ढाई आखर प्रेम का


अपनी बात

******

मैं मिथिला से हूँ। आठो पहर मैथिली माहौल में गुजरता है। मैथिली से ही ऑनर्स कर रही हूँ। पठन-पाठन के अलावे हिन्दी से जुड़ाव का कोई अन्य माध्यम मेरे जीवन में अभी तक नहीं है। वाबजूद इसके मेरी पहली रचना हिन्दी में आपके समक्ष प्रस्तुत है। ऐसा क्यों? इसकी व्याख्या मैं नहीं कर सकती। खैर... मेरे घर का माहौल काफ़ी पठन-पाठन वाला रहा है। कह सकते हैं कि विरासत के तौर पर साहित्य का संसार मिला है। मेरे बाबा श्री जगदीश प्रसाद मण्डल मैथिली साहित्य के कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। इसके अलावे लेखकों की रचनाओं को प्रकाशित होते देखना, शोधार्थियों द्वारा दादाजी व पिताजी से संपर्क साधते हुए देखना, उनके साहित्य, पांडुलिपियों व जीवन-शैली को देखना, घर में अनाजों से ज्यादा किताबों का होना इत्यादि मेरे लिए वरदान साबित हुआ। ये सब मेरे स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण का नतीजा है। बस एक कमी रही कि खुद पर विश्वास बहुत देरी से हुआ।

विश्वास दिलाने में सब से पहले मैं अपनी प्यारी बहन लल्ला (तुलसी) का जिक्र करना चाहूँगी जो मेरी सबसे अच्छी सहेली है, जो मेरी हर रचना की पहली पाठिका भी है! इसी के पाठकीय प्रतिक्रियाओं ने मेरे आत्मविश्वास की नींव रखी।

यह शुरुआत माँ, पापा, लल्ला और भाई मानव के बगैर कल्पना मात्र होती। इन सबों का साथ बरगद की तरह रहा जिसके छांव में न बारिश का डर रहा, न तूफान का और न धूप का।

रामश्रेष्ठ दिवाना सर, जिन्होंने आशीर्वचन के रूप में इस पुस्तक की भूमिका लिखी है, उन्होंने मेरे हौसले को बढ़ाने का कार्य किया है। सर का सादर आभार.. प्रणाम...।

अवधेश भाई, जो पहली कविता से अन्तिम कविता तक साथ रहें और आज भी  साथ हैं। साथ देने के लिए थैंक्यू भैया!

यायावर सर, जिन्होंने साझा संग्रह फलकमें जिस तरह मेरी कविताओं को स्थान दिया ठीक उसी तरह अभय सर ने भी सिलवटेंमे कविता प्रकाशित की। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। इस तरह अन्य साझा संग्रहों एवं पत्रिकाओं में मेरी रचनाओं को स्थान देने वाले तमाम सम्पादकों का सादर आभार!!

अखिलेश पाण्डे भैया, अजीत भैया, संजय भाई जी, तौकिर सर, शिव कुमार सर, राम विलास सर, रामेश्वर सर, राजदेव सर, रामप्रवेश अंकल, वीरेन्द्र अंकल, रामचन्द्र अंकल, लालदेव सर, प्रदीप अंकल, अर्जुन सर, अतुलेश्वर सर, श्याम सर, ललन सर एवं गजेंद्र सर आप सबों को सादर नमन। इसके साथ ही दुर्गेश जी, श्रवण जी, विपुल जी, साकेत जी, सोविन जी, निर्भय जी, शुभम जी, मनोज अंकल, नवरत्न अंकल, मनीष अंकल, सौरभ भाई जी, सुधीर मामा, नीरज मामा, अवनीश भाई, अवधेश भाई, अखिलेश भाई और मिथिलेश चाचा आप लोगों का साथ अपेक्षित है। आप सबों को सादर धन्यवाद.. प्रणाम..!

