मैथिली कथा 'टकुआटान' जगदीश प्रसाद मण्डल

 


टकुआटान  

लोकक देखसी कहियौ आकि अप्पन कमजोरी, परदेशमे रहै छी। माने बंगलोरमे ट्रान्सपोर्टमे नोकरी करै छी। ओना, एते जरूर भेल अछि जे गामक जिनगी कहियौ आकि अप्पन जिनगी, जाधैर गाममे बितेलौं ताधैर नमरी[1] सालमे गोटे-गोटे दिन देखै छेलौं, बंगलोरमे रहने एते तँ भेबे कएल जे भरि-भरि दिन, माने आठ घन्टा ड्यूटीक समयमे, नमरीक कोन बात जे पनसैया, दससैया आ बीससैया[2] नोट गनैत-गनैत चुटकी खिया गेल अछि। माँड़े तँ माउग जीबैए, आ अपने जखन भरि दिन नोटे गनै छी तखन जँ कनियोँ छह-पाँच केलौं तँ पाँच-दस हजार अपनो जेबीमे आबिये जाइए। जखन लाख-दू-लाखक उलफी आमदनी महीनामे हएत तखन जँ जीवनक धार उलफी नइ बनए, माने जीवनमे उलफी खर्च नइ हुअए, तखन तँ ओहन उलफीकेँ बेइज्जतीए ने हएत। अपनो कि दुनियाँसँ हटल छी आकि अही दुनियाँमे छी, तखन जँ अप्पन जिनगी उलफी नइ बनत सेहो केहेन हएत। तँए, जहिना खेनाइ-पीनाइ तहिना ओढ़नाइ-पहिरनाइ आ तहिना बसो-बास माने रहैक घर सेहो बनेबे केलौं अछि।

बंगलोरमे रहितो मनमे सदिकाल गाम नचिते रहैए। केना बाबू पकैड़-पकैड़ स्कूलपर दऽ अबै छला। केना सोनिया माइक लतामक गाछपर चढ़ि चोराकऽ लताम तोड़ि लइ छेलौं। केना राति-के मशाल लेसि, ऐठाम मशालक माने अछि, गाम-घरमे लोक माटिक डाबाकेँ एक भाग हँसुआसँ काटि, गरदैनमे डोरी बान्हि, माने लटकबैबला, आ बीचमे माने डाबाक बीचमे माटिक डिबिया लेसि, अन्हारो रातिमे अपनो आ अनको आम चोरा कऽ बीछ लइ छेलौं..! आरो-आरो गामक क्रियाकलाप सभ दिन-राति भितरिया मनमे नचिते रहैए। मुदा मनक एहेन विशाल समुद्रकेँ ओहिना मनेमे दाबि, जहिना वंशराजक सात-साए बरदकेँ हंसराज मोटरी बान्हि रखि देलकैन, जेकरा कौआ लऽ कऽ उड़ि गेल, तहिना अप्पन मनक समुद्रकेँ अपनो एकटा पोलीथिनक झोराक मोटरी बान्हि तेना जुमाकऽ जिनगीसँ कात फेंक देने छी जे परिवारमे पित्ती-पितिआइन मुइली, जीबैतमे मुँह देखैक कोन बात जे दाहो-संस्कारमे गाम नइ आबि भेल। नइ एलौं, तेहेन बहाना पितियौत भाय-साहैबक सोझामे रखलौं जे ओहो मानि गेला आ कहलैन जे बौआ, मृत्यु तँ सभकेँ लगले अछि, मरबे करत, तँए जँ माए आ बाबूक मृत्युक समय गाम नहि एलह तँ कि हेतइ। काज कि तोरा-ले पड़ल रहल आकि भेबे कएल। भाइयो साहैब छुट्टी दइये देलैन।

 

