताबे हमहूँ चुल्हि महरानीकेँ आँखि-कान पोछि बना लेब।”
मनमे उठल- जखन
निर्धारित समैपर कियो अपन निर्धारित काजकेँ पुरा लइ छैथ तँ वएह ने भेल हुनकर काजक
एकाग्रता, जे सार्थक जिनगीक एक कड़ी छी। तँए काजुल लोककेँ तँ एकरे ने खगता अछि जे
अपन क्षमतानुसार अधिक-सँ-अधिक काज निसचित समैपर पूर्ति करैत आगूक डेग उठबैत
डेगे-डेग रोपैत चलए, तँए एहने मसीममे किए ने पत्नीक संग
मुकाबला भाइये जाए। जोशमे बजा गेल-
“यएह भेल
रणभूमि, पहिने अहाँ तैयार भऽ पहुँचै छी कि हम से देखा चाही।”
बजा तँ गेल मुदा लगले
मन पाछू घुसकए लगल। अखन एहेन परीक्षाक कोन जरूरत अछि? मुदा मरदक
बोल आ हाथीक दाँत एक्के बेर ने निकलैए। तँए अपन काजकेँ घटबी करैत माने पैखानाकेँ
कटौती करैत हाँइ-हाँइ कऽ चारि घुस्सा दाँतमे देलिऐ आ दू रगड़ जीहमे दइते दुनू झलैक
गेल। चारि कुर्रा मारि तैयार हुअ चाहलौं। ओना पत्नियोँ चौकस भऽ अपन विजय-पताका
गाड़ए चाहै छेली। अपनो मनमे भेल जे कोनो धरानी अखन विजय पताका गाड़ब अछि। भाय! पहिने घर आ घरनीकेँ दहिन बनाएब तखन ने दुनियाँकेँ दहिना-बामा करैत बढ़ब। तँए
जिनगीक समरक पहिल युद्ध तँ कृत्ति-भूमिमे पत्नियेँसँ करब ने अछि। ओना विजय-ले
कृत्तिकेँ घटा नेने छेलौं, मुदा जैठाम पत्नीक संग
हीन-श्रेष्ठक प्रश्न अछि तैठाम जँ कनी-मनी काजमे कटबियो केने वा घुसो-पेंच लगौलासँ
जँ नीक नम्बर परीक्षामे आनि ली तँ लोक ओकरे माए-बापकेँ ने चाबस्सी दइए। जे फल्लाँ
अपन बेटा-बेटीकेँ अकास चढ़ौलैन। ई कियो थोड़े कहत जे गुँहचोरिक सम्पैतक मोले की? एहेन सम्पैत जँ माए-बाप अपना सन्तानकेँ दइ छैथ जे तइसँ नीक ने हएत जे जइ
बच्चाकेँ जन्मक छह मासक बाद जे नून चटबै छैथ से छह मास पूर्वे चटा दौथु। कोन
नजरिये कियो अपन बाल-बच्चाकेँ देख रहला अछि से तँ अपन-अपन नजरिक खेल छी किने।
जिनगीक लेल ज्ञान चाही नहि कि कागतक तगमा। ओना पत्नियोँ अपन अजादीक पूर्ण उपयोग
काइये रहल छेली। एक नजैर चुल्हिपर आ दोसर नजैर हमरेपर रखने छेली, जे कहीं अपने ने पछुआ जाइ। खाएर जे भेल से भेल। मुदा एते तँ जरूर भेल जे
जहिना अपने चाह पीबैले बढ़लौं तहिना पत्नियोँ चाहक कप हाथमे नेने हमरा लग
पहुँचली।
दुनू बेकतीक बीचक
रणभूमिक हार-जीत मनमे नुका रहल। चाह देख मन कलैश गेल। बजलौं-
“शुभ मुहूर्तक
शुभ कर्मे ने शुभ्रफल दाता छी।”
ओना पत्नियोँ कि चाह
कोनो हमरा मने पिआबए चाहै छेली? नहि! ओ तँ अपन काज सुतारै
दुआरे हमरा अनुकूल बनबए चाहै छेली, से बुझबे ने केलौं। हुनकर
रंग-रूप देख मन चपचपा गेल छल। दोसर, पहिल घोंटक चाह नीक जकाँ
कण्ठसँ निच्चाँ उतरलो ने छल कि छिट्टा भरि फरमाइस आगूमे छिड़ियबैत बजली-
“एकोटा ने
तीमन-तरकारीक बीआ आ ने कोनो सागे-पातक बीआ घरसँ निकलल।”
मन खुशियाएल रहबे करए, पत्नीक
विचारकेँ ऊपरे लोकैत बजलौं-
“अहाँ मन पाड़ब
तखन मन पड़त। अपने नइ देखै छी जे हालक दुआरे अनरनेबो गाछ रोपब पछुआएले अछि।”
हमर बात सुनिते
पत्नीक मन आरो मीठेलैन। किए मीठेलैन से तँ ओ जानैथ मुदा अपना बुझि पड़ल जे अखन तक पत्नी
तरकारियेक बोनमे वौआइ छेली आ तरफल वा फलतरक भाँज मनमे उठले ने छेलैन जे भरिसक
अनरनेबा सुनिते उठलैन- अररनेबा फलो आ तरकारियो तँ छीहे। एना कहब जे लतामोक
चटनी-अँचार होइ छै तँए ओहो वएह भेल, से नहि। फलबला लताम आ चटनीबला वा
अँचारबला लताम अलग-अलग होइए। दुनू दू गाछक फड़ छी।
चाह पीबिते रही कि
पत्नी पान लगा बामा हाथमे चारि आँगुरसँ दाबि, जरदाक डिब्बा दहिना हाथमे रखने छेली।
मनमे भेल जे एक टोन लगा दिऐन जे दहिना हाथक काज बामा हाथे आ बामा हाथक काज दहिना
हाथे किए करै छी। मुदा फेर भेल जे जेठुआ हाल हाथ लागल अछि,
पत्नी कि सीता जकाँ कोनो बोन थोड़े जेती जे गप-सप्प करैक समय नइ भेटत। निचेनमे सभ
गप कऽ लेब। पहिने जे सालक मौसम हाथ लागल अछि ओइ दिस बढ़ी,
किएक तँ जिनगीक बाढ़ि तँ ओ ने हएत तँए पत्नीक आगू मुँह खोलैसँ नीक अखन बन्ने राखब।
मुदा तैयो बजा गेल-
“बरसाती खेतीक
जे जे बीआ-बालि घरमे अछि ओकरा निकालि कऽ रखने रहब, ओमहरसँ–माने
किसुन काका-ऐठामसँ–घुमि कऽ आएब आ खेती दिस बढ़ि जाएब।”
सबेर-सकाल सुति कऽ
उठैक आदत किसुन काकाकेँ शुरूहेसँ रहलैन। ओना आब उमरदार भऽ गेला हेन मुदा अपन
दुनियाँ अपन मनक अनुकूल तँ छैन्हे। राजा
बलि जहिना अपन सिरसँ धरती धरि वामन महराजकेँ तीनियेँ डेगमे नपा देलैन तेहने चालिक लोक
किसुन काका सेहो छथिये...। गामक सभ बाध-बोनसँ टहैल किसुन काका दरबज्जापर आबि
संध्या-बन्धन तँ नहि, मुदा भोरक बन्धनमे जरूर लगि गेल छला। पत्नीकेँ बुझले छैन जे केतौ रहता तँ
चाह पीबैबेरमे आ खेनाइ-पीनाइसँ लऽ कऽ सुतैबेर तकमे दरबज्जेपर रहता। बुढ़े भेली तँ की
बिसैर गेली जे एतबो नइ अह्लाद करथिन। माने भोजन करैबेर अह्लादि कऽ आँगन नइ लऽ जेथिन, नमगर-चौरगर पीढ़ीपर नइ बैसैथिन। कियो हाथीए-पर चढ़ि नाचत तँ नाचह काकीकेँ
जेतबे विभव छैन तेतबे नचती। कियो पान खाएत काकी पानक डण्टिये खेती। अपन विचारक
बाटपर बुधनी काकी सोल्हन्नी सन्तुष्ट रहिते छैथ। नमहरका गिलासमे चाह नेने बुधनी
काकी दरबज्जापर पहुँच दरमान-सिपाही जकाँ आगूमे ठाढ़ भऽ किसुन काकाकेँ कहलखिन-
“मनो मन्हुआएल
आ मुहोँ सुखाएल बुझि पड़ैए तँए पहिने मुँह-कान धोइ पानि पीब लिअ। पछाइत चाह पीब।”
बाधक रूप देख किसुन
कक्काक मन बेसुध भऽ गेल छेलैन तँए बेसुधिक अवस्थामे दरबज्जापर पहुँचल छला। एतबो
अपन सुधि-बुधि नइ रहलैन जे जखन बाध-बोनसँ टहैल आएल छी, तहूमे जखन सभ
रस्ता-पेरा शीताएल अवस्थामे छल। तैपर भोरका बरखा आरो बेसी शीतेबे केने छल। ओना, काकीक मनमे ईहो ठहकैत रहैन जे ऐना बेसुध होइक कारण आगू दिस देखब छैन आकि
पाछू दिस..?
ऐठाम किसुन कक्काक
बेसुधपनमे जेतेक मन बेसुध रहैन तेतेक देह नहि, मुदा शीताएलमे टहलने-बुलने पएरो आ
हाथो थोड़ेक मलिन भाइये गेल रहैन। जइसँ सौंसे देह तँ नहि, मुदा
ऐँड़ीसँ चोटी धरि चोटा जरूर गेल रहैन। खाएर.., अखन तँ किसुन
काका पत्नीक अधिकार क्षेत्रक सीमामे छैथ तँए सीमांकन करैत बजला-
“उमेरक दोख आब
नइ हएत तँ कहिया हएत। भोरसँ टहैलते छी, चारू बाध घुमलौं हेन तँए
कनी चेहरा मन्हुआ गेल हएत।”
पतिक विचार सुनि
बुधनी काकी बेसी लड़-लपट नइ केली। अपन अन्तिमे निर्णय सुनबैत बजली-
“जीता-जिनगी
अहिना होइ छइ। जएह बाध-बोन घुमत तेकरे ने शीत-रौद लगतै आ जेकरा पैरमे जेते शीत-रौद
लगतै ओकरे पएर ने ओते चहकबो करत। जेकर पएर जेते चहकत, सएह ने
बेमाइक बेसी सुखो-दुख बुझत। सोझे ‘पीर पराइ’ बजलेटा-सँ नइ ने होइ छइ..!”
बुधनी काकीक
निर्णयात्मक विचार सुनि किसुन कक्काक मनमे चेनियत एलैन। चाह पीब पान खाइते किसुन
काका लगसँ हटि बुधनी काकी आँगन पहुँचले छेली कि पहुँचलौं। ओना अँगनाक कोनचर लगसँ
बुधनी काकी हिया कऽ हमरो देख नेने छेली। दरबज्जाक निच्चेसँ बजलौं-
“काका, गोड़ लगै छी।”
ओना तरे-तर किसुन
कक्काक मन झखैत रहैन। झखैक कारण छेलैन जेठुआ बर्खाक हाल। तहूमे अपन खेतक जे दशा
देखलैन तइसँ आरो बेसी हाथ मलै छला। तरे-तर मन कलैप-कलैप कानि रहल छेलैन। मुदा कहबो
केकरा करथिन। जँ पत्नी लग बजता तँ ओ तेहेन अगि-लगौन छैन जे सौंसे गाम पसाही जकाँ
पसाइर देथिन। जइसँ आरो तेते लोक कपार खोधए चलि औतैन जे अनेरे जेतबो मौस देहमे बँचल
छैन सेहो रहए देतैन कि नहि। मुदा अपन चिन्ता अपन मनेक होइए किने। तैयो जँ कियो
दरबज्जापर आबि गेला तँ पहिल चिन्ता हुनकर से भऽ जाइए। दरबज्जा जखन बनौने छी, तखन दरमानी
तँ करए पड़त। आ जँ से नइ भेल तँ दरबज्जाक मोले की रहल। जे बाट-बटोहीकेँ एक मुट्ठी
अन्न आ एक लोटा पानिसँ आदर नइ भेल..!
किसुन काका बजला-
“नीके रहह बौआ।
भोरका बरखा तँ लोककेँ मस्ती आनि देलक।”
किसुन कक्काक विचारक
बीचमे अपनो विचार बहि कऽ भँसियाए लगल। एकाएक बजा गेल-
“काका, जेठक बरखा आ भादवक आड़ि[5]
जँ चलै-जोकर पकड़ा गेल तँ गाम कि गामे रहत।”
ओना बजाएल अपने मुहेँ, मुदा बजाएल
बिनु विचारल बात, तँए किसुन काकाकेँ केहेन लगलैन से देखा
चाही। ओना, अखन किसुन कक्काक मन साहित्यसँ अर्थशास्त्र दिस टहैल
गेल छेलैन तँए हमरा बातकेँ मनक कतबाहिमे लगा बजला-
“बौआ, बरखा ते सभ-ले भेल, मुदा हम-तूँ तँ किसानी जिनगीसँ
ने जुड़ल छी, तँए अपन-अपन ने हिसाब जोड़ब। केहेन हाल पड़ि
लगलह?”
अपन बात सुनिते मन
दरैक गेल। तीन साल पहिनहि बोरिंग ठाँठ भेल, जखन कि पानि गिरहस्ती जिनगीक मुख्य
आधार छी। ओना किछु दिन काबूमे रहबो कएल मुदा आब से नइ रहल,
बेकाबू भऽ गेल अछि। पोखैरक माछ जहिना पानिसँ निकैल जाधैर थलिआएल कीनछैरमे रहैए
ताधैर कूदब-फानब ओकर मनोरंजक खेल सदृश रहैए। मुदा वएह माछ जेना-जेना सुखाएल धरती
दिस चढ़ैए तेना-तेना ओकर छटपटी बढ़ए लगै छै जे खेलक नहि मृत्युक रहै छइ। अपनो स्थिति
सएह भऽ रहल छल। तखन हालक हाल की कहबैन। मुदा छगाएल मन पानि-ले रहबे करए, बाल-बोध जकाँ बजा गेल-
“काका, अदहा हाल गाम-ले भेल आ अदहा बुझू हमरे-ले भेल।”
गाम सुनि किसुन
कक्काक मन हालक चर्चसँ हटि गामक खेत-पथार दिस बढ़ि गेलैन। बजला-
“बौआ, गामक जे खेत सबहक सूरत बनि गेल अछि, से कहै-जोकर नइ
अछि।”
किसुन कक्काक बात
कानमे पड़िते अपन मन एकाएक चौंक गेल जे बीचमे ई की बजला- ‘खेत सबहक सूरत
बिगैड़ गेल!’ खेत तँ खेते छी, केतौ
चौआरि बान्हल अछि तँ केतौ बिनु आड़ियेक अछि। तखन ओकर सूरत की भेल जे काका बजला..! पुछलयैन-
“की कहलिऐ काका
जे खेतक सूरत बिगैड़ गेल?”
तही बीच बुधनी काकी
चाह नेने आबि दुनू गोरेक हाथमे पकड़ा, दुनूक मुँह बान्हि बजली-
“बौआ, धिया-पुता सबहक बिआह-दानसँ कहिया फारकती लेबह?”
काकी की कोनो अधला
मने बाजल छेली जे दुख होइत। कहलयैन-
“काकी, अखन ते स्कूलेक पछड़ामे पड़ल छी, तखन बिआह दिस केना
ताकब।”
चाह पीब किसुन काका
बजला-
“बौआ, अपन जे खेत अछि से देखते छहक जे सड़कक काते-काते अछि। गाममे सड़क बनल, सबहक नीक-ले बनल, मुदा सड़कक कातक खेत सबहक जे
केकरो नाक कटि गेल, केकरो पेट कटि गेल अछि, तेकरो विचार ते अपने सभ ने करब।”
कक्काक बात सुनि जेना
भक् खुजल। बजलौं-
“काका, अखुनका समय हालीक अछि तँए अखन बेसी गप-सप्प नइ करब। बरसाती फसिलक तँ सभ
बीआ माटिमे दऽ दिऐ किने?”
ओना किसुन कक्काक
मनमे एलैन जे ‘हँ’ कहि दिऐ मुदा पहिल बरखा छी, कोन खेतमे कोन बीआ पड़त आ ओइमे केहेन हाल अछि, से
बिनु बुझने केना ‘हँ’ कहबै। किसुन काका
बजला-
“बौआ, अपन सड़क-कातक खेतमे ठाढ़ भऽ कऽ देखलौं। खेतमे एको खपटा पानि नहि छल, मुदा ओही खेतमे सड़क-ले जे माटि खुनल गेल तइ खाधिमे पानि भरल छल!”
बजलौं-
“खेतकेँ चौरस
बना अड़ियेने नै छेलिऐ?”
किसुन काका बजला-
“सभ कथुक तेहेन
समस्या बनि गेल अछि जे की करब की नइ करब से बुझिये ने पेब रहल छी।”
¦
शब्द संख्या : 2722, तिथि : 10 दिसम्बर 2017
दोहरी हाक
महिना दिनसँ बुझि
पड़ैए जे भरिसक आब चेतन भऽ गेलौं किएक तँ पहिलुका जकाँ भोरेसँ पत्नीक संग झगड़ा नइ
लधाइए। पैछला मास तक एको दिन एहेन नइ होइ छल जे सुति कऽ उठैये बेरसँ झगड़ा नइ लधाइ
छल। ओना झगड़बकेँ सेहो सोल्होअना अधले नहियेँ कहल जा सकैए मुदा झगड़बो तँ एके रंगक
नइ होइए, तँए झगड़ब-झगड़बमे सेहो भेद होइते अछि जइसँ किछु नीको अछि आ किछु अधलो तँ
अछिए। खाएर जेतए जे अछि मुदा अपना संग से बात नइ छल, अनुचित
झगड़ा छल जइसँ मुक्ति भेटल, तँए मनमे खुशी अछि आ अपनाकेँ चेतन
बुझए लगलौं। मुदा चेतन-अचेतनक बीच मन अखनो ई मानैले तैयार नइ अछि जे पहिने गलत
छेलौं आ आब सही भऽ गेलौं। किएक तँ पहिने जे छेलौं सएह ने अखनो छी। दिन-दिनकेँ
जोड़ब तँ कनी-कनी बेशियाइत जरूर गेलौं मुदा खेनाइ-पीनाइसँ लऽ कऽ देहो-हाथ ओहिना
अछि जेहेन मास दिन पूर्व छल। खाएर जे छल कि अछि, सएह छल आ सएह
अइछो। मुदा बीचमे एकटा जरूर भेल जे काजमे थोड़ेक संशोधन कऽ लेलौं। माने काजक
प्रक्रियाकेँ थोड़ेक सुधारि लेलौं।
बचपनक बचकानी विचार
जँ पहिने नहि कहि देब तखन अहूँ केना बिसवास करब जे फल्लाँ ठीके आब चेतन आकि सियान
भऽ गेला। जेना-जहिना कोनो काज करैमे नीकक सुधार भेने काज सुधरैत जाइए, जइसँ सुधरल
काज बनैत जाइए, तहिना जिनगीक क्रिया सुधरने बालपन चेतनपन दिस
बढ़ैत चेतन सियान बनैए। सएह भेल। लेधे-गोधे आठटा बेटा-बेटी अछि। नवम पत्नी आ दसम
अपने छी, तँए दस गोरेक परिवार अछि। दस गोरेक परिवारमे अपन
सिरक संग देहो-हाथ बेसी धुनाइते अछि मुदा एहेन खुशी तँ हुनकेटा ने हेतैन जे दस
गोरेक परिवारमे बास करै छैथ। असगर-दुसगरकेँ आकि निवंशाकेँ ई खुशी थोड़े हेतैन, नहियेँ हेतैन। तँए हरदम मन दुखसँ दुखीए रहैए सेहो बात नहियेँ अछि। धान
दौन करैबला खरिहाँनक मेह जकाँ ठाढ़ जरूर छी। असगर देहो रगड़ौने तँ काज गड़बड़ेबे
करत जइसँ परिवारमे अनेको अनसून-मनसून आपैत-बिपैत नइ औत सेहो नहियेँ कहल जा सकैए।
जखन पैछला पीढ़ीक अन्त भेल–माने माइयो आ बाबूओ मरि गेला, बाबा-दादी तँ पहिनहि मरि चुकल छला, जइसँ परिवारक
भारो पड़ल आ गारजनी सेहो अनायासे भेटल–तखन अपन गारजनीमे परिवारक देख-रेखपर नजैर
रखइ पड़त किने। परिवारो तँ परिवार छी, एक दिस बाल-बोध सुर्ज सदृश
उदय होइत रहैए तँ दोसर दिस सुरूजे जकाँ अस्त होइत अस्तांचलगामी नइ होइत रहैए सेहो
नहियेँ कहल जाएत। मुदा जेतए जे हुअए अपन तँ पैछला पीढ़ीक अन्त भाइए गेल।
ओना माइए-बाबूक अभिभावकत्वमे
अपन बिआहो-दुरागमन भेल आ चारिटा धियो-पुता भेल, मुदा तहिया अपन महत परिवारमे ने
कमाइबलामे छल आ ने विचारबला विचारकमे। बुझै छेलिऐ जे मनुख अपन परिवारक गाड़ीकेँ
जोति अपने कन्हेठ चलबै छैथ, तँए मनुखकेँ अनेरे कोनो
चिन्ता-फिकिर नइ करक चाही। बुझले बात आ देखले आँखि छल। ओना, बीच-बीचमे
पत्नी जोर दैत एतेक जरूर कहैत रहली-
“ई जे चारिटा
धिया-पुता अछि से अनकर छिऐ, ओकरा जँ खुएबै-पीएबै नहि तखन ओ जीयत केना..?”