हितांशी रूंगटा, अंजली ठाकुर, वन्दना पाठक, आपी शहनाज हासमीं, मधु, अंजना, काजल, शशिप्रभा, जया वर्मा दीदी, रीना दीदी, आशा आंटी, पूनम आंटी, नेहा (रिफत) दीदी और मुन्नी दीदी को कैसे भूलूँ कि ये लोग हमेशा तकादा करती रहीं कि किताब कब छप कर आएगी? मुझे लगता है कि मेरे आत्मविश्वास को बढ़ाने में इन लोगों की भी खास भूमिका रही है।

धन्यवाद व आभार ज्ञापन को हू-ब-हू लिखना चाहूँ तो इसकी कड़ी काफी लंबी हो जाएगी। चाहकर भी कुछ-न-कुछ अपूर्ण रह जाएगा। इस परिस्थिति में उन सभी शुभचिंतकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ जिन्होंने इस रचना में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मदद की है।

एच.पी.एस कॉलेज, निर्मली के हिंदी सहायक प्राध्यापक श्री राजीव कुमार सर का विशेष आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने इस पुस्तक की त्रुटियों के निराकरण हेतु अपना अमूल्य समय दिया।

मंचों पर काव्यपाठ करते देख जिनका सबसे पहले फोन आता है और जिनकी अलग उत्साह वाली खुशी होती है इस कड़ी में उनको नहीं भुला जा सकता, वे हैं मेरे पूज्य नाना जी और नानी माँ! आपको प्रणाम!!

मैंने अपने आस-पास जो देखा, जिस जीवन को जिया, जो कुछ सीख रही हूँ उसे लिखने की कोशिश की हूँ।

मैं कविता क्यों लिखती हूँ, कविता लिखने के पीछे क्या कोई स्वार्थ है? क्या मेरी कविताएँ समाज को बदलेगी? ऐसे तमाम सवालों का एक ही जवाब है कि जब तक किसी मनुष्य की पीड़ा, मुझे मेरी पीड़ा लगती रहेगी, तब तक मैं बिना किसी मोल-जोल के लिखूँगी, सच लिखूँगी, वर्तमान लिखूँगी, लिखती रहूँगी..!

कविता मेरे लिए जीवन जीने जैसा है जिसे मैं जी भी रही हूँ। बिल्कुल इस सोच से परे होकर कि बहुत अच्छे से, क्योंकि मुझे लगता है कि बहुत अच्छे के चक्कर में हम अच्छा भी नहीं कर पाते। सुधार ताउम्र होते ही रहता है लेकिन शुरुआत एकदम सुघर ही हो, ऐसा मेरा विश्वास नहीं। चलते हुए गिरना लाजिमी है और एक दिन दौड़ लगाना इसका एक विकसित रूप है। जैसे कबीर कहते हैं "धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय" तो बस सब होगा... होता जाएगा... धीरे-धीरे।

हालांकि इन कविताओं को लिखने में मैं कितनी सफ़ल हूँ ये मैं डिसाइड नहीं कर सकती, करना भी नहीं चाहिए। निर्णय व प्रतिक्रिया का जिम्मा आप पाठकों के ऊपर छोड़ती हूँ इस आशा के साथ कि आपकी एक नज़र किसी एक कविता पर अवश्य पड़े। यही मेरी सफलता होगी!

-पल्लवी

निर्मली (सुपौल)




भूमिका

अगर हमें कविता की गहरी संवेदना और अनुभूतियों से साक्षात्कार करना है तो विश्व के रचनाकारों के साहित्य को भी जानना पड़ेगा।

कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नोबेल पुरस्कार लेते वक्त एक महत्वपूर्ण बात कही थी- यह पुरस्कार कबीर की कविताओं को मिल रहा है। अगर कबीर की कविताओं से मैं दूर रहता तो उनकी कविताओं की गहरी संवेदना, जीवन की अनुभूतियाँ और उनकी कविताओं का इंकलाबी पैगाम मुझे नहीं मिलता है। अगर ऐसा होता तो मैं नोबेल पुरस्कार की कल्पना भी नहीं कर सकता था।

शायद पहली बार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कबीर की सौ कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद कर विश्व पटल पर रखा था। उनकी कविताओं का प्रभाव ही था कि एक कविता में टैगोर ने लिखा-