गामक सुमारक बेसी तखन भेल जखन अप्पन उमेर पचास बरख टपल आ चारू बेटाक बीच पाइ-कौड़ीक कटौज उठल। दुनियाँ तँ दुनियाँ छी बाप तवाह बेटा ले, माने ऐगला पीढ़ी ले जे सातो पीढ़ीक ओरियान माने सम्पैत ढेरियाकऽ जँ नइ रखलौं, तखन जीवने की भेल। तहिना बेटा तवाह जे अपने कमाइक (काज करैक) खगते कोन अछि, बापक देल सम्पैत हाथ लगबे करत। जेते जीवन भरि कमा कऽ खर्च करब, माने जीवन चलाएब, तेते तँ बापेक देल रहत..! यएह तँ छी सामाजिक जीवन। समाजमे सदिकाल धर्म-पाप, स्वर्ग-नर्क आ देवी-देवताक चर्च होइते रहैए, से खाली किसानपुरे टा गाममे होइए से बात नहि। आनो-आन गाम- भागपुर, विलासपुर, जोगपुर सन-सन अनेको गाममे सेहो होइए। ओना, किसानपुर गामक लोकक विश्वास छैन जे जहिना स्वर्ग एक दिन जन्म लइए तहिना घटैत-बढ़ैत एक दिन अन्त सेहो होइते अछि से ओहिना जहिना बैंकमे रूपैआ जमा करै छी आ ओइमे सँ उठा-उठा खर्च करैत जाइ छी आ एक दिन ओहन अबैए जइ दिन रूपैआ सठि जाइए। तेकर पछाइत जँ बैंकपर बलउमकी जेबे करब तँ बैंकक सिपाही धक्का मारि निकालि देत कि नहि निकालि देत। तहिना स्वर्ग अछि। कोनो नीक कर्म केला-पछाइत स्वर्गक अधिकारी बनै छी आ अधला कर्म करैत आगू बढ़ै छी, तखन पापक मोटरी नमहर भेने स्वर्गक रास्ता बन्न भऽ जाइते अछि आ नर्कक रास्ताक मुँह चौड़गर भइये जाइए। खाएर जे होइए, ओ स्वर्ग-नर्क गेनिहार जानैथ, अपना ओइसँ कोन मतलब अछि। मतलब एतबे अछि जे जहिना सभ बुझै छैथ जे दुनियाँमे अनेको लोक अछि, सतलोक, बैकुण्ठलोक, स्वर्गलोक, नर्कलोक, साकेतलोक इत्यादि, जइमे जिनकर जेहेन किरदानी से तेहेन बास करै छैथ।

 

अपने अखन पचासे बर्खक छी, पत्नी दू बरख छोटे छैथ माने अड़तालीस बर्खक, चारू बेटा सोलह बर्खसँ छब्बीस बर्खक बीच अछि, जेकरा पढ़ा-लिखा अपनासँ ऊपर बनबए चाहै छेलौं, बंगलोरमे अनभुआरपन रहने कहियौ आकि जीवन जीबैक, एकोटा नीक शिक्षा नहि पेब सकल। कहब जे स्कूल-कौलेज बंगलोरमे नहि अछि जे अहाँक बेटा शिक्षा नहि पेब सकल? ऐठाम कौलेजिया डिग्रीक चर्च नहि कऽ रहल छी, ऊपरका तीनू भाँइ एम.ए. पास करबे केने अछि, आ चारिम ऑनर्स केला-पछाइत एम.ए.मे पढ़ैए। नीक शिक्षाक माने नीक मनुक्ख बनब छी। नीक मनुक्ख बनैक ज्ञान, ऐठाम ज्ञानक माने अछि ओहन ज्ञान जे विवेकक चक्षुकेँ प्रकाशित कऽ दिअए, से केकरो ने भेल। जखने से होइए तखने ने ओ विचारए लगैए जे मनुक्ख भगवानकेँ खोजनिहार ओहन खोजी छैथ जे भगवानक परिचय करा सृजन केलैन। नहि कि भगवान मनुक्खक खोजी छैथ। जिनका अपने हाथ-पएर नहि छैन ओ केना टहैल-टहैल सात अरब मनुक्खक परिचय देता।

 