ओना कहैत रहली नीक
बात, से मने-मन अपनो बुझैत रहलौं। मुदा भगवानपर अटूट श्रद्धा आ बिसवास नइ रहए
सेहो नहियेँ कहल जा सकैए। श्रद्धाक संग बिसवासो रहबे करए। भाय! बिसवासेक गाछमे मेवा फड़ैए किने, अपनो तँ बिसवास
ऐछे जे फड़बे करत...। तँए चिन्ता-फिकीर करैक खगते की। ओना गोटे-गोटे दिन पत्नी
रबाड़ैत ईहो कहिते छेली-
“घरमे कमाइ नइ
होइए ते परदेश जाउ।”
मुदा उपाइयो तँ दोसर
नहियेँ छल, सिवा पत्नीक बातक सहाज करब छोड़ि कऽ, तँए सुनियोँ
कऽ अनठबैत रहलौं। ओना, कहियो-कहियो मनमे उठै छल जे आब की
कोनो माए-बाबू छैथ दोकानो-दौरीसँ उधार-पुधार नून-तेल आनि, कि
अनकासँ पैंचो-पालट करि आकि कमाइये-खटा कऽ परिवारक खर्चा पुरौता। आब तँ अपने दुनू
परानीपर परिवारक भार अछि, हमरे ने सभकेँ पुरबए पड़त। आब
माए-बापक राज थोड़े रहल, आब तँ अप्पन भेल...। तैसंग लगले
मनमे ईहो उठि जाए जे जे भगवान खाइक मुँह बनौलैन वएह ने खाइक ओरियानो करता। तइले
अपन कोन काज।
..अही असमनजसमे समय
बीतैत गेल आ परिवार बढ़ैत-बढ़ैत दस गोरेक भऽ गेल। माने चारिटा धिया-पुता आरो भऽ
गेल। अखन तक ओही बचकानी मतिक-गतिक रीति पकड़ने चलि आबि रहल छेलौं। मुदा तइमे एकटा
मोड़ आएल। मोड़ ई आएल जे अभावक जिनगीकेँ जहिना रंग-रंगक भूत-प्रेतसँ लऽ कऽ राक्षस-दैत्य
धरि दतिया कऽ धेने रहैए तहिना अपनो धेनहि छल। तँए दुनू परानीक बीच कहा-कही होइते
छल।
घरक बगलेमे मरनी
दादीक घर छैन। अस्सी बर्खक मरनी दादी चारि बजे भोरे उठि आँगन-घर बहारि, दुआर-दरबज्जा
बाहरैत मालक घरक थैर-गोबर करैत, पथियामे छाउरक संग करसी-मरसी
उठा घरक बगलेक चौमासमे फेक, बाड़ी-झाड़ीसँ तीमन-साजन नेने आँगन
अबैत-अबैत भिनसुरका पहरक बिसरजन करै छैथ। मुदा हमरा दुनू परानीमे सुति कऽ उठैये
बेरमे जे झगड़ा लधाइए ओ भरि दिन लधले रहैए। भैंसा-भैंसीक कनारि जकाँ जहिना अपने
पत्नीपर कनखरल रहै छी तहिना पत्नियोँ भरि दिन हमरापर कनखरले रहै छैथ, जइसँ बेर-बेर किछु-ने-किछु कहा-कही होइते रहैए। जुति-भाँति-ले होइए आकि
की से बुझबे ने करै छेलौं। तेना भऽ कऽ अखनो नहियेँ बुझै छी। कियो अपना अँगनामे भरि
दिन गीते गौत आकि झगड़े करत तइसँ अनका की। जखन अनकासँ अनका मतलबे नइ रहत तखन समाजे
की? मुदा से बात मरनी दादीमे नहि छैन। दुनू परानीक बीचक
झगड़ाकेँ केता दिन मान-मनोबैल करैत पहिनौं फरिछौने छैथ। मुदा फेर ओहिना-क-ओहिना
रमा-खटोला शुरू भाइये जाइए।
ओइ दिन सेहो तहिना
भेल जइ दिनक बात कहै छी। मरनीए दादी जकाँ अपनो ओहिना अखनो उठै छी आ सभकेँ–माने
परिवारक आन-आन सभ सदस्यकेँ–सुतले छोड़ि अपने दिन-दिनक काजमे लगि जाइ छी। माने उठि
कऽ माल-जालकेँ घरसँ निकालि खाइले दऽ दइ छिऐ, दुआर-दरबज्जाकेँ बहारि-सोहारि
पर-पैखानासँ निवृत्ति होइत मुँह-हाथ धोला पछाइत एक तोरक काजकेँ जखन सम्हाइर लइ छी
तखन टिफीन होइए, माने चाह-पानक बेर होइए। तखन परिवारक आन-आन
सदस्यकेँ उठबए जाइ छी। आइयो तहिना उठबए गेलौं। चारि-पाँच हाक जेठका बेटाकेँ देलिऐ।
जहिना गहुमन साँप हनहनाइत निकलैए तहिना भोरक हल्ला सुनि पत्नी घरसँ हनहनाइत निकलली, निकैलते हल्ला करए लगली।
जहिना गाम-समाजमे
कहियो घरमे आगि लगलापर तँ कहियो घरमे चोर पैसलापर रंग-रंगक हल्ला होइए तहिना ने
घरो-परिवारमे होइते अछि। मुदा दुनू हल्लाक दू रूप अछि। आगिक हल्लामे लोक घैल-डोलमे
पानि भरने दौड़ैए तँ चोरक हल्लामे लाठी-ठेंगा नेने दौड़ैए। तहिना परिवारोमे भेल।
धिया-पुताक नाओं लऽ
लऽ जगैले शोर पाड़लिऐ। किए ने शोर पाड़बै। परिवारक जवाबदेही जखन कन्हापर अछि तखन
ओकरा सम्हारि लऽ चलबो तँ अपन दायित्व भेल किने। परिवारजनकेँ अपन दायित्वक संगे ने
अधिकारो होइते अछि। मुदा जे अछि आ जेते अछि से तेते अछिए। बजैकालमे कौआसँ मेना तक कि
नइ बजैए जे ‘भाय प्रकृत्तिसँ मिलि-जुलि कऽ चललापर जहिना भगवान जकाँ प्रकृत्ति मनुखक
मददगार होइए, तहिना ओइसँ हटि कऽ चलब तँ ओ दानव-दैत्य जकाँ
भक्षक सेहो भऽ जाइए। मुदा ईहो तँ झूठ नहियेँ अछि किने जे रातिकेँ ढलानपर ढलिते, अढ़ाइ बजे भोरे परबा-पौरकीक संग मुर्गा-मुर्गीक माध्यमसँ प्रकृत्ति जगैक
आवाहन करैए। तखन जँ अपने आठ बजेमे ओछाइन छोड़ि दुनियाँ दिस ताकि अपनाकेँ जगबए लगब
तखन कोन रूपक जगान हएत? नीक हएत कि अधला तहू दिस ने देखए
पड़त? खाएर...।
ओछाइनसँ उठि ललकैत
पत्नी घरक चौकैठ टपि आगूमे आबि ठाढ़ होइत बजली-
“अखन सुतै बेर
छै, खुट्टा जकाँ बाप-माए जीबै छै,
तैबीच जँ सुख-मौज अखन नइ करत तँ कहिया करत।”
पत्नीक बात जेना-जेना
कानमे पैसल जाए तेना-तेना मनमे लहैर उठल जाए। कोन हाथी चढ़ि गौड़ पुजने छी जे एहेन
हथियाह मनुख जिनगीक संगी बनि संग पूरत। मुदा लगले मनक विचार तर-मुहेँ ससरल। ससरल ई
जे जखन शरीरक भीतर सेहो प्रकृत्ति अनुकूल आ प्रतिकूल विचारक संग चलैत प्रकृतस्थ
होइते अछि तखन अनेरे...। जहिना पुरुखक सोभाव तहिना ने नारियोक अछि। सभ ने अपन
वचस्व चाहैए। तैठाम तँ पुरुख-नारी कहियौ आकि पति-पत्नी, अपन-अपन
विचारानुकूल दुनूकेँ परिवारमे नव पीढ़ीक सृजन करब अछिए...।
रंग-रंगक विचार मनमे
बर्खाक बुन्नक बुलबुला जकाँ उठितो रहल आ फुटितो रहल आ गोटे-गोटे आगूओ पानिक धारक
संग चलितो-बहितो रहबे कएल।
समय आ स्थिति जेहेन
छल, तइमे की नीक हएत आ की अधला हएत, ई विचार जँ परिवारक
सिरजन नहि करैथ तँ बिनु सीरबला वा कम सीरबला वा जलियाएल सीरबला कोनो विचारमे की
गति देत से तँ विचारणीय अछि किने, जे विचारए पड़त।
पति-पत्नीक बीच जखन परिवारक कोनो काज सृजित हएत तखन जे सृजनकर्ता छैथ–माने
माता-पिता–ओ सृजनक सीर तक नहि पहुँच अल्हुआ[6]
वा पोरो सागक लत्ती जकाँ जँ ऊपरेसँ काटि रोपि कऽ नव सृजन चाहता तँ ओहो एक क्रिया
भेल। मुदा किछु भेल, भेल तँ बिनु सीरेक। तैठाम दोसर-तेसर आकि
चारिमजन जँ कम्मो सीरगर हुअए वा एकसिरे हुअए आकि सघने सीरबला होथि, होइ तँ अछिए। मुदा सघन सीरबला गाछकेँ जँ अल्हुआ वा पोरो जकाँ ऊपरसँ काटि
कऽ रोपब, तँ ओ थोड़े सृजित भऽ सकैए। मनुखोक वंश-वृक्ष तँ तेहने
अछि। तँए, पति-पत्नीक बीचक जे विचार अछि तइ अनुकूल बजलौं-
“बाल-बोधकेँ
ताधैर उठबैये पड़त जाधैर ओ ओछाइनसँ उठि ठाढ़ भऽ आगू बढ़ै दिस डेग नइ उठौत।”
हमर विचारक वाण
पत्नीकेँ जइ रूपे लगल होनि से ओ जानैथ, मुदा बिलसँ निकलल गहुमन साँप जकाँ आरो
हनहन करैत बजली-
“आध पहर रातिसँ
जहिना अहाँ अपन जान गमबैत रहै छी तहिना दोसरोक जान लेबइ..!”
पत्नीक बात सुनि मनमे
उठल जे कहिऐन-
“उठि कऽ चलैले जँ
दिनक सुर्जक इजोते भरोसे रहब आ जँ कहीं दिनमे कुहेस लगि जाइ,
तखन तँ अशे-अशीमे रातिये जकाँ दिनो सुतले-सुतल बहि जाएत। जाबे अचेतन चेतनक बाट
पकैड़ सुरूजे जकाँ रातिक अन्तिम पहर–जे राति-दिनक
संक्रमणकालक पहर छी–तइमे अपनो रातिक वृत्तिकेँ[7]
दिनक वृत्तिक[8] बीच संक्रमण
नइ करब तखन संक्रमित केना हएब? आ जँ संक्रमित नइ हएब तखन
केहेन जिनगी पेब पएब?”
तरेतर मन कड़ुआए लगल।
कड़ुआइते उठल- कहू! जे जेकरा-ले चोरि करौं सएह कहए चोरा! एक दिस हम अपना संग पत्नियोँ आ परिवारक बालो-बच्चाकेँ धार सिरैज धाराक
रूपमे धराधाम दिस बढ़ैक विचार कऽ रहलौं अछि, मुदा दोसर दिस
परिवारक कियो सुतले अछि आ कियो झगैड़ते अछि तखन ओ प्रवाहित केना हएत..?
कड़ुआएल आँखि ललिया
गेल, पत्नीकेँ पुछलयैन-
“दोसरक जान लिअ
चाहै छिऐ आकि दिअ चाहै छिऐ?”
हमर बात पत्नी की
बुझली, केना बुझली कि सुनबे-बुझबे ने केली आकि सुनि कऽ मतसून जकाँ मठैर देली से
तँ ओ जानैथ, मुदा मनक विचार फाड़ि बजली-
“जहियासँ ऐ
घरमे पएर देलौं तहियासँ एक्को दिन सुख नइ भेल..!”
पत्नीक बात सुनि मन
बेसम्हार हुअ लगल। ई तँ नमहर उपराग भेल! आइ जँ अपने सीमा तकक–अपन सीमाक माने भेल जहियासँ गारजनी भेल तेतबे तकक–उपराग रहैत तँ
पति-पत्नीक बीचक बात बुझि छोड़लो जा सकै छल, मुदा जैठाम
पैछला पीढ़ीक उपराग अछि तैठाम तँ पत्नीक मुँहमे लगाम लगौने बिना कियो चेतनशील केना
भऽ सकैए। जिनगी जिनगी छी, ठट्ठा नहि। किछु सीखए पड़ै छै, किछु बिसरए पड़ै छै, किछु जोड़ए पड़ै छै आ छोड़ौ
पड़िते छइ। आ जँ से नहि हएत तँ हीर-मति लाल-जवाहरक संग अमृतसँ भरल ई दुनियाँ
खढ़-पातसँ तेना ढकि कऽ झँपा जाएत जे चीन-पहचीन सभटा लोप भऽ जाएत! जखन नीक-अधलाक विचारे लोप भऽ जाएत तखन जिनगीए की आ जीवने केहेन रहत?
मन तेते गरमा गेल जे
अपन विचार जोर-जोरसँ पत्नीपर लादए लगलौं। मुदा ओहो उतारामे की कहली, नइ कहली, से सुनि अखनो कान ओहिना बहीर अछि जेना सुनसान असमसान हुअए। मुदा चुपचाप
सुनि कऽ बरदासो करब, केतौसँ उचित नहि बुझि पड़ल। बेतुकार
मुहसँ निकलए लगल। जइसँ दुइये गोरेक बीचक बात अनघोल जकाँ भऽ गेल। तहीकाल मरनी दादी
घर बहारि आँगन बहारै छेली आ सुनबो करै छेली। जखन अनसोहॉंत लगलैन तखन डेढ़ियापर
बाढ़ैन रखि पहुँचली।
अखन तक दादी दुनू
गोरेक बाते अकानैत, बाजैत किछु नहि। मुदा विवादक जड़ि जखन नजैरमे नइ एलैन तखन अनधुन बजली-
“की
जोलहा-धुनियाँक घर जकाँ झूठ-फूसकेँ धुनकीमे धुनबो करै छह आ तानी-भरनी तानि अनेरे
खटखुट करै छह।”
ओना दादी हमरा दिस
ताकि बजै छेली, तँए पत्नीकेँ अपन पछपात बुझि पड़लैन, जइसँ मुँह
सुपुट लेलकैन। दू गोरेक बीच अपने फँसि गेलौं। एक दिस पत्नीक नजैर तेज होइत उठैत
देखिऐन तँ दोसर दिस मरनी दादीक विचारकेँ आइ धरि कहियो सोझा-सोझी कटने नइ छी तँए
किछु करैत किछु-ने बनैत रहए। मुदा रच्छ रहल जे आगू भऽ कऽ पत्नियेँ, दादी दिस नजैर उठा बजली-
“दादी, भिनसरू पहरकेँ लोक राम-राम करैत नीन तोड़ैए आ ई सभकेँ तेना हकबाहि करै
छैथ जे गाम-समाजक लोको सुनि की कहैत हेता!”
ओना मरनी दादी
पत्नियोकेँ आ अपनो ठेहुन लगसँ के कहए जे छाती धरि नीक जकाँ चिन्है छैथ। जे दुनू
परानीक जिनगीमे की अन्तर अछि। ओना कोनो झगड़ाक पनचैती दू रूपक पंच दू रूपे करै
छैथ। एक करै छैथ जे झगड़ाक गहींर पानिक पता नइ पौनिहार जकाँ आ दोसर करै छैथ झगड़ाक
जड़िक पताल तक जानि कऽ। मरनी दादी दोसर श्रेणीक पंच छैथ। मुदा जेहेन ललका-ललकी
दुनू परानीक बीच भेल छल सेहो तँ अपने काने सुनने छेली, केकरो कहलाहा
नइ सुनने छेली, तँए घरमे लगल आगिकेँ पहिने जलक बूनसँ नहि घैल
वा बाल्टीनक पानियेसँ ने तोपि कऽ शान्त कएल जा सकैए...।
सामंजस करैत दादी
बजली-
“तोरा सबहक
दुआरे होइए ऐ टोलकेँ के कहए जे गामेसँ पड़ा जाइ। ने रहब एहेन टोल आ ने सुनब एहेन
लोकक बोल।”
ओना अपना बुझबामे आबि
गेल जे मरनी दादी एकभग्गू पनचैती कऽ रहली अछि, मुदा दुनू परानी जैठाम आमने-सामने दू
पार्टी बनल छी, तैठाम जँ किछु बाजब तँ सोल्होअना दोखी हमहीं
हएब किने। तँए मुँहकेँ बरैज लेलौं। मुदा दादीक बात सुनि पत्नीकेँ बुझि पड़लैन जे
दादी हमरा विचार दिस भऽ गेली। माने हमर विचारकेँ मानि लेली। मुस्की दैत पत्नी
बजली-
“दादी, गाममे ई सभसँ सिरिस[9]
छैथ, हिनकर बात जहिना ने कहियो कटलयैन हेन तहिना ने कहियो
कटबैन।”
ओना जहिना अपने बुझै
छेलौं तहिना मरनी दादी सेहो पत्नीक घटी-कुघटी जनिते छैथ, मुदा ईहो तँ
जनबे करै छैथ जे दुनू परानीक बीचक झगड़ा छी। ओना, जँ समतल
जगहपर आनि कोनो घुरछीकेँ छोड़ौल जाए तँ ओ असानीसँ छुटि जाइए। मने-मन दादी ईहो
देखबो आ सुनबो करैथ जे सभ दिन भोरे-भोर ओछाइन छोड़ि उठैले कहा-कही होइए। जखन चेतनो-सियान
से नइ बुझत तखन की हएत..!