मत जाओ मन्दिर फूल चढ़ाने

भगवान के चरणों पर

पहले अपने घर को भरो

प्यार और दया के भाव से।

मत जाओ मन्दिर मोमबत्ती जलाने

भगवान की वेदीपर

पहले अपने को पाप के अंधकार से निकालो

घमण्ड और अहंकार को दिल से निकालो

मत जाओ मन्दिर में झुकाने

प्रार्थना में अपना सिर

पहले अपने साथियों से विनम्रतापूर्वक मिलना सीखो

और अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगो

मन्दिर में जाकर घुटने टेकने की जरूरत नहीं है

जो दबे हुए मनुष्य हैं

पहले उसे उठाने के लिए झुको

मत दबाओ नौजवानों की आवाज

उसे बुलन्द करो

मन्दिरों में जाकर अपनी गलतियों के लिए

क्षमा मांगने की जरूरत नहीं है

हमें जो आहत करे

पहले उसे क्षमा करो।

स्वयं टैगोर ने स्वीकार किया कि कबीर की कविताओं की देन है नोबेल अवार्ड।

मेरी अपनी समझ है कि हर साहित्यकार को आज की तिथि में कार्ल मार्क्स का कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा-पत्र’, विश्वविख्यात् रसियन साहित्यकार गोर्की की माँ’, टॉलस्टॉय की युद्ध और शान्तिको पढ़ना चाहिए। वैसे पुश्किन, लोहिया, दोस्तोदस्वकी, चेखव, पाब्लो नेरूदा, मिल्टन, वर्ड्सवर्थ, अम्बेदकर, सेक्सपीयर, कबीर, रैदास, सावित्री बाई फुले से लेकर आधुनिक युग के रचनाकारों की रचनाओं को भी आत्मसात् करने का प्रयास किया जाना चाहिए।

जब मैंने सुश्री पल्लवी मण्डल की कविताओं का अध्ययन शुरू किया तो इनकी कविताएँ पढ़ने के बाद मैं नि:शब्द हो गया। मुझे लगा कि इनकी कविताओं की संवेदनाओं, जीवन के तीखे अनुभवों और सच्चाई के अथाह सागर में डूबता जा रहा हूँ। इतनी गहरी, संवेदना, कथ्य और शिल्प के अद्भुत मिश्रण के साथ उच्च मानवीय मूल्यों के लाखों-लाख फूलों का अनमोल चमन है, इनकी कविताओं में। कोसी और कमला नदियों के बीच की शस्य-श्यामल धरा पर पली और बढ़ी पल्लवी जी की कविताओं में प्रेम, मिलन, विरह और जुदाई का भी संगम दिख रहा है। नफरत, घृणा, लूट-खसोट और असमानता का विष समाज में जिस तरह फैला है, उस विष को देखकर कवयित्री का अन्त:करण चीत्कार उठती है, देखिए-

कविता को विश्वास है

आज नहीं तो कल क्रान्ति होगी

शब्द-शब्द की ये एक अद्भुत

विचारधारा सिमट कर नहीं रहेगी

साहित्य की इस अनमोल विधा की

एक एक बात की पुष्टि होगी

कविता को यकीन है कि

नफ़रत पर प्रेम हमेशा भारी है!”

औरत को गुलामी की जंजीर में जकड़कर रखने का प्रयास होता रहा है। कभी जाति के नाम पर, तो कभी धर्म और लिंग के नाम पर। मायके में पिता-भाई, ससुराल में पति और बूढ़ी हो जाने पर बेटे की गुलामी की जंजीर में जकड़ दी जाती हैं, उनके सपनों का पंख काट दिया जाता है। देखिए पल्लवी के ये शब्द-

बारह हाथ के साड़ी के पल्लू ने

उनको छुपा दिया चारदीवारी में

जहाँ वो सिर्फ जी रही बच्चों और पति के लिए

शेष अपने परिवार के लिए

उनकी ख्वाहिशों को धर्म रूपी जंग ने जकड़ लिया

क्या थी उनकी पहली या आखिरी उड़ान

इन सवालों ने कभी जन्म ही नहीं लिया.!