चारू बेटा, बंगलोरक परिवेशक अनुकूल, जिनगी ओहन बना नेने अछि, जेकरा पुरबैमे हजारक कोन चर्च जे लाखमे चलि रहल अछि। देखिते छी जे डॉक्टरीक शिक्षा पचास लाखक सीमा टपि रहल अछि, तहिना आन-आन शिक्षाक गति-विधि अछि। भाइक विचार माने सहोदर भाइक प्रेम-सिनेह केना बनैए, ऐठाम कबीरदासक चर्च नइ कऽ रहल छी। ओ वाल्मीकि जकाँ स्रष्टेटा नहि द्रष्टा सेहो छला, तँए हुनकर अप्पन रामो छैन आ अध्यात्म सेहो छैन। तैसंग रामक समाजो छेलैन। भाइक सम्बन्ध माने सहोदर भाइक बीच एहेन विचार जगिये गेल अछि, जे परिवेशक अनुकूल, भाय-भाइक कर्ता-धर्ता दुनू छैथ, से नहि विचारि भाइक माने भऽ गेल अछि पिताक सम्पत्तिक बराबरीक हिससेदार। यएह तँ सोच नव पीढ़ीमे जगि रहल अछि। ऐठाम ई नइ बुझब जे शत-प्रतिशत युवा-पीढ़ीमे एहने विचार जगि गेल अछि। जहिना संख्या रहितो एक आ सइयक बीच निनानबे सीढ़ीक दूरी अछि, तहिना समाजक बीच मनुक्खक सेहो अछि। एकाएक मनमे उचाट आएल। बिना सोचने-विचारने बैगमे कपड़ा-वस्तर सैंतए लगलौं, जे आइये गाम चलि जाएब। मन जेना उड़ि गेल रहए तहिना चेहराक रंग-रूप सेहो बनि गेल। तहीकाल माने बैग जे सेरियबैत रही तखने, पत्नी आबि बाजैथ किछु ने मुदा बैगकेँ अपना नजैरसँ देखि रहल छेली। देखि रहल छेली जे जखन कखनो केतौ जाइ छैथ, माने पति केतौ जाइ छैथ, तँ कहि दइ छला, मुदा आइ किछु ने कहलैन।

अपना जेना परिवारक संग विरक्ति भऽ गेल तहिना मनमे उठि गेल जे पत्नी दिस आँखि उठा एक्कोबेर नै देखी। देखी अपन जीवन। परिवार कहियौ आकि लगक सम्बन्धित लोक, तइसँ जखन विरक्ति भऽ गेल तखन दोसर दिस वैरागीक बाट खुजिये गेल। खुजि गेल ई जे पचास बरख रहैबला कोठा माने मजगूत घर, जे अप्पन जिनगी भरिक कमाइसँ बनबै छैथ जे अपना पछातियोक पीढ़ीक एकटा भार मेटा देत, तैठाम आजुक परिवेशमे आधुनिकताक रंग चढ़बैत, बेटा ओकरा तोड़िकऽ रंग-रूप बनबै पाछू बेहाल अछि। यएह तँ छी जीवनक मूल तत्त्वक संग मजाक उड़ाएब..! खाएर जेतए जे होउ, अप्पन धियान शहरसँ गाम दिस भागि रहल छल।

ऐ साल माने अखन मई मास छी, मार्चक अन्तिम समयमे सातटा बैग, माने सात रंगक बैग, कीनने छेलौं आ पुरना बैग सभसँ एकटा कोठरीए अजबाइर अछि। पहिने केतौ एको दिन-ले जाइ छेलौं तँ अप्पन दाढ़ी बनबैबला रेजरक संग कपड़ा, टूथब्रश, खाइ-पीबैक वस्तु रखैत-रखैत बड़का बैग भरि जाइ छल, मुदा आइ से सभ नइ भेल। छोटका बैगमे एक जोड़ लूँगी, एक जोड़ धोती, तहिना गंजी-गमछा समेटि जखन तैयार भेलौं तखन पत्नीपर नजैर देलिऐन। बुद्धदेव जकाँ पत्नीसँ मुँह चोरा कऽ नइ ने भागब। बजलौं-

गाम जाएब।

पत्नी असमंजसमे पड़ि गेली। असमंजसमे ई पड़ली जे एक तँ बिना नियार-भासक एकाएक गाम जाइले तैयार होइत देखै छिऐन। मिथिला बंगलोर नइ ने छी जे धिया-पुता माने बच्चाकेँ पतिक कोरामे देबैन आ अपने बैग-झोरा लऽ कऽ आगू-पाछू उठि विदा हएब। माइक कोरामे जँ कोनो बच्चा मल-मूत्र तियाग करैए तँ ओ मातृभूमिमे समा जाइए मुदा पितृभूमि तँ पितृभूमि छी, जैठाम किछु बर्जित तँ अछिए। पत्नी बजली-