हाथ पकैड़ आँगनसँ
निकलैत मरनी दादी आँखिक इशारा देलैन। बुझि गेलौं जे किछु कहती, मुदा तइसँ पहिने
पत्नीकेँ कहलखिन-
“कनियाँ, घर-दुआर आकि बाल-बच्चा केकरो अनकर छिऐ, कि अपने छी।
जाउ, अँगना-घरक काज सम्हारू।”
हाथ पकड़ने मरनी दादी
अपना अँगना आनि ओसारपर बैसा कहली-
“बौआ, किछु भेलह ते पुरुख-पात्र भेलह किने। नारीमे नारीत्व आबि सकैए मुदा
पुरख-ले ते दुनियाँ पसरल अछि। तहूमे अखन जुआन-जहान छह, अखन
नमहर जिनगी जीबैक छह, तँए मिलि-जुलि कऽ रहह।”
पत्नीक सोझमे मरनी
दादीसँ जे विचार-विनिमय केलौं ओ एक रंगक अछि। माने जैठाम दू धारक मुँहक बीचक घाटक
मिलानी होइए आ जखन पत्नी नइ रहै छैथ तखन एक घाटक मुँह जकाँ धारक गहींरपन दिस होइए।
अखन दुइए गोरे छी, माने हमहीं छी आ मरनीए दादी छैथ। तँए मुर्दघटक अपन-अपन सीमा छै, जे मरनियोँ दादी बुझै छैथ आ अपनो बुझै छी। तैठाम जँ मरनी दादी दुनू
परानीकेँ मिलि-जुलि रहैक बात कहलैन से केना सम्भव हएत। ओना दुनियाँमे किछु असम्भवो
नहियेँ अछि, मुदा तैबीच अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति नइ अछि
सेहो केना कहल जाएत। मुदा शंको तँ शंका छी, पत्नीक संग सामंजस
करैत जिनगी चलि सकैए मुदा ओते बिसवासू नहियेँ हएत जेते हेबा चाही। मुहसँ खसि पड़ल-
“दादी, जैठाम कर्मक जिनगी आ अकर्मक जिनगीक झगड़ा हएत तैठाम मिलान केना हएत जे
मिलि-जुलि रहब?”
ओना अपन मन गरमाएल
जकाँ बाजल मुदा मरनी दादी-ले घैनसन। मुस्की दैत बजली-
“बौआ, सब दिन कोरा-काँखमे लऽ खेलबैत एलियह से कि मनसँ हेरा गेल जे विचार बदैल
जाएत। दुनू गोरेक बीच छेलौं तँए एहेन बात बाजब उचित छल।”
ओना मरनी दादी खोलि
कऽ नहि बाजल छेली, मुदा इशारामे ओ यएह बाजल छेली जे जहिना काजक जिनगी–माने कर्मशीलक जिनगीक
अनुभवात्मक बोध–आ अकाजकक जिनगी, जे मात्र विचारक सीमाक भीतर
रहैए, दुनूमे की दूरी छै तइ ठिकिया कऽ इशारा केने छेली। ओना, मरनी दादीक बात सुनि कनी-मनी मन नरमा जरूर गेल मुदा सोलहन्नी ठंढाएल नहि, तँए बजा गेल-
“दादी, मुँह देख मुँगबा परसबकेँ अहाँ केना उचित कहै छिऐ?”
जहिना अकासमे उड़ल
बैलून, जे जेते नमहर रहल, धरतीपर उतरैकाल ओ ओते असानीसँ
पकड़ाइए, तहिना मरनी दादी पकड़ैत बजली-
“बौआ, चौमैतपर चारिटा मति एकठाम भऽ ओझराइए वा लड़ै-झगड़ैए, तैठाम केना कएल जाएत। कनी-कनीकेँ घटा-बढ़ा, घीच-तीर
कऽ ने एकठाम साटल जाएत। एकर माने ई नहि ने भेल जे पाछूसँ अबैत मति चौमुहानीक पछाइत
अपन रूपे बदैल लेत। ओकर तँ स्पष्ट दिशा छै जे पूबसँ आएल रस्ता जखन चौमैतमे मिलि
चबुतरा निरमबैत आगू दिस बढ़ि जाइए। जे पूब-पच्छिम,
उत्तर-दच्छिन सभ दिस बढ़ैए। तैठाम तँ कहले ने जाएत जे पच्छिम-मुहेँ जाएत किने ओ
पुबरिया रस्ता भेल आ जे दच्छिन-मुहेँ जाएत ओ उत्तरबरिया भेल। जे दुनू दिससँ माने
सभ दिससँ भेल।”
ओना मरनी दादीक बात
कनी-कनी बुझबो केलौं आ कनी-कनी नहियोँ बुझलौं। मुदा भिनसुरका समय गप-सप्पक तँ छी
नहि। बजलौं-
“दादी, अखन काज सभ अछि काजसँ जखन निचेन हएब तखन आगूक गप-सप्प करब।”
मास दिनक बीच अपन विचारक
संग काजमे संशोधन केलौं। जइसँ काजक रूप रूपायित भऽ बदैल गेल। भोरक झगड़ा मेटा गेल।
काजक रूप ई बदलल जे जैठाम जेठका बेटाक नाओं लऽ लऽ शोर पाड़ै छेलिऐ जे अवाज सुनि सभ
उठत। ओ छोड़ि देलौं। आठटा धिया-पुता रहने पत्नीकेँ सेहो टोकब छोड़ि देलिऐन। माने
सुति कऽ उठैबेर, आठो धिया-पुताकेँ एक-एक बेर नाओं लऽ लऽ जोर-जोरसँ बजै छी, जइसँ आठ अवाजमे धिया-पुताक कोन गप जे बिनु टोकल पत्नियोँक नीन टुटि जाइ
छैन। मुदा दोहरा-दोहरा बजितौं तखन ने ओहो सोन्हिमे सुइया तकितैथ, से तँ रहलैन नहि। तँए चुपे-चाप गबदी मारि ओछाइन छोड़ि उठि जाइ छैथ।
¦
शब्द संख्या : 2700, तिथि : 21 दिसम्बर 2017
पाइक इज्जत
आइ सातम दिन सेहो
प्रेमानन्द बाबाकेँ पाँच रूपैआ निकैल गेल छैन। ओना ओ पहिलुके दिन बुझि गेल छला जे
पाँच रूपैआ निकलल अछि, मुदा बजला किछु ने। से ओही दिन नइ बजला से बात नहि, छअ दिन तक मुँह बन्न केने रहला। प्रतिदिन पँच-पँच रूपैआ निकललैन। मुँह
बन्न रखैक कारण परिवारिक जिनगी छेलैन। झमटगर परिवार छैन,
रंग-रंगक लोक रहने रंग-रंगक परिवारिक काज तँ सदिकाल परिवारमे होइते अछि। हेबो केना
ने करत। जहिना कोनो झमटगर गाछमे दू-चारिटा पाते कि ठहुरिये सुखल रहैत तहिना ने परिवारो
छी। तहूमे नमहर-झमटगर परिवार रहने तँ आरो सोभाविक अछिए। एक पुरखिया गाछमे ने
एक-आधटा पात आकि एक-आधटा डारि सुखल रहत, जेकरा हटा देबै, गाछ निरोग भऽ जाएत। ओना, कम आँट-पेट रहने
रोगो-वियाधि तँ कम लगबे करैए। मुदा झमटगर परिवार तँ झमटगर-ओझराएल गाछ जकाँ ने होइत
अछि जइमे दू-चारिटा पातो आ दू-चारिटा ठहुरियो सदिकाल सुखले रहैए। तँए प्रेमानन्द
बाबा मुँह बन्न केने रहला जे अँगने-घरक काजक बात छी, जखन
परिवारमे बाबा-दाखिल छीहे तखन जँ परिवार ओइ बले नइ चलए, सेहो
तँ नीक नहियेँ कहल जाएत। मुदा केतेक दिन बाबा बले फौदारी चलत। ओ तँ अपने-अपने सिरे
ने चलत। तँए कि परिवार नहि चलि सकैए, सेहो बात तँ नहियेँ
अछि। ओ तँ परिवारक विचारधारा छी। जइमे स्वच्छ धारा बनि सेहो प्रवाहित होइए आ
दुबराएल, पतराएल, मराएल सेहो चलिते
अछि।
ओना, पाँच रूपैआक
महत्ते की भेल? मुदा एक-एक पाइक महत अछि, पाँच तँ ‘पाँच रूपैआ’ भेल।
खुदरा जिनगी प्रेमानन्द बाबाक तँए पँचहजारी-दसहजारी नोटक ओतेक महत हुनका-ले नै छैन
जेतेक महत खुदरा पाइक छैन। होइते अहिना छै किने जे पाँच रूपैआक काजमे पँचटकही बेसी
नीक। तैठाम जँ देबालकेँ दसहजारी देबइ, तँ ओ मने-मन गारि
पढ़बे करत किने जे ‘नबाबी देखबए एला हेन!’ तइमे एकटा आरो अछि, रूपैआ तँ लेन-देनक बीचक वौस छी।
काज तँ नहि। तैठाम जँ काजक समयकेँ रूपैये गनैमे नष्ट करब तँ अधला भेबे कएल किने। ओना, पँचहजारी-दसहजारी इज्जतखोर अछि सेहो बात नहि। जखन सोना-चानीक दोकानपर
जाएब आ पँचटकही नोट देबै तँ ओहो तँ गारि सुनेबे करत किने जे ‘एला हेन हाथी किनैले आ संगमे छैन बकड़िया पाइ!’ खाएर
जे अछि से अछि। अपन-अपन दुनियाँ आ अपन-अपन जग-जहान तँ सभकेँ अपन-अपन अछिए। एते तँ
मनुख भेने अजादी भेटले अछि किने जे ‘कोइ काहू मगन, कोइ काहू मगन, जे जेहेन मगन से तेहेन पेबन!’
सूर्यास्तक समय। लक्षणसँ
प्रेमानन्द बाबाकेँ बुझि पड़लैन जे परिवारमे एके बेकती एहेन अछि जे पाइ निकालैए...।
मने-मन धपा कऽ ओकरा सोर पाड़लैन-
“सुशील, कनी सुनिहह।”
ओना, प्रेमानन्द
बाबाक परिवारक सभ-कियो आज्ञाकारी छैन्हे।
बाबाक लगमे आबि सुशील
बाजल-
“की कहलौं, बाबा?”
प्रेमानन्द बाबाक
सोझा अबैसँ पहिने सुशीलक जाँघ थरथराए लगल जे प्रेमानन्द बाबा आँकि नेने छला। मुदा
मनमे पानिक बुलबुला जकाँ उठिये रहल छेलैन जे सुशील अखन हाइ स्कूलक बच्चा छी, परिवेश एहेन
बनि गेल अछि जे हाइ-स्कूलक नबे-सँ-पनचानबे प्रतिशत बच्चा नशाक लतसँ प्रभावित भऽ
रहल अछि, भलेँ ओ चौकलेटेक रूपमे किएक ने होइत होउ। लत तँ लत
छी। एहेन परिस्थितिमे एकटा बाल मनकेँ दुतकारब वा चोरीक कलंक लगा चोर कहब, सेहो उचित नहि। किएक तँ जँ कियो तेसर सुनि लिअए आ भविसमे कहियो यएह बात ओकरा
उनटा कऽ कहि दइ जे ‘तूँ चोर छँह’, तखन
ओ धब्बा जकाँ ने बनि जाएत! जबकि अखन ओ उदीयमान सुर्ज सदृश
अछि। जँ ओकरा गहन[10] जकाँ गरैस लेल
जाइ से केहेन हएत? ओ तँ सँपाएल गहुमनक वृत्ति हएत..! मुदा बिनु किछु कहने छोड़ियो देब तँ उचित नहियेँ हएत।
मन खोलि कऽ
प्रेमानन्द बाबा बजला-
“बौआ, औझुका काज-ले पाँचटा रूपैआ रखने छेलौं, से नइ देखै
छी..!”
सुशील-
“हम लेलौं।”
साफ धारमे जहिना
पाइनो साफ होइत सफा बनि बहैत चलैए तहिना पोताक गढ़पनकेँ गढ़ैत बाबा बजला-
“बौआ, दुनियाँमे सभकथूक इज्जतो अछि आ बेइजती सेहो अछि। मानो अछि आ अपमानो अछि।”
बाबाक बात सुनि सुशील
कान ठाढ़ करैत बाजल-
“से की, बाबा?”
प्रेमानन्द बाबा
बजला-
“आम तँ नीक फल
छी, दुनियाँ जनैए मुदा जँ कियो पीलुआहा आकि खटहा आमक गाछ
रोपि बाग लगौत तँ ओ केहेन हएत?”
बाबाक विचारकेँ सुनि सुशील
मने-मन अँटकारए लगल जे बाबा कि कहलैन। आम तँ फल छी, तहूमे मीठ फल छी। जँ कम मीठका
फल रहैत, जेना खीरा- तँ दोसर परिस्थिति बनैत से नहि, आमक गिनती उच्च कोटिक मीठ फलमे अछि। तैठाम मीठक बदला चुनेखट्टा आ अमृत सन
भोज्य पदार्थमे उज्जर-उज्जर सोहरी लागल पील भेटए से, केहेन
हएत..?
सुशील बाजल-
“ओ ते केहनो ने
हएत।”
सुशील जे बुझि बाजल
हुअए, मुदा प्रेमानन्द बाबाकेँ बुझि पड़लैन जे कनियेँ चोटसँ तबला स्वर पकैड़
लेलक! खुशी होइत प्रेमानन्द बाबाक मनमे जे गामक लोक वा दोसर
परिवारकेँ नहि बुझए देब, मुदा अपन जे परिवार अछि तैबीच
सुशीलक आचरणसँ सभकेँ परिचय करा दिऐ जइसँ चारू दिससँ सबहक नजैर सुशीलपर पड़त। जखने
चारि दिसक चारिटा आँखिक बीच सुशीलक आचरणपर पड़त तखने ओ सुधैर कऽ सोझ भऽ जाएत। मुदा
लगले विचारकेँ मनक दोसर विचार रोकि कहलैन जे अखन तँ प्रश्न दुइये गोरेक बीच अछि, मुदा जखने दू-सँ-तीन वा चारिक बीच जाएत तखने चारि रंगक
भाव-कुभावक उदय सेहो हएत। भलेँ ओ परिवारेक लोक किए ने हुअए। आ जखने चारि रंगक भाव-कुभाव
एकठाम हएत, तखने बाबा-पोताक बीचक जे सम्बन्ध सूत्र अछि ओइमे
किछु-ने-किछु अतिक्रमण हएत। जखन प्रश्ने नान्हिटा अछि,
नान्हिटा ऐ दुआरे जे एक दिस प्रेमानन्द बाबा सन प्रेम पद पौनिहार तँ दोसर दिस हाइ
स्कूलक बच्चा सुशीलकेँ कुशीलसँ विरक्त कऽ सुशील बनाएब अछि। दू गोरेक बीचक विचार
छी। तहूमे सुशीलक बालपनक बालमन अछि। तँए ओकरा मनकेँ एतेक नइ झमारि दिअए जे
अल्मुनियमक तार जकाँ रेगहा पड़ि जाइ जैठामसँ कखनो टुटि जाए..!
प्रेमानन्द बाबा
बजला-
“केहनोक माने
की भेल बौआ?”
सुशील बाजल-
“ने नीके आ ने
अधले।”
प्रेमानन्द बाबा बजला-
“बाह! खूब कहलह!”
जहिना झँपाएल सुर्ज
रहने दिनक अन्हारमे कियो डिबिया बाड़ि घरमे कोनो काज करैत हुअए आ एकाएक जँ सुर्ज
उगि फरिच कऽ दैत जइसँ डिबियाक ज्योति मलिन भऽ जाइत तहिना सुशीलकेँ भेल।
सुशीलक विदीर्ण होइत
मलिनाएल चेहरा देख प्रेमानन्द बाबा अपन शान्त चित्तकेँ प्रशान्त चित्तमे बदैल
बजला-
“बौआ, अखन तोरा दुनियाँमे आएले केते दिन भेलह। तँए अखन दुनियाँक तहियाएल तहकेँ
नीक जकाँ नइ बुझि पेबहक। मुदा तैयो कहै छिअ।”
बाबाक ‘कहै छिअ’ सुनि सुशील हरिणक बच्चा जकाँ आँखि-कान दुनू ठाढ़ करैत बाजल-
“केना बुझबै?”
सुशीलक प्रश्नमे बुझैक
जिज्ञासा देख प्रेमानन्द बाबा बिहुसैत बजला-
“बौआ, आमक गाछी तीन रंगक होइए, एकटा भेल मीठहा आमक गाछी, दोसर भेल पीलुआहा वा खटहा आमक गाछी आ तेसर भेल दुनूक बीचक मिलल-जुलल
गाछी। जइमे खटहा-मीठहा दुनू रहैए।”
प्रेमानन्द बाबाक
विचार सुनिते सुशीलक मनक तृष्णामे जेना एकाएक तृप्ति जागए लगलै। जइसँ बुझैक
जिज्ञासा आरो तेज हुअ लगलै। बाजल-
“तखन तँ खटहा
आम आकि पीलुआहा आमक गाछीक कोनो मोल नइ भेल?”
प्रेमानन्द बाबा
बजला-
“बौआ, जइ दुआरे तोरा शोर पाड़ने छेलियह से कहब तर पड़ि गेल अछि, तँए पहिने ओ कहब जरूरी अछि, मुदा जखन बीचमे दोसर
प्रश्न उठा देलह तँ पहिने वएह कहि दइ छिअ। जहिना मीठ आमक गुण पकलापर अबैए, तहिना खटहो आ पीलुओहोक गुण अन्तिमे अवस्थामे अबैए। तइसँ पहिने दुनूक एके
रंग गाछो, पातो होइए आ पकैसँ पूर्व अवस्था तक दुनूक काजो आ
गुणो एके रंग रहैए। तँए ओइसँ पहिने, माने पकैसँ पूर्व दुनूक
काजो एके रंग होइए। माने ई जे जहिना लकड़ीक चीज-वौस, तहिना
आमक चटनी-अँचार...। मुदा जे फलक फल छी तइमे अन्तर आबिये जाइए। अखन एकरा एतै छोड़ह।
दोसर दिन नीक जकाँ सभ बात बुझा देबह।”
‘दोसर दिन सभ
बात बुझा देबह’ सुनि सुशीलक जिज्ञासामे मिसियो भरि कमी नइ
आएल। मन ओहिना उत्फुल रहल जहिना तत्काल बुझैले जागल। होइतो अहिना छै जे कोनो
बात-विचार आकि कोनो वस्तुए-जात तत्काल भेटने आकि कनी ठहरियो कऽ भेटलासँ मनमे ओहन
निराशा नइ अबै छै जे नहियेँ भेटत। भेटैक आशा बनले रहै छइ।
सुशील बाजल-
“बड़बढ़ियाँ।”
सुशीलक मुहसँ ‘बड़बढ़ियाँ’ सुनि प्रेमानन्द बाबा बजला-
“बौआ, जहिना आम आ आमक बागक इज्जत अछि तहिना दुनियाँमे सभ कथुक अछि।”
ओना सुशील अखन तक
इज्जतक सम्बन्ध सिर्फ मनुखेटा सँ बुझैत रहए मुदा ‘सभ कथु’
सुनि मनमे नव जिज्ञासाक संचार भेलइ। बाजल-
“से की बाबा?”