कविता के बारे में मेरी अपनी समझ है कि अनमोल कविता की पैदाइश मुहब्बत की कोख से होती है। अगर इंसान के दिल में मुहब्बत और संवेदना नहीं होती तो कविता की पैदाइश भी उसकी कोख से नहीं होती। प्रेम, इस धरती का सबसे बड़ा धन है। सच्चा प्रेम पाकर कोई महात्मा बुद्ध बन जाता है, कोई कबीर, रैदास, मीराबाई और दशरथ मांझी बन जाता है तो कोई कार्लमार्क्स, जेनी, रामास्वामी पेरियार, बुद्धदेव, विवेकानन्द, राहुल सांकृत्यायन सावित्रीबाई फुले बनकर असामनता, अवतारवाद, पाखण्डवाद, पुरोहितवाद और मनुवाद के खिलाफ जंगे-इंकलाब की घोषणा कर देते हैं।

शहीदे-आजम भगत सिंह ने ठीक ही कहा था कि जो किसी से प्यार नहीं कर सकता, वह क्रान्ति भी नहीं कर सकता। क्रान्ति करने की पहली सीढ़ी प्यार करना ही होता है।

इस सन्दर्भ में हम जब सुश्री पल्लवी मण्डल की कविताओं पर सूक्ष्म विचार करते हैं तो पाते हैं कि प्रेम और क्रान्ति के हजारों फूल इनकी कविताओं में खिल रहें हैं। जिन फूलों की खुशबुओं से हजारों-लाखों इंसानों के बंजर दिल के खेतों में करुणा, अहिंसा, शान्ति, दोस्ती और समानता की नदियाँ बहाने की भविष्यवाणी की जा सकती है। देखिए इनके शब्द-

रात कितनी भी काली हो

पर सुबह उजाला ही होगा

कविता अहसास है कि

आज भी है संवेदना!

ठंड में सड़क पर चलते हुए

किसी बूढ़े व्यक्ति के प्रति!”

आगे इनकी कविता के बोल देखिए-

चन्द चीजें बदलती है इंसान की

बदलने दो...

तुम बस प्रेम को बचाए रखना...।

कवयित्री पल्लवी जी को विश्वास है प्रेम के प्रति, गहरी आस्था और समर्पण है उल्फत के प्रति। जीवन में अगर सब लुट जाए, बर्बाद हो जाए, कहीं खो जाय। लेकिन अपने अन्तस में सिर्फ प्रेम को बचाकर रखने की इच्छा पूरी मानवता, इंसानियत और इंकलाब को बचाकर रखने की कवायद है।

इस दुनिया में जो वस्तु जितनी सुन्दर और अनमोल है, उसपर उतना अधिक खतरा है। इस धरती की सबसे महत्पूर्ण चीज प्रेम है। इसलिए इसपर सबसे अधिक खतरा है। आज अगर हम सिर्फ और सिर्फ प्रेम की रक्षा कर लें, संवेदना और बच्चों की मुस्कुराहट को बचा लें। कोयल की कूक, मोर का नाच, बसन्त की मादकता और बालाओं की उन्माद भरी अल्हड़पन को हम बचा लें तो कल इंसान का भविष्य भी बच जाएगा। मानवता का इतिहास बच जाएगा। बच्चों की मुस्कुराहट, कोयल के प्रेम गीत, बसन्त की मादकता और बालाओं की अनमोल अल्हड़पन बच जाएगी। इनकी इसी अल्हड़पन में सागर से अधिक गहरी संवेदना है, आसमान से अधिक ऊँचाई है, चाँद से अधिक शीतलता और फूलों की कलियों से अधिक कोमलता है। मगर खेद है जो आज तक इंसान ने उसकी उस सुन्दरता को देख नहीं सका। मगर सच्चे कलाकार के पास तीसरी आँख भी होती है जिससे वह उस सुन्दरता को देख लेता है।

पल्लवी जी भी कलाकार हैं। उनके पास भी तीन ऑंखें हैं। अपनी तीसरी ऑंख से वह भी इंसान की भीतरी सुन्दरता को देख लेती हैं। देखिए पल्लवी जी के ये शब्द-

मुझसे बर्दाश्त नहीं हो पाता

चित्र या सज्जा की प्रकाश

क्योंकि तमस मिट नहीं रही है

स्त्रियों की जिन्दगी का

जब जीवन नहीं तो

संसाधन का क्या..?

जब लिखा नहीं गया दशाओं पर

फिर देह के साहित्य की प्रतिष्ठा क्या..?”