अहाँ पुरुख-पात्र छी, घरे भरिक विचारमे ने हम संग देब। अप्पन गाम जाइ छी, तइमे हम की कहब जे जाउ कि नइ जाउ।

पत्नीक मन सक्कत छेलैन्हे जे दू-दिन, चारि-दिन तँ बेसीकाल पति बाहरे रहै छैथ, तहिना ने गामो जेता आ औता।

 

पत्नीक विचार सुनि एकाएक मनमे उठल, आइये गाम पहुँचक अछि। आबा-गमनक सुविधा बढ़ने बंगलोर आ मिथिलांचलक दूरी चारि घन्टाक भऽ गेल अछि। तीन बजे बेरुपहर डेरासँ निकलब आ सात-आठ बजे तक गाम पहुँच जाएब। गामक सिनेह मनकेँ तेते सिनेहासिक्त कऽ देलक जे मनमे हुअए अखने गामक सीमानमे प्रवेश करी। उचटल-उचटल सन मन छेलए-हे, मुदा किछु समय तँ आरो डेरामे बितबए पड़त। मन वौड़ा रहल छल जे गामसँ की सोचि बंगलोर आएल रही आ आइ की लऽ कऽ गाम जा रहल छी? अप्पन जवानीक तीस बर्खक समय बंगलोरमे बितेलौं। जइ मातृभूमिक महत्व सदिकाल अकासमे लॉडस्पीकरक माध्यमसँ गूंजाइमान रहैए तइ समाज ले हम की केलिऐ? अपने मन अपना मनकेँ बुझौलक जे बीतल दिनक घटना बीतल दिनक बीतल भेल। गामक प्रति जिज्ञासा मनमे तेते प्रवल भऽ गेल जे बंगलोरक छिड़ियाएल जीवन मनसँ मेटा गेल। मनमे खाली गामेक जीवनटा रहल। समयानुसार डेरासँ निकैल हवाई जहाज पकड़ैले एयरपार्ट विदा भेलौं। परिवारमे पत्नीए टा बुझि रहल छेली जे गाम जा रहल छी, चारू बेटा तँ डेरामे छेलए-हो नहि, तखन बुझत केना।

 

जहाजमे जखन बैसलौं तखन ललित काका मोन पड़ला। जहिया गाममे रहैत रही, माने तीस साल पूर्व, तहिया ललित काका साठि बर्खक उमेर पार कऽ चुकल छला। हुनकासँ अन्तिम भेँट जहिया भेल, तहिया ओ कहने रहैथ, बौआ श्याम, अखन तक अपना ई नइ मोन अछि जे आइ धरि कहियो कोनो बीमारी छोड़बैले, माने रोग छोड़बैले, सूइया लेलौं अछि। विरले कहियोकाल कोनो गोटी खेने हएब। लगले अपने मनमे लाज उठल जे जखन अप्पन परिवारकेँ बंगलोरमे छोड़ि जा रहल छी तखन सभसँ पहिने हुनके (ललिते काका) ऐठाम जा अप्पन सभ बात कहबैन।

गाम पहुँचला पछाइत अपना ऐठाम नइ गेलौं। ओना, पितियौत भाइक परिवार सेहो छैन मुदा अप्पन मन ऐ विचारपर आरूढ़ छल जे जे ललित काका नब्बे बर्खक उमेर पार कऽ लेलैन आ अखनो ओहिना क्रियाशील छैथ, तैठाम अपने पचास बरख बितैत-बितैत मनमे होइए जे ऐ जीवनसँ मरबे नीक!’ तँए, सभसँ पहिने हुनकेसँ भेँट करब नीक।

 

ललित काका दरबज्जेपर बैसल रहैथ। मिथिलाक दरबज्जाकेँ सोल्होअना तँ नहि मुदा पनरहअना जरूर देवालयक धर्मशाला कहले जा सकैए। दरबज्जापर अतिथि-अभ्यागत देखि घरवारी अपन अहोभाग्य मनैबिते छैथ। बिना परिचय-पात भेनौं एक लोटा पानिक स्वागत करिते छैथ। ओना, आजुक परिवेश विषाक्त भइये गेल अछि, मुदा गामोक परिवेश सोल्होअना तँ मेटाएल नहियेँ अछि। ललित कक्काक दरबज्जापर पहुँचते प्रणाम करैत बजलौं-