सुशीलक प्रश्न सुनि
प्रेमानन्द बाबा मने-मन विचारलैन जे अखन सुशील बाल-बोध अछि तँए ओहन विचार राखब नीक
नहि, जइसँ ओ अकबका जाए वा बुझबे ने करए। किएक तँ फलो-फलमे अन्तर अछिए। जहिना
कुफल-कुफलमे आ कुफल-सुफलमे अन्तर अछि। दुनूकेँ जँ सींगसँ नाँगैर तक माने आदिसँ
अन्त तक निहारब तँ ओहिना ‘सींग-नङरिया’
कहियौ आकि ‘नङरिया-सींग’ कहियो, भेटबे करत। जहिना नख-सिख वर्णन आ सिख-नख वर्णनमे नायिकाकेँ भेटैए। खाएर
जे भेटैए, जेतए भेटैए आ जेकरा-ले भेटैए से जानए। ऐठाम तँ
पोता-बाबाक बीचक बेवहारिक जिनगीक सम्बन्ध अछि। तँए जँ नीक जकाँ नइ बुझा देबै तखन
बुझबैक मतलबे की रहल। तँए, ओतेक जरूर बुझा देबै जेतेसँ ओ
अपने विचारि कऽ फल-कुफल बुझए लगत। जखन हंस सन पक्षी दूध-पानि बेरा सकैए, काग भुसुण्डी सन कौआ दुनियाँक सत्य-असत्य बुझि सकैए तखन तँ सुशील मनुखक
बच्चा छी। एकरा बुझैमे देरीए केते लागत। तखन तँ यएह ने भेल जे खेत तँ अन्नेक छी
मुदा अखन जोत-कोरक अभावमे परती बनल अछि। तँए कनी ओइ रूपे बुझबए पड़त। मुदा ईहो तँ
सत्य ऐछे जे ने पचास बर्खक मनुखक बुधिक सक्कत परती जकाँ अखन सुशीलक बुधि अछि, आ ने पेटक बच्चा सदृश पानिमे पनियाएल खेत जकाँ अछि। ई दीगर भेल जे माटिक
परतीक कोन बात जे पत्थरोसँ पथराएल पहाड़पर सेहो गाछ-बिरीछ उगिते अछि, भलेँ ओइपर केसर-किसमिसक उपज नइ होइत होइ। तहिना पानियोँमे रंग-रंगक उपजा
सम्भव नइ अछि सेहो नहियेँ कहल जा सकैए। खाएर किछु अछि, मुदा सुशील
तँ चौदह बर्खक बच्चा मनुखक छीहे। भगवान राम चौदहे बर्खक बीचमे पिताक मृत्युक संग
अयोध्या छोड़ैसँ लऽ कऽ लंकाक रावणकेँ मारि लंकाकेँ जरबैत जरल लंकाक लंकापति
विभीषणकेँ बना अपने अयोध्याक राजा बनला। सुशील तँ सहजे सुशील छी। धरतीपर एला
पछातियो केतेको रोग शरीरमे घुसि कऽ पकड़ैए आ धरतीपर अबैसँ पहिने सेहो केतेकेँ
पेटेमे पकड़ैए। मुदा ऐठाम तँ सुशील से नहि अछि। बाहरी परिवेशक हवामे रोगाएल अछि, जेकरा मौसमी रोग कहल जा सकैए। तँए ओहने प्रतिकार करब ने नीक हएत जइसँ
सुशील पुन: ओ सुशील बनि जाए, जे गलत आचरणसँ पूर्व छल...।
प्रेमानन्द बाबाक मन
बिहुसि उठलैन। मुस्की भरैत सुशील दिस तकला। जहिना विद्यालयमे गुरु-शिष्यक बीचक तार
एकसूत्रमे आबि जाइए तहिना प्रेमानन्द बाबाकेँ बुझि पड़लैन। ओना, जेहेन अपन
मुस्कान भरल मनक मुँह रहैन तेहेन सुशीलक नहि छल, जेकरा ओ भाँपि
लेलैन। सुशीलक जिज्ञासु चेहराक उदसपन सुरखीमे प्रेमानन्द बाबाकेँ अनुकूल आवरण बुझि
पड़लैन। बजला-
“बौआ सुशील! दुनियाँमे सभ किछुकेँ जेते इज्जतो अछि आ इज्जतक बाटो अछि तहिना तेते
बेइज्जतीक सेहो अछिए, तँए एहेन जे जिनगीक धार अछि तेकरा
बीचे-बीच चलब सीखह।”
ओना हरियाएल चास जकाँ
सुशीलक मन सेहो हरिया चुकल छल, मुदा हरियाएलो चासमे ओहन बीजकेँ औंकुरब कठिन ऐछे
जे माटिक तहक बीच औंकुरैक शक्ति रखने अछि।
हिया हारि सुशील
बाजल-
“बाबा, बाल पोथीक बोलमे कनी नीक जकाँ बुझा दिअ।”
प्रेमानन्द बाबा
बजला-
“बौआ, अँगनामे दादी-मुहेँ सुनैत हेबह जे अपना पुतोहुकेँ कहैत रहै छथुन- जे ने
तूँ जारन-काठीक इज्जत बुझै छह आ ने थारी-लोटाक, ने
कपड़ा-लत्ताकेँ सेखीसँ रखि इज्जत दइ छहक आ ने घर-दुआरक सेखी रखने छह।”
प्रेमानन्द बाबाक बात
सुनि सुशील ठठा कऽ तँ नहि हँसल, मुदा मुँह खोलि भभा कऽ जरूर हँसल। हँसैत बाजल-
“हँ, से तँ दादीक मुहेँ बरमहल सुनैत रहै छी।”
प्रेमानन्द बाबा
बजला-
“ओकर सीमा-सरहद
सेहो बुझि लएह आ सोचहक। जहिया तक पुतोहुकेँ माने तोरा माएकेँ, जारन-काठी जोगबैक आ थारी-लोटा रखैक समुचित बोध नहि हेतैन ताधैर ई बात
सासु कहबे करतैन किने?”
जहिना धाराक धार पेब
पोखैरो-झाँखैरक आ खेतो-पथारक जमकल पानि गतिशील भऽ जाइए तहिना सुशीलोक मनक गति
गतिशील भेल। बाजल-
“हँ, से तँ उचिते किने।”
सुशीलक प्रवाहित होइत
विचारक धार देख प्रेमानन्द बाबा आँकि लेलैन जे आब सुशीलक मन फरीच भऽ गेल छै तँए जे
पुछबै आकि कहबै ओ हरे-हरे-कऽ सभटा बुझि जाएत। प्रेमानन्द बाबा बजला-
“टेबुलपर राखल
पाइ तूँ लेलह?”
बाबाक बात सुनि सुशील
गुम भऽ गेल। होइतो अहिना छै जखन चोर-मोट एकठाम होइए। ओना सुशीलक मुहसँ किछु ने
निकलल, मुदा मनमे विषाद जरूर जागि गेलै जइसँ मुँहक सुरखी बदैल गेल।
सुशीलक मुँहक रूप देख
प्रेमानन्द बाबा बजला-
“गुम नइ हुअ।
ईहो एकटा रोगाएल मनुखक लक्षण भेल। ओकरा मथि-मथि माथक मथानीसँ जरूर निकालि ली। जइसँ
ओ रोग निरकटौवैल भऽ छुटि जाए।”
सुशील बाजल-
“हँ, छह-सात दिनसँ एक-एकटा पँचटकही लइत एलौं हेन।”
सुशीलक बात सुनि
प्रेमानन्द बाबा बजला-
“जहिना दादीबला
विचार सुनलह तहिना पाइयोक इज्जतो अछि बेइज्जती सेहो अछिए।”
ओना बाबाक विचार
सुशीलक हृदयकेँ बेधैत बैस रहल छल तँए कोनो तेहेन कम्पन्न बाबाकेँ नहि बुझि पड़लैन।
बजला-
“पाइक जे
समुचित काज अछि, जँ ओइमे ओ लगौल जाएत तँ ओकर इज्जत भेल। आ जँ
से नइ भेल तँ ओ दुइर होइत बेइज्जतीक कारण भेल। खाएर जे भेल से भेल, जखने जागी तखने परात।”
¦
शब्द संख्या : 1999, तिथि : 05 जनवरी 2018
सेहन्ता
भिनसुरका समय। ओना
घड़ीक सात बजि गेल मुदा ने सुर्ज भगवान अपन कुह फाड़ि उगि सकल छला आ ने दिनेक आभास
बुझि पड़ै छल। शीतलहरीक लपेट चलि रहल छल। पूस-माघ मासक बीचला आड़ि परक समय रहने
दुनू समगम छल। सात बजे शंकर काका अपन भिनसुरका कर्मसँ निवृत्त होइत, चाह-पान करैत
दरबज्जापर बैस परिवारजनक दुख-सुखक बात सुनबो करै छला आ ओकर निमरजनाक परियास सेहो
करै छला। परिवारे छी, सभकेँ अपन-अपन भुक्ति अपन-अपन मुक्ति-ले
रहिते अछि।
ओना शीतलहरी दुआरे
शंकर काकाकेँ ओछाइन छोड़ि उठैमे बिलम सेहो भेलैन आ ठण्ढक तेज आक्रमणसँ सेहो पछुआ
रहल छेलैन्हे। होइतो अहिना छै जे जँ प्राकृतिक मौसम अनुकूल रहल तँ अपनो मन मौसमक
अनुकूल भेल, जइसँ काजक अनुकूलता भेने समयक हिसाबसँ गति-विधि बढ़बे करैए, तहिना प्रतिकूल भेने सेहो घट-घटाव होइत घटबे करैए। पैखाना जाइसँ पहिने
तमाकुल चुना शंकर काका ठोरमे लइते छला कि पवित्री काकी लगमे आबि कहलकैन-
“बहुत दिनसँ
मनमे एकटा बात औनाइत चलि आबि रहल अछि से पुछैक ने तेहेन गरपर अहीं चढ़ै छेलौं आ ने
अपने तेहेन गर लगै छल, तँए मुँह झाड़ि कहियो किछु ने कहि भेल, से..?”
ओना, शीतलहरीक
झटका शंकार कक्काक देहक संग मनकेँ शान्त-शीतल केनहि छेलैन तैपर पत्नीक सुवचन सुनि
आरो शान्तराम भऽ गेलैन। बजला-
“एकटा किए, जेतेक छुटलाहा बात अछि सेहो आ आगुओक हजारटा बात पुछि लिअ।”
ओना, शंकर काका
पवित्री काकीक विचारकेँ हलुकाएल[11]-फलुकाएल[12]
बुझि जिज्ञासा केलैन, मुदा गहिंराएल काजकेँ जँ हलुआएल बोलसँ
पुछल जाए तँ उत्तर देनिहारक मनमे धोप-चट हेबे करत किने। सएह शंकर काकाकेँ सेहो
भेलैन। ओना, शंकर काका जेहने काजक गहिंरगर तेहने विचारोक
छथिये, मुदा अखन पत्नीक प्रश्नकेँ ऊपरे मने लेलैन।
पतिक विचार सुनि
पवित्री काकी औनाए लगली। औना ई लगली जे पैछला छुटलाहासँ ऐगला धरिक हजार बात कहैले कहलैन।
मुदा ऐगला हजार कि लाखो-करोड़ो बात-विचार जे अछि ओहो तँ छुटले अछि। तखन तँ यएह ने
भेल जे पाछूसँ आगू धरिक सभटा छुटले अछि। जेतए एहेन छुटलाहा बात-विचारक बोन-झाड़
अछि तेतए की पुछबैन आ की नइ पुछबैन..?
पवित्री काकी अगदिगमे
पड़ि गेली। मुदा अगदिममे रहली नहि, एकाएक सचेत भेली। सचेत ई भेली जे जखन
दुनियेँ छी, जइमे रंग-रंगक हजारो-लाखो गाछ-बिरीछ अछि, हजारो-लाखो जीव-जन्तुक संग हजारो-लाखो बीघामे पानियोँ अछिए..! असगरे केते उपछब..! मुदा थकथकाएल मनकेँ एकाएक थीर
करैत पवित्री काकी बजली-
“जहिना सभ दिन
एके सिरहन्ने रहलौं तहिना आगूओ सभ दिन एके सिरमे जरन-मरन केना हएत? सएह सिहन्ता मनमे तही दिनसँ औनाइए जइ दिन दुनू गोरे एक मरबापर बैस जिनगीक
संगी बनलौं।”
ओना, पवित्री
काकीक विचारमे जे रहल होनि मुदा तैपर धियान नहि अँटका शंकर काका फुसियारि पत्नीक
फुसियाह पति बनि फुसियबैत बजला-
“ई तँ अहाँ
हमरे मनक बात बजलौं! हमहूँ की ऐसँ हटल छी।”
शंकर कक्काक विचारक
चपचपीमे पवित्री काकी चपचपा गेली मुदा मन ओइ चपचपीकेँ कबुल नहि केलकैन। मनमे उठलैन
जे पुछलयैन किछु आ बजला किछु। तहुमे तेहेन बात बजला जेकर कोनो लागि-भागि विचारसँ
अछिए नहि! ओना, हमरा हिसाबे तँ हिनकर प्रश्नोत्तरीक समय छिऐन, मुदा शीतलहरीक जे रूप अछि ओइमे धरतीसँ अकास धरि चपेटाइये गेल अछि, भरिसक हिनको मन तही कन-कनीमे कन-कना गेल छैन। आ तँए जनु हीय सेहो काँपि
रहल छैन, मुदा हमरासँ छिपा रहल छैथ। जँ से नहि तँ किए
जीवन-संगी रहितो बाल-बोध जकाँ फुसिया रहला अछि?
बाल-बोधक फुसियाएब
मनमे अबिते पवित्री काकी तरंगित होइत मन तरैंग गेलैन। बजली-
“दिल्लीक लड्डु
जकाँ फुसियाउ जुनि। अपनो आँखि देखैए जे अखने ओछाइन छोड़लौं हेन, भिनसरू पहरक नित्य-क्रिया सेहो पछुआएले अछि।”
पत्नीक चोटाएल बात
सुनि शंकर कक्काक मन चटकलैन। चटैकते बजला-
“भोरे-भोर एना
किए आगियाएल छी। पहिने ऐ आगिकेँ चुल्हिमे पजाइर चाह बनौने आउ। ताबे हमहूँ
मुँह-कानमे पानि लऽ लइ छी।”
पतिक आश्वासन पेब
पवित्री काकीक मन मानि गेलैन जे अखन जेहेन शीतलहरीक सरदी पसरल अछि तइमे केकरो
विचार सरदीसँ सरदिया जा सकैए मुदा जिनगी तँ से नहि छी, तहूमे
पति-पत्नीक बीचक जीवन छी। पुरुखे ने ई बात बुझता जे बाल-बच्चा सेहो माइयक दू-चारि
बर्ख उमेर खाइते अछि, तँए दू-चारि-पाँच साल कम उमेरक कन्याक
संग बिआह होइए जे दुनू हिसाब माइनस-प्लस करैत एक रंग भेल,
तँए जहिना एक सिरहन्ने जीवन गुदस होइए तहिना ने अन्तो-अन्त तक हेबा चाही।
एक तँ पूस-माघ मासक
नमहरका राति, कोनो बैशाख-जेठक राति नहि। जइसँ मन अरामक अभावमे हराम जकाँ करत। आइ जँ
बैशाख जेठक समय रहैत तँ थोड़-थाड़ मानलो जा सकै छल, मुदा से
तँ अछि नहि।
ओना, पवित्री
काकीक विचार शंकर कक्काक मनमे तेना घुरिया-फिरिया लगलैन जे तमाकुल खेने छला पैखाना
जाइक खियालसँ मुदा से बिसैर पत्नीयेँक गपमे अँटकल रहि गेला। थोड़ेकालक पछाइत जखन पत्नीक
चाह मन पड़लैन कि हाँइ-हाँइ कऽ दतमैनसँ चारि घूसा दाँतमे लगा, जीहकेँ जीभियासँ जीभिया, कुर्ड़ा करि पानि पीब एला।
तैबीच पवित्री काकी सेहो चाह नेने पहुँच चुकल छेली।
एक घोँट चाह पीब शंकर
काका बजला-
“हमरा होइ छल
जे आइ करूआएल मने करूआएल चाह बना पीआएब मुदा से नहि, बड़ निम्मन
चाह अछि!”
पतिक बातपर पवित्री
काकी ओते धियान नइ देली जइ हिसाबसँ शंकर काका बाजल छला। किएक तँ अपन ओहन प्रश्न
पवित्री काकीक मनकेँ घेरि नेने छेलैन जे केम्हरो तकैये ने दैत रहैन। चोट्टे आँगन जा
पवित्री काकी अपनो चाह पीली। चाह पीब अपन विचारक प्रश्नकेँ ओरियौने पुन: दरबज्जापर
पहुँचली। तैबीच शंकरो काका चाह पीब पान खा दरबज्जाक ओसारक चौकीपर देवाल लगा ओङ्गैठ
बैस चुकल छला।
आगूमे बैस पवित्री
काकी बजली-
“चाहो पीलौं, पानो खेलौं तैसंग भिनसुरका क्रिया-कर्मसँ निवृत्त सेहो भाइये गेल छी तँए
आब..?”
आगूक बात पवित्री
काकीक पेटेमे रहैन कि तइ बिच्चेमे मुँहक बात छिनैत शंकर काका बजला-
“हँ-हँ, से तँ भाइये गेलौं। आब कहू जे अहाँ की पुछने
छेलौं।”
शंकर कक्काक समगम मन
देख पवित्री काकी बजली-
“यएह ने कहने
छेलौं जे जहिना बिआहक मरबापर जे जीवन-संगिनी बनलौं ओ जरन-मरन धरि बनल रही।”
पवित्री काकीक
प्रश्नमे केतौ खोंच-खाँच नहि देख शंकर काका बजला-
“से तँ अपनो
विचार अछि। होइतो अहिना छै ने जे पतिक मृत्यु अपना औरुदे भेल आ अछैते औरुदे पत्नी
अछियामे शरीरान्त कऽ संगी बनि मृत्यभुवनमे ओहिना रहै छैथ जहिना जीवितमे एक
बात-विचारक संग मर्तभुवनमे रहै छैथ, तइमे भेद-भाव की बुझि
पड़ैए?”
जहिना न्यायालयमे
वकील, ऑपरेशन थियेटरमे डॉक्टर आ क्लासमे शिक्षक अपन पूर्ण तैयारीक संग जाइ छैथ
तहिना पवित्री काकी पतिक संग सबाल-जवाब करैले तैयार छेली जे जे प्रश्न उठत ओकर
जवाब देब। बजली-
“कहलौं ते
बड़बढ़ियाँ जे अपना ऐठाम पतिक अछियामे हवन करैत पत्नी अपन सतीत्व निमाहै छेली, मुदा ओहन प्रथा तँ किछु परिवार विशेषक छल सौंसे समाजक नहि। जइमे अपना
सबहक परिवार तँ नहियेँ छल तखन केना हएत?”
पत्नीक विचार सुनि
शंकर कक्काक मन चनकलैन। अपन विचारकेँ अपना सोझहेमे हत्या होइत देखलैन। ओना, शंकर काकाक
जिनगीक सोचक आगूमे पवित्री काकी हल्लुक छेली, मुदा प्रश्नोक
तँ अपन वजन होइए, तइमे पवित्री काकी सिरचढ़ भऽ गेल छेली। अपन
मान सतीत्वक विचारकेँ शंकर काका ओतइ चोपैत कऽ मनमे समेट लेला आ जहिना कोनो गाममे
बहैत धारकेँ गौंआँ सभ अपन गामक धार बुझै छैथ मुदा ओही गौंआँमे किछु एहनो पारखी लोक
तँ छथिये जे धारकेँ जड़िसँ पकैड़–माने जेतए-सँ धारा बनि धार चलैए तेतैसँ–पकड़ने-पकड़ने
अपन गामक धार देखैत आगू केना-केना बढ़ैत समुद्रमे मिलैए तेतए तकक खोज करैत वीण
बजबै छैथ, तहिना शंकर काका अपन वीणकेँ वाणीपर चढ़बैसँ पहिने
अपन बेनु बनक तार जोड़ि लेला।
जखने बेनु बनक वीणाक
तार शंकर कक्काक वाणीसँ जुड़ए लगलैन कि हिया हारि मन गबाही देलकैन जे यएह समाज छी, जइमे एक-एक
पुरुख दोहरी-तेहरीक कोन बात जे दर्जनक दर्जन, सोरेक-सोरे
बिआहो करै छैथ आ बिनु बिआहोक नारीक संग अपन भोग-पिपाशु मनकेँ तृप्ति सेहो करै छैथ
आ सोरैहिया जीव जकाँ धियो-पुतो जनमैबते छैथ। मुदा तहीठाम नारीक लेल एहेन छूट अछि? नहि! हुनका संग प्रतिबन्ध लगल छैन! तेतबे नहि, जँ पुरुख (पति) झगड़ा-झंझट केने संग छोड़ि
दैन आकि अपने कोनो कारणे मरि गेला तँ ओ दोसर पुखक संगो नहि पकैड़ सकै छैथ! मुदा लगले शंकर कक्काक मनक कोढ़ी ओहिना फुटि गेलैन जहिना फूलक कोढ़ी अपन मुँह
फोड़ि रंग-रंगक फूल प्रदर्शित करैए। मनमे उठलैन- एहनो प्रथा
तँ किछु परिवारे विशेषक अछि, सौंसे समाजमे–माने समाजक सभ
परिवारमे–नहि अछि। अपन चारू कातक घेराएल बाट देख शंकर काका बजला-
“अच्छा, ई कहू जे एहेन प्रश्न मनमे किए उठल जे दुनू प्राणी सभ दिन एक सिरहन्ने..?”