आगे देखिए-

जिस तरह प्रेम को नफ़रत दबाना चाहती है

उसी प्रकार अच्छाई को बुराई

पर लाख हो यहाँ रुसवाई

अच्छाई बिकने नहीं देती है

हमरा ईमान

जो हमने बनाया है.!

मनुष्य का जीवन सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान से ही नहीं चलता है। जीवन को चलाने के लिए और कई चीजों की जरूरत होती है मनुष्य को। मनुष्य में मनुष्यता अगर नहीं है, मनुष्य में अगर संवेदना और प्रेम की रसधारा नहीं है तो जीवन व्यर्थ-सा हो जाता है। भलें दौलत का अम्बार हो, सोना-चाँदी का भण्डार हो, ‘पटना से दिल्ली तक चलती भी हो। फिर भी मनुष्य के अन्तस में प्रीत रूपी संवेदना नहीं हो तो वैसा दिल और जीवन बंजर-सा हो पाता है। ऐसा देखा गया है कि हर मनुष्य प्यार पाना चाहता है, प्यार के सागर में डूबकर अपना जीवन धन्य करना चाहता है। मगर वह दूसरों को प्यार देना नहीं चाहता है। क्योंकि, प्यार देना किसी को नि:स्वार्थ रूप में मुश्किल होता है। प्यार तो कुर्बानी मांगता है। जो किसी से सच्चा प्यार करता है, वह पाने की इच्छा नहीं रखता है। और जब प्यार के बदले प्रेमी से कुछ पाने की इच्छा रखता है, तब वह प्यार, प्यार नहीं, व्यापार बन जाता है। इस नि:स्वार्थ प्यार की व्याख्या कवयित्री ने कितनी गहरी संवेदना से की हैं-

तुम्हारे आने या न आने से

मेरे प्रेम में कमी नहीं होगी

फूलों को कभी खेद नहीं होता

खुशबुओं के जाने से।

हर सच्चा साहित्यकार आशावादी होता है। निराशाओं के अन्धकार की छाती चीरकर उम्मीद, विश्वास और आत्मबल का झण्डा गाड़कर सफलताओं का नया इतिहास लिखता है। चाहे उनकी राहों में लाखों मंजर आएँ, सपनों का खेत चाहे रेगिस्तान बन जाए, उम्मीदों का बादल बिना बरसे चला जाए, फिर बीती यादें को भूलकर नयी सुन्दर यादों और सपनों का आशावादी संसार बनाने की तमन्नाएँ अपने अन्तस में बचाए रखना किसी के लिए बड़ी उपलब्धि हो सकती है। सुश्री पल्लवी मण्डल की कविताओं में हमें मनुष्यता बचाए रखने की जिद्द जिस गहराई में दिखाई देती, उस तरह अन्यत्र मिलना मुश्किल-सा लगता है। इनके इन शब्दों पर गौर फरमाइए-

जीवन की इस खुली-सी किताब में

आखिरी पन्ना सबसे स्पष्ट है

फिर चिन्ता हमें

हमसे बढ़कर क्युं है?”

आगे देखिए-

पीछे की बातों को पीछे छोड़ो तुम

आगे कदम बढ़ाओ

यादें होती हैं हमसे

हम यादों से नहीं

इस बात को सोचो

और नई यादें बनाओ।

किसी आदमी की बाहरी सुन्दरता प्रकृति देती है लेकिन भीतरी सुन्दरता आदमी को स्वयं ही कठिन तपस्या और संघर्ष करके रचना पड़ता है। बाहरी सुन्दरता अस्थायी होती हैं उसी तरह जिस तरह फूल खिलकर मुरझा जाता है। मनुष्य की बाहरी सुन्दरता मुरझाए हुए फूल की तरह होती है। परन्तु दुर्भाग्य है कि आदमी बाहरी सुन्दरता पर ही मंत्र-मुग्ध होकर कुर्बान होने को तैयार रहता है और भीतरी सुन्दरता को देख नहीं पाता।