काका, गोड़ लगै छी, हम श्याम छी।

ओना, देखिते पहिने ललित काका ऊपर-निच्चाँ तजबीज करए लगला मुदा बजिते सोल्होअना चीन्ह गेला। ललित काका बजला- बौआ श्याम, पहिने हाथ-पएर धुअ। हाथ-पएर धोने चाइलिक थकान मेटाइए। कहुना भेलिऐ तँ अपना सभ मिथिलाक मैथिल ने भेलिऐ। जहिना दूधकेँ मोहि मक्खन बनैए तहिना ने अपनो सभ माथकेँ मथि-मथि मैथिल बनल छी।

अप्पन मुँह बन्ने रखने रही। उमेर पेब एते तँ बुधि भइये गेल अछि जे अनका मुँहक बात बेसी सुनी। बजलौं-

हँ से तँ छीहे।

एकाएक ललित कक्काक मन विश्वाससँ भरि गेलैन। तैबीच ललित कक्काक पोती- सुनीतिया, चाह नेने दरबज्जापर पहुँचल। दुनूगोरे माने अपनो आ ललितोकाका चाह पीलौं। ललित काका अखनो अपने हाथे पान लगबै छैथ। जहिना भानस केनिहारि भनसिया अप्पन मनोनुकूल भोजन बनबै छैथ तहिना अप्पन मनक अनुकूल ललित काका पान लगबै छैथ। ओना, मुँहमे दाँत एकोटा ने छैन मुदा चेहरा एते पुष्ट छैन जे टुटल दाँतक कोनो लक्षण ऊपरसँ नहियेँ देखि पड़ै छैन। पान लगबैत ललित काका बजला-

केहेन पान खाइ छह, श्याम? माने खिल्ली छोट कि पैघ?”

बजलौं-

काका, पान नइ खाइ छी।

ललित काका बजला-

हँ, आब तँ तूँ बंगलोर-वासी भऽ गेलह, तँए मिथिलाक रीति-रिवाज, माने मैथिलपन बिसैर गेलह।

ओना, मनमे हुअए जे कहिऐन- ‘काका आजुक परिवेशमे लोककेँ एते छुट्टी छै जे घन्टा-घन्टा भरि पानक दोकानपर लाइनमे लागल रहत आकि अपने हाथे जँ दसो बेर, माने दिन-राति मिला, पान लगौत तँ दू-तीन घन्टा समय ओहीमे देत। मुदा बजलौं किछु ने। बजलौं एतबे- काका, किए एलौं से एकोबेर पुछबो ने करै छी।

ललित काकाकेँ जेना नैतिक क्रोध उठि गेलैन तहिना बजला-

बड़ बुड़िवान छह हौ, एहनो विचार कियो करैए जे दरबज्जापर आएल अभ्यागतकेँ पुछैन जे अहाँ किए एलौं। पुरुखक[3] दरबज्जा छी आकि मौगीक जे पुछबह तूँ किए एलह?”

एक तँ ओहुना जँ कोनो भूल-चूक भऽ जाए आ श्रेष्ठजन जँ ओकर निवारण कऽ दैथ तँ मानि लेबाक चाही। बजलौं- काका, जहिना लोक गीत-भजनमे गबै छैथ जे खाली हाथ एलौं आ खालीए हाथ चलि जाएब, तहिना अपनो भेल। जखन जवान भेलौं तखन गामक स्थितिमे सोच बनल, अप्पन समाज जे सामन्तशाही रहल, तइमे अधिकांश जन-गणक जे सोच बनैए, तइ अनुकूल अभावक जिनगी तँ छेलए-हे। तहूमे सभ कथुक अभाव, अन्न, वस्त्र, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि अधिकांश लोकक जहिना बनल आबि रहल अछि तहिना अपनो छल। तँए, अप्पन जीवन सुधारैले गाम छोड़ि बंगलोर गेलौं।

एकाएक बंगलोरक सीमामे अबिते विचार ठमैक गेल जइसँ बोलती बन्न भऽ गेल। चुप देखि ललित काका बजला- 

बौआ, चुप्प किए भेलह। गाममे एकटा कि तोहीं टा भेलह हेन जे बंगलोर गेलह, आकि जेठुआ उजैहिया कहक आकि धारक माछक अवारि जकाँ भेल अछि।