पर्वत सदृश्य अपन
नारीत्वक प्रश्न उठा शंकर कक्काक दिशाक बाटपर[13]
रखैत पवित्री काकी बजली-
“जँ पुरुख बिनु
नारीक असगरो दुनियाँमे जीब सकत आ अपन अस्तित्व रखि सकत, जे
कि अपन पुरुषत्वक विचार कबुलने अछिए, तैठाम पुरुख अपने किए
ने पत्नीक मृत्युक पछाइत ओहन व्रत अपनो-ले बना निमाहि रहल अछि?”
पवित्री काकीक
सुबुद्ध मनक सुशील विचार सुनिते शंकर काकाकेँ पत्नियेक विचारमे नुकाएल एकटा गर
भेटलैन। गर ई भेटलैन जे पुरुषोमे एहेन पुरुषवान पुरुष नइ भेला आकि नहियेँ छैथ सेहो
केना मानि लेबैन। एहनो-एहनो वीर पुंगव पुरुष भेबे कएल छैथ, अखनो
अनेकानेक छथिए जे अपनाकेँ ओही दिशामे बढ़ैबतो जाइये रहला अछि। एक-सँ-एक एहेन वीर
पुंगव पुरुखक प्राचीन धारा बहिये रहल अछि आ अनवरत बहितो रहबे करत। तखन तँ ईहो
नहियेँ नकारल जा सकैए जे समुद्र रूपी समाजमे सेहो ओहिना लहरियो उठैए आ ज्वारो
उठिते अछि, जइसँ पुरान डेंगी नाह सेहो डगमगेबे करैए। ‘गहरी नदिया नाव पुरानी...!’ तँए ओइ नाहकेँ समुद्र
रूपी समाजक एक किनारसँ दोसर किनार पहुँचैक शक्ति नइ अछि,
सेहो नहियेँ कहल जा सकैए...।
विचारक दौड़मे शंकर
काका मने-मन दहा-भँसिया रहल छला, जइसँ जहिना कोनो तेज हवा वा विर्रोमे धरतीक कोनो
खढ़-पात–जीअल वा मुइल–धरतीसँ उड़ि अकास छुबि लइए आ जेना-जेना हवा आकि विर्रो कमैत
जाइए तेना-तेना धरतीपर पुन: आबि जाइए तहिना शंकरो काकाकेँ भेलैन। धरतीपर विचारकेँ
अबैत देख शंकर कक्काक मन ओहिना पसिझए लगलैन जहिना रौदमे वा आगिक तावमे पात सीझि कऽ
पसिझए लगैए। पसिझैत शंकर काका बजला-
“लऽ दऽ कऽ दू
प्राणी भेलौं, तखन एते चिन्ते किए मनमे रोपल अछि, जे एना हएत तँ ई दुख हएत, ओना हएत तँ उ दुख हएत आकि
सुखे हएत! तइले मन किए डराइए? जखन दुनू
प्राणी मनुखेक वंशक छी तखन किए कोनो चिन्ता करै छी। जँ मनुख वंशसँ देववंशमे नहि
पहुँचब तँ जानवरे वंशमे किए जाएब।”
ओना शंकर काका अपना
जनैत पवित्री काकीक मनकेँ भरल कोठीक चाउरकेँ निकालि जहिना गृहिणी रौदमे
सुखबै-फटकैकाल हाथसँ तर-ऊपर करै छैथ तहिना सेहो करए चाहलैन मुदा पवित्री काकीक
कड़ुआएल मन एकाएक शान्त नइ भेलैन। ओना, किछु मद्धिम जरूर भेलैन। बजली-
“पैछला जिनगी
ने गपे-सप्पमे कटि गेल, मुदा ऐगला तँ भारी अछिए?”
ओना अपना जनैत
पवित्री काकी ठिकिया कऽ प्रश्न रूपी ढेप गाछक पाकल आमपर फेकने छेली। जे शंकर काका
अपन मन रूपी फलमे लगैसँ पहिनहि बुझि गेल छला। बजला-
“जहिना एक-एक
दिनक घटबीसँ जिनगीमे घटैत-घटैत एतए तक पहुँच गेलौं तहिना ऐगला जिनगीक ऐगला एक-एक
दिनकेँ घटबैढ़ करैत अहिना नीक जकाँ ऐगलो गमा लेब। तइले अनेरे जे एते चिन्ता-फिकिर
मनकेँ दबने अछि सएह भेल नारीक नरिपन। यएह जखन पुरुखपन बनए लगैए तखन हमर-अहाँक बीच
भेँट कमैए। देखै छिऐ! शीतलहरीक कूहि फटल जाइए, तँए ठंढमे दबल अकराएल देहक शक्तिकेँ बिनु रौदमे पकौने केना अंकरा छोड़ाएब।”
ओना बजैक क्रममे शंकर
काका अपन मनक बात उगललैन, मुदा मनक बात उगलला पछाइत जखन पेट खलिया गेलैन तखन पवित्री काकीक विचार
नव शिरासँ पेटमे औंकुरा दिअ लगलैन।
पत्नीक औंकुराइत
विचार देख शंकर कक्काक मनमे उठलैन- पत्नीक विचारकेँ जँ निरुत्तर करि मन सोल्होअना
हल्लुक नहि कऽ देबैन तँ हुनका मन-रोग भऽ जेतैन। तँए जेतेक शास्त्र-पुरानसँ लऽ कऽ
घर-अँगनाक विचार अछि ओ अपना ढंगे करबे नीक।
ऐठाम दूटा विचार शंकर
कक्काक मनकेँ घेरि लेलकैन। पहिल अपन परिवारक पत्नीक विचार आ दोसर समाजमे पसरल
विचार। समाजमे छोट-छोट जनसमूह बनि छोट-मोट काजक दौड़ शुरू कऽ रहल अछि, मुदा काजक स्तर–आमदनीक
हिसाबसँ–अपन जीवन स्तरसँ केतेक दूर अछि आ केतेक लग अछि से तँ अपने ने विचारए पड़त।
एहेन तँ नहि जे अपन मोबाइलोक रिचार्ज आ सरफो-साबुन उधारीए चलबए पड़त।
समाज दिससँ मन ससैर शंकर
कक्काक मन पवित्री काकी दिस बढ़लैन। आँखि उठा जखन पवित्री काकीपर देलखिन तँ बुझि
पड़लैन जे लाखो घैल पानि आँखिमे डबकल छैन। तँए जाबे अपन मनक भड़ाँस पत्नी अपने
मुहेँ नइ उगलती ताबे ओकर रस्ते की खोजल जाएत। मुस्की दैत शंकर काका बजला-
“ऐगला दिन जे
भारी बुझि पड़ैए, से किए? ने हमरे
डायबिटीज-बल्डप्रेशर अछि आ ने अहींकेँ अछि तखन भारी किए बुझि पड़ैए जे चिन्तासँ
घेराएल छी?”
शंकर कक्काक मुँहक ‘चिन्ता’ सुनि पवित्री काकीक मनमे निश्चिन्तता उठए लगलैन,
निश्चिन्त होइत बजली-
“अहाँ अछैत जँ
हमरा चिन्ता हुअए, यएह ने भेल हमर नदानी।”
नहलापर दहला आ बीबीपर
बादशाह फेकैत शंकर काका बजला-
“अही नदानीक
चलैत ने हमरो हाथ पकड़लौं आ हमहूँ हाथ पकैड़ कऽ अपना घर अनलौं। यएह घर ने गृहो बनत, निकेतनो बनत आ समय पेब भवनो बनत, सदनो बनत। तहिना
जखन मौसमक संग समय पकड़त तखन धामक संग मन्दिरो बनबे करत।”
पतिक विचारमे अपन सहमत
जतबैत पवित्री काकी बजली-
“जीते जिनगी ने
कियो किछु पेबो करैए आ लूटेबो करैए।”
¦
शब्द संख्या : 2014, तिथि : 11 जनवरी 2018
राक्षसक झड़
दर्जन भरि बच्चाक संग
गुरुजी क्लासमे क्लास लइ छला। ऐठाम गरुजी आ शिष्यक चर्च करब, किएक तँ
जहिना गुरुजी- अध्यापक, शिक्षक आ मास्टर भेल छैथ तहिना ने
विद्यालयो- पाठशाला, स्कूल आ कनभेन्ट सभ बनल अछि। ओना! संस्कृत-मैथली आ अंगरेजीक शब्द सभ छी मुदा से लोको मानए तखन ने। तँए, ई सभ शब्द पर्यायवाची भेल। खाएर जे भेल से भेल,
ऐठाम विद्यालय, गुरुजी आ शिष्यक प्रयोग करब तँए कोनो शंका
मनमे नइ रहए...।
गुरुजी भागवतक कथा
पढ़बैत कहै छेलखिन जे भागवत सन अनमोल रत्न जे कि कल्पवृक्ष वा कामधेनु सदृश्य अछि।
ई जानकारी तँ गामक बच्चा-बच्चा तककेँ अछि, जँ से नइ अछि तँ कहू जे कोन गाम अवंच
अछि जइ गाममे साले-साल वा सालमे दुइयो बेर- तीनियोँ बेर
भागवत-कथा व्यासजीक मुहेँ नइ होइए। आ जइ गाममे होइए तइ गाममे सौंसे ग्रामीणकेँ हकार
दए नहि सुनाएल जाइए आ विसर्जनक पछाइत भगवत-प्रसाद नहि पबै जाइ छैथ...। गुरुजी
भागवत कथाक ओइ अंशमे अंशदान कए रहल छला जइमे मनुख आ मनुखक झड़क चर्च अछि। बिच्चेमे
एकटा शिष्य गुरुजीक लगमे आबि अपन हाथक पाँचो आँगूर देखबैत कहलकैन-
“गुरुजी, पाँच मिनट..!”
ओना, गुरुजीक
ठेकानपर रहैन जे जखनसँ प्रवचन शुरू केलौं तखनसँ ऐ छौड़ाक पैशावक ई पाँचम खेप छी! मुदा भगवत कथाक बीच पेशावक शिकायत उचित नहि, तँए
आदेश दैत गुरुजी बजला-
“राक्षसक झड़
कहीं-के ने..! जेतए जाइ-के छौ जो..!”
बजैक क्रममे तँ
गुरुजी भागवत कथाक आवेगमे छला जेना कोनो धारक धाराकेँ होइ छै, तैठाम जँ
धारक धाराक बीचमे कोनो बाधा उपस्थित होइए तँ ओइठाम धाराक प्रवाह रूकि केम्हरो उफनए
लगैए जइसँ विचारक धारामे बेवधान उपस्थित भाइये जाइए सएह गुरुजीकेँ विचारक धारामे
भेलैन- ‘मनुखक झड़’क जगह ‘राक्षसक झड़’ कहा गेलैन। जहिना सीकपर राखल वस्तुकेँ
उतारिते सीक हिलए-डोलए लगैए तहिना गुरुजीक मन हिलए-डोलए लगलैन। हिलैत-डोलैतकाल सीक
जहिना दुनू दिस जाइए तहिना गुरुजीक मन सेहो दुनू दिस भेलैन। एक दिस मनमे उठलैन जे
भागवतक कथा सुना रहल छी, जैठाम देवते-राक्षसक चर्च चलि रहल
अछि, तैठाम तँ ईहो ने कहए पड़त जे भागवतक कोन खण्डक शब्द ‘राक्षसक झड़’ छी। किएक तँ दर्जनो भरि शिष्य दर्जन
भरि बुधि-विवेकक संग बैसल अछि। केकरा मनमे की उचैड़ रहल छै,
से जानब आसान थोड़े अछि..? हेहरू[14]
जकाँ गुरुजीक मन मलिन भेलैन मुदा लगले सीके जकाँ डोलैत गुरुजीक विचार ओइ छौड़ापर
चलि गेलैन जेकरा कहने छेलखिन। मियादि तरैंग गेलैन। तरैंते बुदबुदेला-
“तड़िपीबा जकाँ
ऐ छौड़ाकेँ खुच-खुची धेने छै जे पाँचम बेर ई बाधा उपस्थित केलक! एक बेर तँ उचिते भेल, किएक तँ जागलमे एक-पहर आ
सुतलमे दू-पहरपर पेशाव हेबेक चाही। तँए, चारि-पाँच घन्टाक
बेसारमे एक-बेर सोभाविक भेल, दुइयो बेर ठीक अछि। किएक तँ
जहिना गाइयो-गाइयोक दूध आ महिंसो-महींसक दूध मोट-पातर होइते अछि तहिना ने
लोको-लोकमे होइए। मुदा ऐ छौड़ाकेँ जे तड़िपीबा जकाँ खुचखुची धेने छै, से भरिसक हमर विचार बुझैमे नइ अबै छै तइ दुआरे खुचीखुची धेने छै आकि
झड़हा धान जकाँ अछि जे कोनो ठेकाने ने छइ!”
सीके जकाँ गुरुजीक मन
दोसर दिस हिललैन। हिलते मनमे उठलैन- ‘पेशावक खुचखुची तँ रोग छी!’
रोग मनमे अबिते
गुरुजीक विचार हुड़कलैन। हुड़ैकते मन बुदबुदेलैन- ‘रोगो तँ रोग छी! तँए रोग भोग नइ छी सेहो केना कहल जाए? केकरो तन रोग
होइ छै, केकरो मन रोग होइ छै आ केकरो धनरोग सेहो होइते छइ..!”
ओना गुरुजी मने-मन
विचारितो छला आ बुदबुदाइतो छला जे शिष्य सभ सेहो देखबो करै छेलैन आ सुनबो करै
छेलैन। विषयसँ विषयान्तर भाइये रहल छला। जहिना दुनियाँमे[15]
रंग-रंगक पानि, रंग-रंगक हवा, रंग-रंगक माटि,
रंग-रंगक आगि रहितो ओइ बीचमे रंग-रंगक गाछ-बिरीछ, रंग-रंगक
जीव-जन्तु आ रंग-रंगक मनुखकेँ रंग-रंगक बुधि-विवेक नइ रहैए सेहो नहियेँ कहल जा
सकैए...। फेर मन घुमलैन। घुमिते अपनापर एलैन। अखन हमहूँ ने गुरुजी छिऐ आ ईहो-सभ ने
शिष्य छी। काल्हि दिन हमहूँ शिष्य छेलौं आ काल्हि दिन ओहो सभ गुरुजी हएत। जँ दुनूक
बीच तादात्म रहत तँ व्यवधान किए हएत? दुनू गोरे ने बुझितिऐ
जे एक-बटिया जैठाम दू-बटियामे आ दू-बटिया जैठाम तीन-बटिया–चरि-बटियामे
मिलैए तैठामक मिलन-मोड़पर पेशाव-पैखानाक संग चाह-पान आ खाइ-पीबैक समय सेहो भेटैए..!
गुरुजीक मन फेर
घुमलैन। घुमिते मनमे उठलैन- मने ने मनकेँ पकैड़ काबू करत मुदा जेकर देह रोगाह छै
ओकरो तँ अपन हिसाब छइहे? फेर मन दोसर दिस छिटकलैन, छिटैकते ओइ छौड़ाक–माने
जइ शिष्यपर क्रोध छेलैन ओकर–परिवार दिस नजैर दौड़ गेलैन। नजैर दौड़ते मनमे उठलैन
जे गुरु-आश्रम जेबा-ले माने गुरुक सम्पर्कमे जेबा-ले परिवारक परिवेशो एकटा मूल कारण
तँ छिऐ। जँ नइ छिऐ तँ किए जैठाम माने जइ देशमे भिखमंगाक ढवाहि लागल अछि, आन्हर-लुल्हक हिसाबो ने अछि, तैठाम एकटा मेडिकल
विद्यार्थी-ले चालीस लाख रूपैआक खर्च केवल मेडिकलक चारि सालक कोर्स-ले अछि, बाँकी बाल-वर्गसँ कौलेज धरिक खर्च छोड़ि कऽ। जैठाम बाल वर्ग सेहो आब लाखक
खर्चक भऽ गेल अछि..?
गुरुजीक मन विषसँ
विषविषा बिसाइन-बिसाइन हुअ लगलैन। तही बीच एकटा शिष्य पुछि देलकैन-
“गुरुजी! ‘मनुखक झड़’, ‘धानक झड़’ आ ‘पानक झड़’ तँ सुनने छेलौं मुदा ‘राक्षकक झड़’ नइ सुनने छेलौं, से कनी खोलि कऽ कहियौ।”
शिष्यक प्रश्न सुनि
गुरुजीक मन ठमकलैन। ठमैकते निसाँस छुटलैन। निसाँस छुटैक माने ई भेल जे कोनो गम्भीर
विषयक बात बुझैमे जखन व्यग्र छी आ तखने जँ कोनो नव प्रश्न सोझामे आबि जाइए तँ ओही
गम्भीरतासँ ने ओकरा पकड़ल जाइए। तखन जे गहींरगर साँस चलैए, वएह भेल निसाँस।
तइले गुरुजीकेँ अनुकूल परिस्थिति भेटलैन। बजला-
“बौआ, बड़बढ़ियाँ बात पुछलह जे ‘राक्षसक झड़ की? मुदा पहिने ई कहि दाए जे ‘झड़’क माने की बुझै छहक?”
एकटा शिष्य ठाढ़ होइत
बाजल-
“वएह ने ‘झड़’ भेल गुरुजी, जे समय नहि
पकैड़ या तँ समयसँ पहिने झड़ि गेल वा फुलेमे फुलहैर गेल वा फड़लाक पछाइत फले फलहैर
गेल..?”
ओना, शिष्यक उत्तर
पेब गुरुजीक मनमे तोड़-जोड़ करैक विचार जगलैन मुदा अपन भारपनकेँ सम्हारैत चेतला।
जे बच्चा नव-नव रूपमे दुनियाँकेँ देखै जाइक विचार कऽ रहल अछि, तेकरा जँ सघन बोनक बीच लऽ जा कऽ वौआ दिऐ से उचित नहि।
मुस्की दैत गुरुजी
बजला-
“बौआ, महाभारत अछि कि रामायण अछि आकि गीते-भागवत अछि,
ओकरा पढ़ै-गुनै मनुख अछि मुदा सुनै-सीखैए राक्षसे-देवताक बात।”
दोसर शिष्य, जेकर बोल
टेंटियाहा सुग्गा जकाँ अछि, ओ बिच्चेमे टाँहि देलक-
“गुरुजी, रामायण लिखवैया तुलसी बाबा अपना जिनगीमे हारला कि जीतला से तँ रामायणे
कहै छैन, मुदा ‘गृह कारण नाना जंजाला’ कहि जइ दुनियाँकेँ छोड़ि ओ पड़ा गेला ओइ दुनियाँक लोक हुनका की बुझि की
कहतैन?”
जेना-जेना शिष्य
दिससँ प्रश्न उठैत रहल तेना-तेना गुरुजीक मन सेहो शान्तसँ शान्ताराम होइत, प्रशान्त भऽ
गेलैन। तैबीच पहिल शिष्य पुन: अपन दाबा पेश करैत बाजल-
“गुरुजी, हमर प्रश्न तर पड़ि गेल..!”
मुस्की दैत गुरुजी
बजला-
“नइ हौ बौआ, जहिना तूँ बुझै छहक जे हमर प्रश्नक नम्बर तर पड़ि रहल अछि तहिना सभ
प्रश्नकेँ एला पछाइत जँ एक्केबेर उनटा देबै तखन तरके ने सभसँ ऊपर चलि औत, तइले अन्देशा किए करै छह।”
बिहुसैत शिष्य बाजल-
“गुरुजी, अन्देशा किए हएत! जखन अहूँ जीबै छी आ हमहूँ जीबै छी
तखन औझुका जँ आइ नहियोँ हएत तँ काल्हि हएत सएह ने..?”
ओना, गुरुजीक मन
वौआए लगलैन। वौआए ई लगलैन जे तेहेन प्रश्न ई छौड़ा रखि देलक जे महाभारते जकाँ काट-मार
हएत। जँ कहबै जे ‘बौआ, घरो-परिवारमे आ
देशो-दुनियाँमे जे काज अखन नइ सम्भव अछि ओ काल्हि सम्भव हएत,
ऐगला पीढ़ी ओकरा नीक जकाँ सम्हारि-सुधारि आरो नीक बना करत...।’
मुदा लगले उनैट
गुरुजीक मनमे एलैन जे जँ ई कहबै- ‘बौआ, जिनगीक कोनो
ठेकान नहि, तँए जे काल्हि करबह तेकरा आइये करैले कबीर बाबा
कहने छैथ..!’
असमंजसमे गुरुजीक मन
पड़ि गेलैन। मुदा रच्छ रहलैन जे प्रशान्तचित्त रहने बुलबुला जकाँ मनमे उठलैन- ‘उच्च कोटिक विचार तँ वएह ने भेल जे कोनो घटना कि सुघटना आकि दुर्घटनाक
विचार जँ घटनेकाल सुझि जाए तँ ओ सुफल घटनाक कारण हएत..!
ओना, रंग-रंगक
विचारक बुलबुलो आ शिष्य सबहक सिरजन शक्तियो मिलि गुरुजीक मनकेँ घोर-मट्ठा करैत
रहैन। मुदा गुरुजी अपन मुँहक केबाड़क पट्टा तेतेक कसि कऽ मुँहमे लगा लेलैन जे मनक
बात मनेमे मुड़िया-मुड़िया मोइनिक पानि जकाँ चकभौर लिअ लगलैन। गुण भेल जे एकटा
दोसर छौड़ा बिच्चेमे कौआ जकाँ काँइ-काँइ केलक-
“गुरुजी, बुलनी दादी सदिकाल कहैत रहै छैथ जे ‘बौआ, गीता नइ पढ़ियह, बताह भऽ जेबह! घर छोड़ि अनेरे घुड़मुड़िया करए लगबह..!”
जहिना अझकमे कोनो
ईंटा वा पाथरक टुकड़ाक चोट माथमे लगिते समुच्चा शरीर झन-झना जाइए तहिना शिष्यक बात
सुनिते गुरुजीक सौंसे देह झुनझुना उठलैन। मुदा पाछू उनैट जखन रक्षा कवच दिस आँखि
तकला तँ बुझि पड़लैन जे जहिना कियो औगताएलमे किछु धड़फड़ाइत बाजि देलक तहिना ई
छोड़ा बाजल अछि। खाएर बाल-बोध अछि, कमसँ कम एते जिज्ञासा तँ भेलै जे अपना
गुरुजी लग अपन विचार खुलि कऽ रखलक। जखन विचार रखैक जगह मनमे बनतै तखने ने विचारशील
बनि काल्हि दिन देखत। अखन ओ किआँ-ने गेल जे कौओ एकटा जीव छी आ मनुखो एकटा जीव छी।
मुदा दुनूमे अन्तर नइ अछि सेहो नहियेँ कहल जा सकैए। विवेकशील मनुख अपन जिनगीक
जीबैक सभ कलासँ पूर्ण अछि, जे कौआमे नइ छइ। मुदा कार कौआकेँ, जेकरा बोलीकेँ अपशगुन मानि वएह सृष्टिकर्ता ने कागभुशुण्डी सन ज्ञानी-भक्त
सेहो सृजन केनहि छैथ..!
विद्यालयक
गहमा-गहमीमे कमी आएल। वातावरणमे शान्ति पसरल। सब-सबहक मुँह दिस देखए लगला। माने गुरुजी
शिष्य दिस आ शिष्य गुरुजीक मुँह दिस ताकए लागल...।
जहिना अस्त्र-शस्त्रक
संग रणभूमिमे रणी अपन रणभूमिक हाक हियाबए लगैए आकि अपन औजारक संग खेतमे पहुँच
किसान जहिना खेतक ताक हियाबए लगैए तहिना विद्यालयक वातावरण बनि गेल। एकदम्म शान्त! विद्यालयक
शान्त वातावरण बनिते गुरुजीक मन शान्त-सँ-प्रशान्त होइत प्रसन्न हुअ लगलैन। एकाएक बजला-
“बौआ, सभ कियो सुनि लएह! औझुका क्लासक विषयमे तीन मोड़ भऽ
गेल अछि। एक मोड़ भेल- हमर-तोहर बीचक माने गुरु-शिष्यक बीचक,
दोसर मोड़ भेल- शिष्य-गुरुक बीचक आ तेसर मोड़ भेल- शिष्य-शिष्यक बीचक। माने ई जे
किछु प्रश्न एहेन आएल जइसँ स्पष्ट भेल जे ओ शिष्य पढ़ने अछि तँए प्रश्न पुछलक। मुदा
ओही क्लासक आन शिष्य पढ़ने अछि कि नहि से केना बुझब?”
अपन प्रश्नकेँ टरैत
देख पहिल शिष्य बाजल-
“गुरुजी, जाबे काजक समय अछि, ताबे किछु कऽ लिअ।”
शिष्यक मनमे छेलै जे
जँ एको-आधोटा प्रश्नक निमरजना हएत तँ अपन प्रश्नक भाइये जाएत। जे गुरुजी बुझि गेला। बजला-
“बौआ, हदियेलासँ काज हरदिआनि भऽ जाइए। तँए! ओ केना हरिआइन
बनत ई तँ पहिनहि विचार करए पड़त किने। ताबे शॉर्ट-कटमे अखन कहि दइ छिअ, नीक जकाँ काल्हि कहबह।”
शिष्य बाजल-
“गुरुजी! भलेँ शॉर्ट-कटेमे किए ने कहिऐ, मुदा बुझै-जोकर तँ
कहबे करबै किने?”
गुरुजीक मनमे एलैन, ई छौड़ा बड़
लगराह अछि! जान नइ छोड़त! बजला-
“बौआ, आइ एतबे बुझह जे जे कलमी आम जकाँ गुदगरो आ रसगरो धारक खेबैया अछि ओ भेल
राक्षस आ जे से नइ अछि आ अनेरे बाट-घाट छेकि बाधा पहुँचा बाधित करैए ओ भेल राक्षसक
झड़, जे समैयक चरौर करैए।”
¦
शब्द संख्या : 1649, तिथि : 15 जनवरी 2018
बेरपर
पैछला सालक अही मासक
औझुके तारीख छी। ओना, बीचमे तीन साए पैंसैठ दिन आ बारह मास गुजैर गेल। तारीखक हिसाबसँ औझुका
दिनो बदलल अछिए। पैछला साल शुक्र दिन छल आ ऐबेर मंगल दिन छी। मुदा जे भेल से दिन-मास आ तारीखक भेल ओइसँ डॉक्टर ध्रुव बाबूकेँ कोन मतलब? मतलब छैन मात्र अपन जिनगी, अपन परिवार, अपन सर-सम्बन्धी आ अपन समाजसँ। ओना, जखन अपन जिनगी
दिस तकै छैथ तँ बहैत धारक बीचमे उग-डुम कऽ रहला अछि। मुदा एते बिसवास तँ छैन्हे जे
सत्तैर बर्खसँ ऊपरक समाजमे छी जे कि भरि गाममे चारि-पाँच गोरे गनल-गूथल छी। अधिकतर
लोक सत्तैर बर्खमे अबैत-अबैत मरि गेला। अपन स्कूलक तीनटा संगीमे असगरे छी, बाँकी ओ दुनू मरि गेला। तँए, मरैसँ डरब मूर्खता
भेल। सर्वविदित अछि जे जे जन्म लेलक ओ मरबे करत, मुदा मरैयोक
तँ निसचित दिन-तारीख नहियेँ अछि जे फल्लेँ दिन आ फल्लेँ तारीखकेँ फल्लाँ मरत। जँ
से रहैत तखन तँ सभकेँ बुझल-गमल रहितै, लोक अपन मरैक ओरियार
करि कऽ मरैत मुदा सेहो तँ नहियेँ अछि। एक साए पाँच बर्खक ममियौत भाए ओहिना
तना-उतार टन-टन करै छैथ, तहिना ने गामबला पीसा सेहो छैथ, एक साए पचीस बर्ख भेलैन अछि मुदा जँ अखनो कियो कहै छैन जे मरबै कहिया
बाबा? तेकरा उत्तरमे ओ पचासटा गारि पढ़ैत कहै छथिन- ‘केकरो कपारपर बैसल छियौ आकि अपना औरुदे जीबै छी। जेते दाना-पानी हिस्सामे
अछि ओते खेला-पीला पछाइत ने मरब। पहिने अपन हिस्सा दाना-पानी पुरा लेब तखन ने मन
कहत जे आब ऐ दुनियाँमे अपन किछु ने अछि, तखन ने मरि जाएब।’
ओना पुरान महींसक
बकेनमा दूधक मक्खन जकाँ ध्रुव बाबूक बुधिक अनुकूल विवेको सकताइये गेल छैन, जइसँ बुझब आ
सोचब-विचारब सेहो सकताइये गेल छैन..!
बाँस भरि सुर्ज ऊपर
आबि गेल, अपन घरक कोठरीमे ध्रुव बाबू पैछला साल भरिक जिनगीक हिसाब मने-मन जोड़ि
रहल छला। साल भरिसँ पड़ल-पड़ल देहो अकैड़ गेल छेलैन आ काम-काजी रहने हाथो-पएर आ
बुधियो-विवेक अकड़िये गेल छेलैन। मुदा काइये की सकै छला, जखन
देहे काजक नहि रहल छेलैन। जिनगीमे जहिना बुधि-विवेकक संग घटना घटैए तहिना देहोक
संग घटिते अछि। घटना तँ घटना छी, मुदा ओहीमे ने लोक अपन
घटी-बढ़ीक हिसाब सेहो जोड़ैए। अपन साल भरिक जे जिनगी ध्रुव बाबूक रहलैन ओ ओहन
रहलैन जे बिनु दोसराइते पेशावो-पैखाना आकि किछु खेबो-पीब कठिन भऽ गेल छेलैन।
संजोग बैसल, ध्रुव बाबूक पत्नी–रूक्मिणी–केँ
बुझल छेलैन जे औझुके तारीककेँ पति घरक कोठरीसँ निकैल दरबज्जापर जा कऽ बैसता। तँए
रूक्मिणी भोरेसँ पतिकेँ सहिआरैक पाछू लगि गेल छेली। पतिकेँ जलखै-चाह-पान करा टंच
कऽ नेने छेली। तैसंग दरबज्जाक चौकीपर गदगर ओछाइनिक संग गोलगर-गदगर मसलन सेहो लगा
लेली। सभ ओरियान केला पछाइत जखन पाछू उनैट रूक्मिणी अपन काजक हिसाब मिलौलैन तँ
बुझि पड़लैन जे अखन धरिक प्रकरणक सभ काजसँ निवृत्ति भऽ गेलौं।
ओना, जहिना रूक्मिणी
सदिकाल दासो-दास रहै छैन तहिना बेटो-पुतोहु आ भातिजो-भतिज पुतोहु सेहो रहिते छैन, जइसँ ध्रुव बाबूक मन सदिकाल दुखितो अवस्थामे सुखिते रहै छैन। आगू-आगू
रूक्मिणी, तइ पाछू भातीज- दातादीन आ बेटा- मातादीनक संग दूटा
कम्पाउण्डर–फूलकान्त आ कृष्णकान्त–डॉ. ध्रुव बाबूक कोठरीमे पहुँचल।
एकाएकी समांग सभकेँ
कोठरीमे अबैत देख ध्रुव बाबूक विचारमे बिसवसपन जगलैन जे आइ कोठरीसँ निकैल दरबज्जापर पहुँचब। एकाएक
फुद्दी जकाँ मन फुदैक कऽ चहकलैन जे आब निरोग भऽ गेलौं, देहसँ दुख
हटि गेल! एका-एकी अपन देहक अंग सभकेँ अजमा-अजमा देखए लगला।
सभ अंग अजमा कऽ देखला
पछाइत ध्रुव बाबूक मन उछैट कऽ परिवारक संग सर-कुटुम आ सर-समाज दिस बढ़लैन। मुदा लगले
ई सोचि ध्रुव बाबू अपन मनकेँ बहटाइर लेलैन जे जखन दरबज्जापर सभ कियो बैसब तखन
विचार करब। किए तँ जहिना सरकारी तंत्रमे सुप्रीम कोर्टसँ लऽ कऽ अनुमण्डल कोर्ट तक
एक-सूत्रमे बनल बन्हाएल अछि तहिना समाजोमे बेकती-सँ-परिवार आ आँगन-सँ-दरबज्जाक संग
सरो-समाजक बेकती आ गर-कुटुमक बीचक मुहोँ तँ खुजले अछि। ओना, खुजल आ बन्नक
बीच सेहो नमगर रस्ता अछि मुदा से अखन नहि। जखन गामक कोनो काज वा विचार विशेष हुअए
तखन तँ गामक सभ परिवारक ने दायित्व बनि जाइए जे ओइ विचार आकि ओइ काजकेँ परिवारक
सूत्रमे बान्हि एकसूत्रता आनी तइले ते पहिने परिवारकेँ एकसूत्र करब अछि। एहेन तँ
नहि, जेना आजुक परिवार सभ चलि रहल अछि जे परिवारमे जेतेक सदस्य
तेतेक रंगक विचारो। तइमे जँ एक-सूत्रता नइ औत तखन समाजमे परिवारकेँ जाएब कठिन
अछिए। टूट-नफा मिला चलियो सकैए, जे चलितो अछि, मुदा तइमे किछु-ने-किछु कमी तँ रहिते अछि।
अपन कोठरीमे, माने जइ
कोठरीमे ध्रुव बाबू रहै छला, परिवारोक सभजन आ दुनू
कम्पाउण्डरकेँ देख ध्रव बाबूक मनमे जिनगीक प्रति आरो बिसवास जगलैन, जइसँ मनक खुशपन मुहसँ निकलए लगलैन-
“यएह छी
दुनियाँ! अही-ले लोक एते दिन-राति वेचैन रहैए..!”
ओना, अपना जनैत
ध्रुव बाबू अपन स्वस्थताक परिचय दैत बाजल छला मुदा से ने पत्नियेँ, ने बेटे-भातिज आ ने कम्पाउण्डरेक मनमे घर केलक। तेकर कारण ई जे सबहक मनमे
यएह सोग-समाएल छेलैन जे हो-न-हो देहक कोनो अंगमे अखनो कोनो तरहक कसैर रहिये गेल ने
होनि। जँ से हेतैन तँ आरो दिन अही अवस्थामे रहए पड़तैन। जइसँ अपनो सबहक मनक बिसवास
आ डॉक्टरो साहैबक काजक बिसबासमे कमी एबे करत। अपना जनैत डॉक्टरो साहैब–जे ऑपरेशन
केने छेलैन–ने समय निर्धारित केने छथिन। डॉ. ध्रुव बाबू अपनो
डॉक्टर छथिये, रोगक ऊपरक भाग भलेँ, आन
डॉक्टर किए ने जाँचि-परेख ऑपरेशन केलकैन मुदा रोगक भीतरिया दर्द तँ अपनो बुझिते
छैथ। आनो सभकेँ बुझक चाहिऐन जे जिनगी आकि देहक जे रोग अछि ओकरा नीक जकाँ बुझि-सुझि
वा देख-परेख चललासँ देखौआ रस्ता भेटैए, जइसँ हेराइ-बोथियाइक
डर कम रहत। जखने राह चलैमे देखल-जानल देखपन औत तखने ने निडरपन औत, आ निडरपन एला पछातिये ने निर्भयपन औत, आ निर्भयपन
एला पछातिये ने निर्भीकपन औत, जेकरा संगे चलबे ने जिनगी भेल।
ओना जेते गोरे–माने
रूक्मिणी, दातादीन, मातादीन, फूलकान्त, कृष्णकान्त–छैथ सभ ध्रुव बाबूकेँ कोठरीसँ अँगनाक ओसार धरि चला-बुला
देखिये नेने छला, मुदा औझुका तारीक तँ आँगनसँ दरबज्जापर
पहुँचबक छेलैन, अखन तक अँगनेक ओसार आ कोठरी भरिमे सभ चला-बुला
कऽ देखने छलैन। ओना, सबहक मनमे एहेन बिसवास जरूर उपैक गेल
छेलैन जे जेते रोगक अन्देशा अछि तइसँ बेसी रोगमुक्त छैथ। जखने जिनगीकेँ रोगसँ
मुक्ति भेटै छै तखने ने ओ एहेन निर्णायक मोड़पर आबि ठाढ़ भऽ आगू दिस देख
मुक्ति-भुक्तिक विचार करैए...।
रूक्मिणी बजली-
“दरबज्जापर
चलैक अछि?”
ओना पहिनेसँ ध्रुव बाबू
तैयार छेलाहे, तँए बिना कोनो हिचक-झिझक केने ओछाइनपर सँ उठि,
हाथमे बेंत पकड़ैत बाहर दिस विदा होइत बजला-
“चलै चलू।”
आगू-आगू रूक्मिणी, दुनू पजरामे
दातादीन-मातादीन आ पाछू-पाछू दुनू कम्पाउण्डर- फूलकान्त-कृष्णकान्त...।
आगू-पाछू चारू भाग
समांग सभकेँ देख ध्रुव बाबूक मनक बिसवास आरो बढ़लैन। सबहक संग दरबज्जापर पहुँच
चौकीपर बैसला। सभ समांग सेहो परिवार जकाँ चारू भाग सजि गेल।
मसलनपर ओंगैठते ध्रुव
बाबूक मनमे औझुका तारीक एलैन। ओना, तारीखक संग औझुका दिन सेहो मनमे एलैन, मुदा दिन आ तारीखक मिलान नइ भेने मन थोड़ेक कछमछेलैन। दिन-तारीकक मिलानक
माने भेल जे औझुके तारीख माने 2017 इस्वीक पहिल जनवरी, आ
2018 इस्वीक पहिल जनवरी। तइ बीचक साल भरिक किरिया-कलाप। तारीख आ महिनामे एकरूपता
रहितो, दिन आ सालमे अन्तर भाइये गेल। माने ई जे 2017 इस्वीक
जगह 2018 इस्वी भऽ गेल आ दिनो शुक्रसँ मंगल भऽ गेल। मुदा दिन-महिना आ तारीख-सालमे
जे भेल से भेल मुदा घटना तँ ओहिना रहल जहिना भेल छल। ओइमे कनियोँ कम-बेसी नइ भेल।
कच्छर कटैत ध्रुव बाबूक मन थीर भेलैन। मन थीर होइते समांग सभसँ गप-सप्प करैक इच्छा
भेलैन।
ओना, सभकियो चौकीक
ओछाइनपर गोलिया कऽ बैसल छेलैन मुदा गप-सप्पक क्रम नहि उठल छल तँए सभ सबहक मुँह
तकैत रहैथ। मुहोँ ताबक उचिते छल। साल भरि पहिने, जहिया ध्रुव
बाबूक रीढ़क हड्डीक ऑपरेशन भेलैन, तहियासँ सभ हिनका पाछू
लागल छला, मुदा वास्तविक तीत-मीठक सुआद तँ ध्रुवे बाबूकेँ ने
भेलैन, तँए हुनके ने अपन साल भरिक दुख-दुखान्त कहब छैन।
ओना, सबहक मनमे
किछु-ने-किछु उठिये रहल छेलैन। रूक्मिणीक मन भीतरे-भीतर गद-गद होइत जे विधवा होइसँ
बँचलौं। जाबे सधवा छी ताबैये ने अपन दुनियाँ आ अपन राज-पाट अछि, जखने से दिन घटैत तँ बेटा-पुतोहुक राज मुँहतक्कीक होइते अछि, तइसँ तँ बँचलौं। तँए, रूक्मिणीकेँ मने-मन गदगद हएब
सोभाविके छल। तहिना बेटो-भातीजक मनमे खुशी रहै जे ‘टुटलो हथिसार
तँ नअ घरक साँगह!’ किछु भेला तैयो तँ पढ़ल-लिखलक संग
उमेरदार-अनुभवी गारजन तँ वएह छैथ। हम-सभ किछु भेलौं तँ छौड़े-माड़ए ने भेलौं, जहिना ट्रेनमे बुड़िबकहा-सभकेँ दोस-दोसतियारे जोड़ि
ठक-सभ सिगरेटमे नशा पीआ, साल-सालक कमेलहा ठकि लइए तहिना ने
हमहूँ-सभ भेलौं। तेतबे नहि, देखै छी जे फगुआमे आकि
जूड़शीतलमे महादेव-पार्वतीक रूप बना नचबैए वा जान-जानकीक रूप बना नचेबो करैए आ
रंगो-अबीर उड़ैबते अछि। तैसंग पाकल केरा महींसक गढ़गर दूधक संग मिश्रीक डली फेंट भाँग
घोरि पीआ-पीआ निशेबे करैए आ धनो-सम्पैत आ इज्जतो-आबरू लूटिते अछि। से तँ हमरा सबहक
संग नहि हएत...।
तहिना दुनू
कम्पाउण्डर–फूलकान्त आ कृष्णकान्त–क मनमे खुशी। ऐ दुआरे खुशी जे हमरा सबहक अध्यापक
हाथसँ निकैल जइतैथ! बेलल्ला होइसँ बँचि गेलौं। ओना, शरीर कमजोर भेने
अपन किरिया-कर्ममे डॉक्टर साहैबकेँ थोड़ेक दिक्कत जरूर हेतैन मुदा हमरा सबहक काजमे
मिसियो भरि बाधा नहियेँ हएत...।
मसलनपर ओंगैठ कऽ बैसल
ध्रुव बाबूक नजैर आगूक ओसारमे टाँगल कलेण्डरपर गेलैन। साल भरिक झोल-झालकेँ
रूक्मिणी आइये साफ केने छेली जइसँ ऊपरका झोल तँ झड़ि चुकल छल मुदा जे जमि कऽ सियाही
जकाँ बैस गेल ओ रहबे कएल। मुदा साफ वा मटियाएल जे रहल मुदा साल बदैल गेने आब काजक
तँ नहियेँ ने रहल। तथापि कलेण्डरक महीनाक संग दिन-दिनपर डॉक्टर ध्रुव बाबूक नजैर
नाचए लगलैन। जेना-जेना नचैत गेलैप तेना-तेना आँखिमे बादलक बून जकाँ पीड़ाक बून भरए
लगलैन। एक जनवरीक तारीखपर नजैर पड़िते ध्रुव बाबूकेँ छठिआरीक दूधक संग आ पत्नीक
कएल खरदुतिया पाबैन मन पड़लैन। मन पड़लैन- यएह एक जनवरी छी, अही
दरबज्जापर बैस भिनसुरका उखड़ाहाक मरीज देख साढ़े एगारह बजे खेनाइ खाइले उठि विदा
भेलौं। अँगनाक चापाकलपर पहुँच हाथ-पएर धोइ आपस होइकाल कलक चबुतरापर चप्पल पिछैड़
गेल, जइसँ उताने खसल रही! रीढ़क हड्डी
साफ दू टुकड़ी भऽ गेल..! ओना, तइसँ साल
भरि पहिने भँगवताहक चलैत आकि शरीरक भारीपनक चलैत कुरसीपर सँ सेहो तेना खसल छला ध्रुव
बाबू जे रीढ़क दुनू हड्डीक जोड़ छिटैक गेल छेलैन। डॉक्टर साहैब नहि बुझि पेला जे
संगठनमे शक्ति रहै छइ। जखन दुनू हड्डी संगठित छेलैन तखन बेसी मजगूती छेलैन आ जखन ओ
चहैक कऽ दू फाँक भऽ गेलैन तखन ओ कमजोर भऽ गेलैन। ओना, साधारण
रोग बुझि डॉक्टर साहैब किछु दिन दवाइ खेलैन तँ अपना नीक बुझि पड़लैन। कोनो कष्ट
नहि बुझि पड़लैन, जइसँ छबे मास जाइत-जाइत रोग बिसैर गेला।
ओना, जखन अपन रोग आ दवाइक फाइल देखै छैथ तँ हड्डी चहकब मन
पड़ि जाइ छैन मुदा लगले बिसरियो जाइ छैथ। तेकर कारण ईहो छैन जे तेते नियमित काजे
रहै छैन जे जइसँ पैछला काज जँ नहियोँ बिसरै छैथ तैयो औझुका विचारक तरमे तँ जरूर
पड़िये जाइ छैन। खाएर जे छैन ओ डॉक्टर साहैबकेँ छैन...।
कलपर खसिते पाँचे-सात
मिनटमे अचेत भऽ गेला, जइसँ एते लाभ जरूर भेलैन जे कुहैर-कुहैर जे कनै छला से बन्न जरूर भऽ
गेलैन। भाय! जाबे दुनियाँमे आँखि तकै छी ताबैये ने ई दुनियाँ
अछि। रहब तँ अही दुनियाँमे, चाहे हवा बनि रही आकि माटि-पानि।
मुदा देखै-देखबै-ले आँखि ताकब जरूरी अछिए...।
परिवार जनकेँ जेना
एकाएक माथपर ठनका खसलैन। सबहक मुहसँ निकलल-
“डॉक्टर साहैब
मरि गेला..!”