मनमे भेल जे अप्पन पेटक सभ बात कक्काक सोझामे उझैल दिऐन जे पाइक बलेँ जे सुन्दर जीवनक कल्पना केने छेलौं, सभ मटियामेट भऽ गेल। जैठामक, ऐठाम बेकतीसँ परिवार, परिवारसँ समाज आ समाजसँ देश-दुनियाँ अछि, श्रमशील शक्ति जेतेक प्रवल होइत जाएत ओइठामक बेकतीसँ समाज धरि ओतेक आगू बढ़त माने ऊपर चढ़त आ जैठामक श्रमहीन शक्ति जेतेक अथवल होइत जाएत ओइठामक बेकतीसँ समाज धरि ओते मटियामेट होइत जाएत। मुदा से सभ किछु ने बजलौं, ओ ऐ दुआरे जे ललित कक्काक विचार जानए चाहि रहल छी। सोल्होअना मन कबूल कइये नेने अछि जे नब्बे बरख टपला पछातियो ललित काकामे वएह सोचो आ विचारो, आइयो ओहिना मनमे प्रवाहित भऽ रहल छैन जे जीवनक शुरूआतमे छेलैन। एक तँ ओहुना आजुक परिवेशमे नब्बे बरख जीब लेब ठट्ठा नहियेँ छी, मुदा विचारक संग टकुआटान जीब लेबे ने जीवनक सार्थकता छी। ललित कक्काक आगूक विचार बुझै दुआरे बजलौं-

काका, आब गामेमे रहब।

मुस्कुराइत ललित काका बजला-

आब तोरा सबहक बास गाममे थोड़े हेतह।

पुछलयैन-

से किए काका?”

ललित काका बजला-

ई नइ बुझल छह जे मिथिलाक गाम महादेवक त्रिशूलपर अछि।

केते गोरेक मुहेँ सुनने जरूर छी, मुदा महादेवक त्रिशूलपर अछि, से बुझिये ने रहल छी। बजलौं-

से केना काका?”

ललित काका बजला-

जहिना देशमे एकदिस सामन्ती विचार आ काज चलि रहल अछि, तहिना दोसर दिस पुरान पूँजीपतिक, माने पूर्वक जरूरतक अनुकूल जिनकर कारोबार छेलैन आ नव पूँजीपति, जे नव मशीनक संग नव जीवन गढ़ए चाहि रहल अछि, जेकर फलाफल देखिते छहक, टाटा-बिड़लाकेँ, जे किछु दिन पूर्व तक देशक सभसँ पैघ पूँजीपति छला, आइ ओ बहुत पाछू पड़ि गेला। अही त्रिशूलमे अपनो सभ आ समाजो लसकल छी।

ललित कक्काक विचार सुनि मनमे भेल जे किए ने ललित काकाकेँ दसम दशकक वा सइयम दशकक बधाइयो दइये दिऐन। बजलौं-

काका, टकुआटान जिनगीक लेल अपनेकेँ बधाइ।

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शब्द संख्या : 2302, तिथि : 19 मई 2023   



[1] साए रूपैआक नोट

[2] दू हजरिया

[3] पौरुषक


TAKUAATAAN (टकुआटान)

Collection of Maithili Stories by Shri Jagdish Prasad Mandal  

ISBN: 978-93-93135-47-6

दाम: 250/- (भा.रू.) 

सर्वाधिकार: © लेखक (श्री जगदीश प्रसाद मण्डल)  

पहिल संस्करण: 2023 

प्रकाशक: पल्लवी प्रकाशन 

तुलसी भवन, जे.एल.नेहरू मार्ग, वार्ड नं. 06, निर्मली 

जिला- सुपौल, बिहार : 847452

मुद्रक: पल्लवी प्रकाशन (मानव आर्ट)

वेबसाइट: http://pallavipublication.blogspot.com 

ई-मेल: pallavi.publication.nirmali@gmail.com 

मोबाइल: 6200635563; 9931654742 

फोण्ट सोर्स: https://fonts.google.com/, 

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आवरण: श्रीमती पुनम मण्डल, निर्मली (सुपौल), बिहार : 847452

अक्षर संयोजन: डॉ. उमेश मण्डल

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