मुदा एतेक बिसवास
सभकेँ बनल रहबे करैन जे, शरीरक अधिकांश रोगक चर्च बेसी काल डॉक्टर साहैब करै छला। तहूमे चेतनशून्य
होइसँ पहिने कुहैर-कुहैर ईहो कहि देने छेलखिन जे ‘हमरा किछु
ने हएत, हम ठीक भऽ जाएब। जेते जल्दी हुअ पटना अस्पताल
पहुँचाबह।’ परिवार-जनक मन तँ कनैत-कनैत वौआएल रहैन मुदा
समाजक जिज्ञासुक विचार सेहो आ कम्पाउण्डरक संग बेटा-भातीजक मनमे एलैन जे जाबे
डॉक्टर नहि मृत्यु धोषित करता, ताबे जीवित मानब। तँए मनमे
रोपि लगले गाड़ीपर बैसा पटना विदा भेला।
साँस चलनिहारकेँ ने
अनाड़ियो-धुनाड़ी जीवित-मृत्यु बुझैए मुदा बिनु साँस चलनिहारकेँ तँ डॉक्टरे ने
बुझनिहार भगवान छैथ। शरीर क्रिया विज्ञानक उन्नति तँ एते भाइये गेल अछि जे देहक
कोन बात जे माथोक जटिल-सँ-जटिल इलाज आसान भाइये गेल अछि। साढ़े चारि घन्टाक सघन
ऑपरेशनक पछाइत शरीरक रूप तैयार भेलैन। सात घन्टाक पछाइत होश एलैन माने चेतना
घुमलैन। असीम कष्ट, असीम पीड़ाक संग छह मास धरि एक्के कड़े रहए पड़लैन। धीरे-धीरे सुधार होइत
गेलैन जइसँ आनो-आनो अंग संचालित हुअ लगलैन। साल भरिक पछाइत आइ दरबज्जापर पुन:
ध्रुव बाबू पहुँचला। जहिना ऐ सालक पहिल जनवरीक खुशी मनमे छैन तहिना पैछला सालक
पहिल जनवरी, अपन सौंसे जिनगीक घटना-चक्र मन पाड़ि देलकैन।
पचहत्तरिम बर्ख ध्रुव
बाबूक पार भऽ गेलैन। चौहत्तरिम बर्खक दिसम्बर बीतला पछाइत पचहत्तैरम बर्खक पहिल
जनवरी छल। ओना, रंग-रंगक विचार मनमे उपकैत रहैन मुदा सुख-दुखक बीचक बीतल जिनगीक अनुभव
रसे-रसे मनकेँ थीर केने जा रहल छेलैन। जेतेक मन थीर होइए साधना तेतेक अस्थिर होइते
अछि। साधना जेते अस्थिर होइत जाइए साधन तेतेक कमथीर हेबे करत। तँए जिनगीकेँ
दुनियाँक खगता पड़िते छइ। एकाएक ध्रुव बाबूक मनमे एलैन जे जँ अपन छिहत्तैरम बर्ख
धरिक जिनगीक साधल विचारकेँ दुनियाँमे बाँटि नइ लेब तँ केना लोकक मनेमे रहब आ किए
लोक मन राखत? जिनगीमे क्रियाक गति तँ छइहेँ, ओहीमे ने अपनो हेराएल रहब...।
डॉ. ध्रुव बाबूक जन्म
चालीस-बियालिस इस्वीक बीच भेल छेलैन। ओइ समय, देशमे आजादीक तूफानी आन्दोलन चलि रहल
छल। देशक मसिजीवी, श्रमजीवीसँ लऽ कऽ असिजीवी धरि अपन-अपन
भविसक विचारक पाछू अपन समर्पण करैले कटिबद्ध भऽ गेल छला। राजनीतिक संक्रमणक दौड़
तेजीसँ चलि रहल छल। देशक अर्थबेवस्था ढहए लगल छल। एक तँ ओहिना हजारो बर्खक
राज-सत्ता आमजनक जिनगीमे बाधा उपस्थित करिते आबि रहल छल तैपर सँ अंगरेजी शासन तँ
आरो चरमरा देलक।
आन्दोलनक तूफानी
दौड़क कारण भेल जे 1935 इस्वीसँ पहिने एकमुँहरी नेतृत्वक आन्दोलन छल जइमे
प्रगतिशील विचार केनिहार विचारवान लोक आन्दोलनक दिशामे प्रगतिशील दिशाक आन्दोलनक
समर्थक बनि उठि ठाढ़ भेला। अखन धरिक नेतृत्वमे जबर्दस्त विरोध भेल आ आन्दोलनमे
तूफानी दौड़ आएल। देश स्वतंत्र भेल। दरभंगामे मेडिकल कौलेज खुजल। ध्रुव बाबू
डॉक्टरी पढ़लैन। डॉक्टरी पढ़ि सरकारी डॉक्टर बनला। साठि बर्खक अवस्थामे सेवा
निवृत्त सेहो भेला। सेवा निवृत्तिक पछाइत अपन प्राइवेट इलाज अपन दरबज्जापर बैस करए
लगला।
एकाएक जेना डॉक्टर
ध्रुव बाबूक भक् खुजलैन, पत्नी दिस तकैत बजला-
“बुझलौं किने
दुनियाँमे केकरो ने कियो छी आ ने केकरो बिना कोइ जीविते रहि सकैए। यएह छी जीवन आ
जीवनी धार।”
रूक्मिणीकेँ पतिक
बातक गहींर विचारसँ जेतेक खुशी नइ भेलैन तइसँ बेसी खुशी भेलैन टनगर बोलीक टाँसमे
मनगर बात सुनि। मुदा बजली किछु ने। जहिना साल भरि पहिने डॉक्टर साहैबक सभ बात
रूक्मिणी चुपचुप सुनि लइ छेली, भलेँ करै छेली अपने मने, तहिना
आइयो हुनकर सभ बात सुनि जीवित दर्शन करैत मुस्किया देली।
ओना, भातीजक मनमे
कनी-मनी कुड़बुड़ी डॉक्टर साहैबपर उठबे करैन। किए तँ अपन कारोबार बाधित भेल छेलैन।
मुदा ओइठाम जा कऽ मन मुकैड़ गेलैन जैठाम देखला जे डॉक्टरे साहैब लऽ कऽ अपनो
हाथ-पएर अछि। जखन जड़िये टुटए लगल तखन अपनो टुट तँ हेबे करत किने। तँए, कुड़बुड़ाइत मनकेँ सुरखुराइत विचारसँ दाबि अपनाकेँ समगम रखने छला।
ओना, कृष्णकान्तक
मनमे सेहो जगलै जे केना-केना डॉक्टर साहैब कष्ट झेललैन से जेते नीक जकाँ बुझल रहत
तँ ओते अपने ने नीक हएत। मुदा अपन सभ समांगकेँ देख कृष्णकान्त अपन विचारकेँ
तहिया-तहिया मनमे ओइ दिन-ले राखए लगल, जइ दिन डॉक्टर साहैब
असगरमे हमरे बातटा सुनता। मुदा सभकेँ चुपा-चुपा देख कृष्णकान्तकेँ नहि रहल गेलइ।
बाजल-
“डॉक्टर साहैब, अखन तँ कोनो तेहेन प्रश्न उठा अपनेक मनपर विचारक बेसी भार नइ दिअ चाहै छी, मुदा बिसरैक डर होइए जे काल्हि-दिन कहीं बिसैर ने जाइ।”
एक तँ ओहिना
कृष्णकान्तक संग डॉक्टर साहैब शुरूहेसँ हीय खोलि बजै छला, तैठाम
कृष्णकान्तक जिज्ञासा देख आरो मन पनपना गेलैन। बिच्चेमे बजला-
“आब हम जीब
गेलौं किसुन। जे पुछैक छह से बाजह।”
ध्रुव बाबूक पिपाशु
मन देख पपीहा जकाँ कृष्णकान्त बाजल-
“डॉक्टर साहैब, की सभ अनुभव साल भरिक भीतर भेल, से..?”
कृष्णकान्तक प्रश्न
रूक्मिणीकेँ जेना नीक नइ लगलैन, मुदा ध्रुव बाबूकेँ नीक लगलैन। बजला-
“कृष्णकान्त, काल्हि तक जिनगीकेँ जेतेक भरोस कऽ जीबै छेलौं से आब नइ रहत। जिनगी किछु
ने छी आ सब कुछ छी। मुदा से जीनिहार-ले। तँए जे पुछलह से कहिये दइ छिअ। जे धटना
भेल, एकरे लोक बेर-बिपैत्त कहै छइ। जे छोट-सँ-छोट आ
पैघ-सँ-पैघ जिनगीक संग घटैत रहै छइ। तँए अखन बेसी नइ कहबह। अखन एतबे...।”
डॉक्टर साहैबक अधखड़ु
बोल सुनि फूलकान्तक मनमे जागल, जे कृष्णकान्तसँ ने अपन भार डॉक्टर साहैब रोकि
रखलैन, मुदा हमरा तँ नहि। बाजल-
“डॉक्टर साहैब, बेर-बिपैत्त तँ बिपैत भेल, ओइसँ मनुखकेँ..?”
स्वस्थ शरीर भेने
डॉक्टर साहैबक मनो स्वस्थ रहबे करैन, तँए स्वस्थ विचार जागव सोभाविके छल।
बजला-
“यएह छी मनुखक चीन-पहचीन
करैक जगह! जे जेहेन बेर-बिपैत्तमे लोकक संग लोक पुरैए ओ ओहन
ओइ आदमी लेल बेर-परक आदमी भेल।”
डॉक्टर साहैबक विचार
जेना सौनक ओहन बर्खाक बुन जकाँ बोल बनि धरतीपर खसलैन जे अपन समांगक संग दुनू
कम्पाउण्डरो स्तब्ध भऽ गेल। गुम्मा-गुम्मी पसैर गेल।
¦
शब्द संख्या : 2585, तिथि :
19 जनवरी 2018
रचना क्रम (2014
सँ)
264. झीसीक
मजा- शब्द संख्या : 453, तिथि : 1 जनवरी 2014
265. मति-गति-
शब्द संख्या : 1807, तिथि : 07 जनवरी 2014
266. अपन सन
मुँह- शब्द संख्या : 5696, तिथि : 25 जनवरी 2014
267. रिजल्ट-
शब्द संख्या : 2343, तिथि : 16 जनवरी 2014
268. सुमति-
शब्द संख्या : 3052, तिथि : 30 जनवरी 2014
269. फेर
पुछबनि- शब्द संख्या : 346, तिथि : 31 जनवरी 2014
270. माघक घूर-
शब्द संख्या : 1683, तिथि : 06 फरवरी 2014
271. खर्च-
शब्द संख्या : 330, तिथि : 07 फरवरी 2014
272.
अखरा-दोखरा- शब्द संख्या : 342, तिथि : 10 फरवरी 2014
273. पेटगनाह-
शब्द संख्या : 593, तिथि : 14 फरवरी 2014
274. बड़की
माता- शब्द संख्या : 1224, तिथि : 18 फरवरी 2014
275.
धरती-अकास- शब्द संख्या : 184 , तिथि : 19 फरवरी 2014
276. बकठाँइ-
शब्द संख्या : 883, तिथि : 24 फरवरी 2014
277.
चैन-बेचैन- शब्द संख्या : 936, तिथि : 09 मार्च 2014
278. हथियाएल
खुरपी- शब्द संख्या : 645 , तिथि : 11
मार्च 2014
279. अलपुरिया
बरी- शब्द संख्या : 287, तिथि : 12 मार्च 2014
280. नीक बोल-
शब्द संख्या : 565, तिथि : 13 मार्च 2014
281. सुआद- शब्द
संख्या : 624, तिथि : 14 मार्च 2014
282. गंगा
नहेलौं- शब्द संख्या : 690, तिथि : 19 मार्च 2014
283. भोँटक
गहमी- शब्द संख्या : 508, तिथि : 24 मार्च 2014
284. भँसैत नाह-
शब्द संख्या : 597, तिथि : 26 मार्च 2014
285. पान पराग-
शब्द संख्या : 1692, तिथि : 29 मार्च 2014
286. सिरमा-
शब्द संख्या : 760, तिथि : 31 मार्च 2014
287. नौमीक हकार-
शब्द संख्या : 1119, तिथि : 03 अप्रैल 2014
288. फोंक मकड़-
शब्द संख्या : 1744, तिथि : 10 अप्रैल 2014
289. केते लग
केते दूर- शब्द संख्या : 1252, तिथि : 14 अप्रैल 2014
290. अभिनव अनुभव-
शब्द संख्या : 326, तिथि : 16 अप्रैल 2014
291.
खोंटकर्मा- शब्द संख्या : 1184, तिथि : 19 अप्रैल 2014
292. किछु ने-
शब्द संख्या : 503, तिथि : 22 अप्रैल 2014
293. झकास-
शब्द संख्या : 1589, तिथि : 26 अप्रैल 2014
294.
अप्पन-बीरान- शब्द संख्या : 2919, तिथि : 01 मई 2014
295. सजमनियाँ
आम- शब्द संख्या : 611, तिथि : 04 मई 2014
296. अर्जुन
रोग- शब्द संख्या : 1003, तिथि : 7 मई 2014
297. गरदनि
कट्टा बेटा- शब्द संख्या : 575, तिथि : 10 मई 2014
298. नैहराक
धाड़- शब्द संख्या : 885, तिथि : 14 मई 2014
299. अवाक-
शब्द संख्या : 1047, तिथि : 17 मई 2014
300. पोखरिक
सैरात- शब्द संख्या : 923, तिथि : 20 मई 2014
301. दनियाँ
डाबा- शब्द संख्या : 409, तिथि : 22 मई 2014
302. धरम काँट-
शब्द संख्या : 395, तिथि : 23 मई 2014
303. पलभरि-
शब्द संख्या : 1116, तिथि : 24 मई 2014
304. किरदानी-
शब्द संख्या : 5296, तिथि : 14 जुन 2014
305. सगहा-
शब्द संख्या : 2867, तिथि : 22 जुन 2014
306. अकाल-
शब्द संख्या : 1238, तिथि : 24 जुन 2014
307. उझट बात-
शब्द संख्या : 1152, तिथि : 26 जुन 2014
308. कर्जखौक-
शब्द संख्या : 1175, तिथि : 2 जुलाई 2014
309. उनटन-
शब्द संख्या : 1187, तिथि : 6 जुलाई 2014
310. रेहना
चाची- शब्द संख्या : 1307, तिथि : 9 जुलाई 2014
311. बुधनी
दादी- शब्द संख्या : 1256, तिथि : 11 जुलाई 2014
312. अउतरित
प्रश्न- शब्द संख्या : 1229, तिथि : 14 जुलाई 2014
313. हारि- शब्द
संख्या : 1240, तिथि : 16 जुलाई 2014
314. सोनाक
सुइत- शब्द संख्या : 1135, तिथि : 17 जुलाई 2014
315. मरूभूमि-
शब्द संख्या : 1214, तिथि : 20 जुलाई 2014
316. असगरे-
शब्द संख्या : 1557, तिथि : 24 जुलाई 2014
317. पुरनी
नानी- शब्द संख्या : 1304, तिथि : 27 जुलाई 2014
318. कटा-कटी-
शब्द संख्या : 1140, तिथि : 30 जुलाई 2014
319. केते लग
केते दूर- शब्द संख्या : 1206, तिथि : 3 अगस्त 2014
320. गलती अपने
भेल- शब्द संख्या :3386, तिथि : 06 अगस्त 2014
321. चोरक
चोरबती- शब्द संख्या : 884, तिथि : 6 अगस्त 2014
322. घर तोड़ि
देलिऐ- शब्द संख्या : 1527, तिथि : 10 अगस्त 2014
323. सजल
स्मृति- शब्द संख्या : 2363, तिथि : 14 अगस्त 2014
324. सनेस-
शब्द संख्या : 2654, तिथि : 16 अगस्त 2014
325. सए कच्छे-
शब्द संख्या : 488, तिथि : 19 अगस्त 2014
326. एक मुठी
घास- शब्द संख्या : 411, तिथि : 21 अगस्त 2014
327. करिछौंह
मुँह- शब्द संख्या : 318, तिथि : 24 अगस्त 2014
328. पुरस्कार-
शब्द संख्या : 2414, तिथि : 24 अगस्त 2014
329. गावीस
मोइस- शब्द संख्या : 687, तिथि : 29 अगस्त 2014
330. मनकमना-
शब्द संख्या : 6118, तिथि : 19 सितम्बर 2014
331. घरवास-
शब्द संख्या : 4884, तिथि : 26 सितम्बर 2014
332. समधीन-
शब्द संख्या : 6096, तिथि : 04 अक्टुबर 2014
333. चापाकलक
पाइप- शब्द संख्या : 1616, तिथि : 7 अक्टुबर 2014
334. कलम हानि
कऽ- शब्द संख्या : 2226, तिथि : 10 अक्टुबर 2014
335. लतियाएल
जिनगी- शब्द संख्या : 1184, तिथि : 14 अक्टुबर 2014
336. गामक
शकल-सूरत- शब्द संख्या : 2596, तिथि : 20अक्टुबर 2014
337. जितिया
पावनि- शब्द संख्या : 3706, तिथि : 24 अक्टुबर 2014
338. सुखाएल
सूरत- शब्द संख्या : 3690, तिथि : 30 अक्टुबर 2014
339. भैयारी
हक- शब्द संख्या : 3131, तिथि : 4 नवम्बर 2014
340. ठकुआएल
भुसवा- शब्द संख्या : 3356, तिथि : 13 नवम्बर 2014
341. खुदियाएल-
शब्द संख्या : 2894, तिथि : 17 नवम्बर 2014
342. खटहा आम-
शब्द संख्या : 3528, तिथि : 22 नवम्बर 2014
343. ढकरपेँच-
शब्द संख्या : 3740, तिथि : 30 नवम्बर 2014
344. असहाज-
शब्द संख्या : 2853, तिथि : 04 दिसम्बर 2014
345. समरथाइक
भूत- शब्द संख्या : 3832, तिथि : 07 दिसम्बर 2014
346. विदाइ- शब्द संख्या : 5103,
तिथि : 17 दिसम्बर 2014
347. खलओदार- शब्द संख्या : 731,
तिथि : 19 दिसम्बर 2014
348. मनुखदेवा- शब्द संख्या : 1016,
तिथि : 22 दिसम्बर 2014
349. उमेद- शब्द संख्या : 3643, तिथि : 31 दिसम्बर 2014
350. गलगर भैंस- शब्द संख्या : 3392,
तिथि : 4 जनवरी 2015
351. जाड़ फाटि गेल- शब्द संख्या : 3328,
तिथि : 9 जनवरी 2015
352. सुरता- शब्द संख्या : 3304,
तिथि : 15 जनवरी 2015
353. असुध मन- शब्द संख्या : 2353,
तिथि : 19 जनवरी 2015
354. धरमूदासक अखड़ाहा- शब्द संख्या :
1410, तिथि : 21 जनवरी 2015
355. ठोररंगू- शब्द संख्या : 1531,
तिथि : 23 जनवरी 2015
356. लगबे ने कएल- शब्द संख्या : 1449,
तिथि : 25 जनवरी 2015
357. उकड़ू समय- शब्द संख्या : 1467,
तिथि : 27 जनवरी 2015
358. चास-बास दुनू गेल- शब्द संख्या :
1615, तिथि : 29 जनवरी 2015
359. नहरकन्हा- शब्द संख्या : 1209,
तिथि : 11 मार्च 2015
360. बटखौक- शब्द संख्या : 1272,
तिथि : 14 मार्च 2015
361. पसेनाक धरम- शब्द संख्या : 1263,
तिथि : 16 मार्च 2015
362. जेठुआ गरदा- शब्द संख्या : 1103,
तिथि : 18 मार्च 2015
363. हँसीएमे उड़ि गेलौं- शब्द संख्या :
1243, तिथि : 20 मार्च 2015
364. बुड़िबकहा बुड़िबक बनौलक- शब्द
संख्या : 1234, तिथि : 23 मार्च 2015
365. हमर बाइनिक विचार- शब्द संख्या : 1207,
तिथि : 26 मार्च 2015
366. नोकरिहारा- शब्द संख्या : 1146,
तिथि : 26 मार्च 2015
367. घसवाहि- शब्द संख्या : 1213,
तिथि : 28 मार्च 2015
368. तेतर भाइक कविता- शब्द संख्या : 1319,
तिथि : 1 अप्रैल 2015
369. छूआ- शब्द संख्या : 1223, तिथि : 6 अप्रैल 2015
370. दोसराइत- शब्द संख्या : 1270,
तिथि : 9 अप्रैल 2015
371. लछनमान- शब्द संख्या : 1173,
तिथि : 13 अप्रैल 2015
372. हमर कोन दोख- शब्द संख्या : 1527,
तिथि : 17 अप्रैल 2015
373. मौसी- शब्द संख्या : 1393, तिथि : 21 अप्रैल 2015
374. नटकिया गति- शब्द संख्या : 1313
24 अप्रैल 2015
375. खाए चाहैए- शब्द संख्या : 1223,
तिथि : 27 अप्रैल 2015
376. मधुमाछी- शब्द संख्या : 1892,
तिथि : 07 मई 2015
377. दनगर घास- शब्द संख्या : 2775,
तिथि : 13 मई 2015
378. सझिया खेती- शब्द संख्या : 3135,
तिथि : 23 मई 2015
379. मुफतिया माल- शब्द संख्या : 3231,
तिथि : 29 मई 2015
380. मथाहाथ- शब्द संख्या : 2923,
तिथि : 02 जून 2015
381. पहपैट- शब्द संख्या : 1369,
तिथि : 05 जून 2015
382. इजोरिया राति- शब्द संख्या : 1512,
तिथि : 07 जून 2015
383. तीन जुगिया भाय- शब्द संख्या : 2010,
तिथि : 12 जून 2015
384. अँगनेमे हेरा गेलौं- शब्द संख्या :
605, तिथि : 14 जून 2015
385. डकरा हाल- शब्द संख्या : 2529,
तिथि : 17 जून 2015
386. जेतए जे हौउ- शब्द संख्या : 2062,
तिथि : 21 जून 2015
387. गठूलाक गारि- शब्द संख्या : 1532,
तिथि : 25 जून 2015
388. कनी हमरो सुनू- शब्द संख्या : 1983,
तिथि : 29 जून 2015
389. गामक बान्ह- शब्द संख्या : 2437,
तिथि : 03 जुलाई 2015
390. गुड़ा खुद्दीक रोटी- शब्द संख्या :
2443, तिथि : 08 जुलाई 2015
391. सीरक गाछ- शब्द संख्या : 3071,
तिथि : 13 जुलाई 2015
392. हरदीक हरदा- शब्द संख्या : 2924,
तिथि : 19 जुलाई 2015
393. जाम- शब्द संख्या : 3355, तिथि : 29 जुलाई 2015
394. गण्डा- शब्द संख्या : 2304,
तिथि : 5 अगस्त 2015
395. हाथी आ मूस- शब्द संख्या : 3016, तिथि : 11 अगस्त 2015
396. मुसरी आ घोड़ा- शब्द संख्या : 3625,
तिथि : 17 अगस्त 2015
397. फलहार- शब्द संख्या : 2350,
तिथि : 25 अगस्त 2015
398. भोरक झगड़ा- शब्द संख्या : 2697, तिथि : 31 अगस्त 2015
399. क्रियाशील- शब्द संख्या : 3395, तिथि : 13 सितम्बर 2015
400. आइ एम शॉरी- शब्द संख्या : 2927, तिथि : 23 सितम्बर 2015
401. ओऽ होऽ होऽ हूसि गेल- शब्द संख्या
: 1025, तिथि : 29 सितम्बर 2015
402. मीनी भ्रष्टाचार- शब्द संख्या : 825, तिथि : 5 अक्टूबर 2015
403. गजपट खेती- शब्द संख्या : 1171,
तिथि : 8 अक्टूबर 2015
404. समुद्री विद्या- शब्द संख्या : 787,
तिथि : 11 अक्टूबर 2015
405. राकशे रहि गेलौं- शब्द संख्या : 959,
तिथि : 12 अक्टूबर 2015
406. निनिया देवीक आराधना- शब्द संख्या
: 679, तिथि : 13 अक्टूबर 2015
407. बताहे बताह बनौलक- शब्द संख्या : 574,
तिथि : 15 अक्टूबर 2015
408. धोखा- शब्द संख्या : 1172, तिथि : 17 अक्टूबर 2015
409. खसैत गाछ- शब्द संख्या : 2234,
तिथि : 22 अक्टूबर 2015
410. वैष्णवी भगवती- शब्द संख्या : 2099,
तिथि : 01 नवम्वर 2015
411. ठूठ गाछ- शब्द संख्या : 23,174, तिथि : 25 अक्टूबरसँ 16 दिसम्बर 2015
412. प्रिगर शत्रु- शब्द संख्या : 1080,
तिथि : 26 दिसम्बर 2015
413. एगच्छा आमक गाछ- शब्द संख्या : 1167,
तिथि : 31 दिसम्बर 2015
414. माघ नहाइले जाएब- शब्द संख्या : 2623,
तिथि : 4 जनवरी 2016
415. एक घोंट पानि- शब्द संख्या : 2522,
तिथि : 10 जनवरी 2016
416. एते दिन अपना-ले आब अनका-ले- शब्द
: 3407, तिथि : 16 जनवरी 2016
417. माइक वचन- शब्द संख्या : 3009,
तिथि : 21 जनवरी 2016
418. पान- शब्द संख्या : 3120, तिथि : 26 जनवरी 2016
419. आजुक जिनगीक आइ परीछा- शब्द :
1684, तिथि : 01 फरवरी 2016
420. शुभचिन्तक- शब्द संख्या : 3947,
तिथि : 08 फरवरी 2016
421. करिछौन लाली- शब्द संख्या : 3000,
तिथि : 13 फरवरी 2016
422. मोहरा- शब्द संख्या : 1223,
तिथि : 15 फरवरी 2016
423. अपन पुरखाक डीह- शब्द संख्या : 1187,
तिथि : 17 फरवरी 2016
424. जेना हाथी रही- शब्द संख्या : 1245,
तिथि : 20 फरवरी 2016
425. कठफल- शब्द संख्या : 1294, तिथि : 22 फरवरी 2016
426. गामे उपैट गेल- शब्द संख्या : 1680,
तिथि : 25 फरवरी 2016
427. झूठे- शब्द संख्या : 1969, तिथि : 29 फरवरी 2016
428. लाही- शब्द संख्या : 2335, तिथि : 3 मार्च 2016
429. परतीहा खढ़- शब्द संख्या : 1667,
तिथि : 6 मार्च 2016
430. उजगी- शब्द संख्या : 1079, तिथि : 9 मार्च 2016
431. हाथक जिनगी- शब्द संख्या : 983,
तिथि : 14 मार्च 2016
432. गाछपर सँ खसला- शब्द संख्या : 2000,
तिथि : 20 मार्च 2016
433. केतौ ने रहलौं- शब्द संख्या : 2103,
तिथि : 25 मार्च 2016
434. अपने केलहा- शब्द संख्या : 2314,
तिथि : 31 मार्च 2016
435. बत्तु- शब्द संख्या : 2244,
तिथि : 10 अप्रैल 2016
436. कछमछी- शब्द संख्या : 2322,
तिथि : 15 अप्रैल 2016
437. गैत-वीध- शब्द संख्या : 2424,
तिथि : 21 अप्रैल 2016
438. दियरबा-भैंसुर- शब्द संख्या : 2089,
तिथि : 29 अप्रैल 2016
439. एक दिन- शब्द संख्या : 2063,
तिथि : 5 मई 2016
440. दुधियाएल बरखा- शब्द संख्या : 2059,
तिथि : 11 मई 2016
441. गलफूलू- शब्द संख्या : 2117,
तिथि : 14 मई 2016
442. बिटगरहा- शब्द संख्या : 1992,
तिथि : 19 मई 2016
443. आब नइ आगि लगैए?- शब्द संख्या : 1962, तिथि : 23 मई 2016
444. कटौज- शब्द संख्या : 1977, तिथि : 28 मई 2016
445. बाल बोध- शब्द संख्या : 2621,
तिथि : 2 जून 2016
446. डभियाएल गाम- शब्द संख्या : 2483, तिथि : 6 जून 2016
447. एकबोलिया दादी- शब्द संख्या : 2189, तिथि : 11 जून 2016
448. मरियाएल मन- शब्द संख्या : 1921, तिथि : 17 जून 2016
449. त्राहि-कृष्ण- शब्द संख्या : 2900, तिथि : 23 जून 2016
449. कन्हा भँट्टा- शब्द संख्या : 2539, तिथि : 30 जून 2016
449. जिगेसा- शब्द संख्या : 3977, तिथि : 8 जुलाई 2016
449. गुलेती दास- शब्द संख्या : 5993, तिथि : 12 अगस्त 2016
449. भोलानाथ बाबा- शब्द संख्या : 2359, तिथि : 17 अगस्त 2016
449. दुरकाल- शब्द संख्या : 3189, तिथि : 22 अगस्त 2016
449. कलंक- शब्द संख्या : 2763, तिथि : 27 अगस्त 2016
450. अड़िकट्टा चोर- शब्द संख्या : 2077, तिथि : 31 अगस्त 2016
451. बगदल गाम- शब्द संख्या : 2405, तिथि : 6 सितम्बर 2016
452. बत्तीसोअना- शब्द संख्या : 890, तिथि : 8 सितम्बर 2016
453. कचहरिया रोग- शब्द संख्या : 1651, तिथि : 12 सितम्बर 2016
454. दिन घटि गेल- शब्द संख्या :
2425, तिथि : 5 अक्टुबर 2016
455. मुड़ियाएल घर- शब्द संख्या :
2352, तिथि : 11 अक्टुबर 2016
456. गामक सुरता- शब्द संख्या : 2265, तिथि : 19 अक्टुबर 2016
457. खतियाएल घर- शब्द संख्या : 2057, तिथि : 09 नवम्बर 2016
458. बात-कथा सुनौलक- शब्द संख्या :
1889, तिथि : 15 नवम्बर 2016
459. अनका बेर ओंघी- शब्द संख्या : 2233, तिथि : 20 नवम्बर 2016
460. देव उठान- शब्द संख्या : 2297, तिथि : 24 नवम्बर 2016
461. नमहर घरक चोरि- शब्द संख्या :
2397, तिथि : 28 नवम्बर 2016
462. भोरक सपना- शब्द संख्या : 1013, तिथि : 1 दिसम्बर 2016
463. बालमण्डली- शब्द संख्या : 1288, तिथि : 6 दिसम्बर 2016
464. धोखा केतए भेल- शब्द संख्या : 1053, तिथि : 09 दिसम्बर 2016
465. माघक चाह- शब्द संख्या : 1330, तिथि : 12 दिसम्बर 2016
466. भँसियाएल बाल-बोध- शब्द संख्या : 1306, तिथि : 15 दिसम्बर 2016
467. माघक घूर- शब्द संख्या : 1812, तिथि : 18 दिसम्बर 2016
468. पाही पट्टी- शब्द संख्या : 2370, तिथि : 25 दिसम्बर 2016
469. बीरांगना- शब्द संख्या : 1551, तिथि : 30 दिसम्बर 2016
470. स्मृति शेष- शब्द संख्या : 1941, तिथि : 6 जनवरी 2017
471. मनकेँ फुसलबै छी- शब्द संख्या : 1023, तिथि : 10 जनवरी 2017
472. चहकल विचार- शब्द संख्या : 4173, तिथि : 20 जनवरी 2017
473. विदाइ-दैछना- शब्द संख्या : 2312, तिथि : 25 जनवरी 2017
474. बीरांगना :
2- शब्द संख्या : 1992, 29 जनवरी 2017
475. पकिया
चेला- शब्द संख्या : 1976, तिथि : 06 फरवरी
2017
476. कान फुटल
कप- शब्द संख्या : 1595, तिथि : 09 फरवरी
2017
477. वर्थ डे- शब्द
संख्या : 2535, तिथि : 16 फरवरी 2017
478. जानक मोल- शब्द
संख्या : 2782, तिथि : 23 फरवरी 2017
479. गामक कटान-
शब्द संख्या : 3115, तिथि : 01 मार्च 2017
480. कर्ज- शब्द
संख्या : 3252, तिथि : 07 मार्च 2017
481. बेटीक लिलसा- शब्द संख्या : 2621, तिथि : 11 मार्च 2017
482. अपन गारि अपन दुआरि- शब्द संख्या :
2546, तिथि : 17 मार्च 2017
483. बेटीक पैरुख- शब्द संख्या : 2735, तिथि : 26 मार्च 2017
484. बेटीक कुभेला- शब्द संख्या : 2767, तिथि : 31 मार्च 2017
485. अपन रोपल गाछी भुताहि- शब्द संख्या
: 2619, तिथि : 7 अप्रैल 2017
486. बलधकेल कटौज- शब्द संख्या : 2100, तिथि : 11 अप्रैल 2017
487. जारैनक दुख मेटा गेल- शब्द संख्या :
2465, तिथि : 17 अप्रैल 2017
488. पढ़ल सुगा बौक- शब्द संख्या : 3775, तिथि : 26 अप्रैल 2017
489. हरवाहि- शब्द संख्या : 2784, तिथि : मजदूर दिवस (01 मई) 2017
490. क्रान्तियोग- शब्द संख्या : 3432, तिथि : 13 मई 2017
491. उचितवक्ता- शब्द संख्या : 3461, तिथि : 19 मई 2017
492. खेतक बँटवारा- शब्द संख्या : 3607, तिथि : 24 मई 2017
493. विघटन- शब्द संख्या : 3419, तिथि : 31 मई 2017
495. टुटल मनक जुटान- शब्द संख्या : 3456, तिथि : 06 जून 2017
496. बाबा बेलेश्वरनाथ- शब्द संख्या : 2420, तिथि : 11 जून 2017
497. भुतलग्गू आकि भविसलग्गू- शब्द
संख्या : 2465, तिथि : 23 जून 2017
498. मर्माहत- शब्द संख्या : 2509, तिथि : 29 जून 2017
499. गुणहीन- शब्द संख्या : 3138, तिथि : 6 जुलाइ 2017
500. समझौता- शब्द संख्या : 2280, तिथि : 13 जुलाइ 2017
501. जेकर चुन तेकर पुन- शब्द संख्या : 2696, तिथि : 19 जुलाइ 2017
502. त्रिकालदर्शी- शब्द संख्या : 2841, तिथि : 25 जुलाइ 2017
503. नमहर फेरा- शब्द संख्या : 2902, तिथि : 29 जुलाइ 2017
504. आशापर पानि पड़ल- शब्द संख्या : 2391, तिथि : 02 अगस्त 2017
505. कोढ़िया सरधुआ- शब्द संख्या : 2279, तिथि : 06 अगस्त 2017
506. बेटपन- शब्द संख्या : 3054, तिथि : 11 अगस्त 2017
507. छातीक हार- शब्द संख्या : 2291, तिथि : 16 अगस्त 2017
508. उमेरक लेहाज- शब्द संख्या : 2986, तिथि : 22 अगस्त 2017
509. पैंतीस साल पछुआ गेलौं- शब्द
संख्या : 2472, तिथि : 05 सितम्बर 2017
510. इज्जत गमा इज्जत बँचेलौं- शब्द सं:
23,794, 14 Sep to 19 Oct 2017.
511. लहसन : एक- शब्द संख्या : 3164, तिथि : 10 नवम्बर 2017
512. किछु ने
फुरैए-
शब्द संख्या : 2092, तिथि : 12 नवम्बर 2017
513. लहसन : दू- शब्द संख्या : 2030, तिथि : 17 नवम्बर 2017
514. महिरम- शब्द संख्या : 1983, तिथि : 20 नवम्बर 2017
515. लहसन : तीन- शब्द संख्या : 2595, तिथि : 25 नवम्बर 2017
516. बेर
परहक भदवा- शब्द
संख्या : 2726, तिथि : 29 नवम्बर 2017
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521. पाइक
इज्जत- शब्द
संख्या : 2000, तिथि : 05 जनवरी 2018
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संख्या : 1653, तिथि : 15 जनवरी 2018
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19 जनवरी 2018
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