जबकि आदमी को भीतरी सुन्दरता ही कालजयी बनाती है, अमर बनाती है। अगर आप इंसान की भीतरी सुन्दरता की परिभाषा जानना चाहते हैं तो जिस दिल में अगम-अथाह प्यार का सागर हों करुणा, अहिंसा, समानता और विश्व-शान्ति के अनन्त सपने हों। तो उस दिल में इश्क के लाखों फूल भी होंगे; मानवता के सूरज-चॉंद भी होंगे और इंकलाब का पैगाम भी होगा, वैसा ही दिल भीतर से सुन्दरता का सारा आकाश समेटा होगा।

इसलिए आपने प्रेम को जान लिया, आत्मसात कर लिया तो सारी दुनिया को जान लीं। प्रेम न जाना तो कुछ न जाना। महामूर्ख बनकर जीवन गँवाने जैसा होगा। कबीर ने तो यह तक कह दिया-

पोथी पढ़-पढ़कर जग मुवा

पण्डित भया न कोय!

ढ़ाई आखर प्रेम का

पढ़े सो पण्डित होय।

कबीर जैसा मानवतावादी दर्शन बिरले ही देखने को मिलता है। जब सत्तर के दशक में चिली के विश्वविख्यात् कवि पाब्लो नेरूदा को प्रेम कविता लेखन के लिए नोबेल अवार्ड मिला था तो चिली के लोग ही नहीं, विश्व भी अचम्भित रह गया था। क्योंकि, चिली के लोगों ने प्रेम की अनमोल कविता लेखन के लिए उन्हें कितनी बेमतलब की उपमाओं से प्रताड़ित किया गया था।

इसलिए मेरा मानना है कि सब कुछ बिना प्रेम का चल जाएँ, मगर प्रेम बिना कविता एक कदम नहीं चल सकती। क्योंकि, बिना प्रेम की प्रकृति भी नहीं है, हवाएँ नहीं हैं, घनघोर बरसता बादल नहीं है, बसन्त की मादकता नहीं है। कोयल के गीत और चाँदनी रात भी नहीं है। फिर भी प्रेम को ही लाखों-लाख, गालियाँ, बद-दुआएँ, नफरत के अनन्त नासूर और मौत की खाइयाँ मिलती हैं तथा झूठ-फरेब, पाखण्ड और नफरत की ऊँची-ऊँची कुर्सियाँ और सत्ता का शान मिलता है। इस संगीन प्रश्न पर पल्लवी मण्डल की कविता क्या सोचती है? देखिए-

तुम्हें क्या बनना है

ये तुम्हें देखना पड़ेगा

गर बनना है बेहतर

तब बेहतरीन मेहनत करनी पड़ेगी

पत्थर से मूर्ति बनने में

वक्त के साथ चोट भी खानी पड़ती है

उसी तरह चोट छेनी-हथौड़ी का समाज देता है

इसलिए तुम्हें ख़ुद के लिए

ख़ुद ही लड़ना पड़़ेगा।

आगे वह कहती हैं-

तुम और मैं जब साथ हों

ना निकलें सूरज और ना कभी रात हो

जिन्दगी चले साथ जैसे शुरुआत हो.!

मिले तुमसे तो इस तरह मिले

फिर न कभी बिछड़ने की बात हो.!

जिन्दगी बीत जाए तेरी बाँहों में

हमें न किसी बड़े से महल की आस हो.!

बस तुम्हारा प्रेम मिलता रहे

और यूँ ही कविताओं की बरसात हो.!

मुझे लगता है कि स्त्री की मुक्ति के तीन रास्ते हो सकते हैं। पहला रास्ता अक्षरों और शब्दों की दुनिया पर कब्जा करना। जब तक ज्ञानरूपी अक्षरों और शब्दों पर स्त्री का अधिकार न होगा, तब तक वह अपनी आजादी की लड़ाई नहीं लड़ सकती, झूठ और सच में फर्क नहीं समझ सकती। इसलिए ज्ञान की दुनिया पर उसे अधिकार जमाना होगा।

स्त्री की मुक्ति का दूसरा रास्ता है- प्रेम करना। अपने महबूब से इसतरह प्रेम करके मिल जाना जैसे सूरज में ताप, फूल में खुशबू, चाँद में चाँदनी और सागर में लहरें मिली होती हैं। क्योंकि, बिना सच्चा प्यार किए कोई इंसान भीतर से सुन्दर नहीं हो सकता और बिना सुन्दर बने अपनी आजादी की लड़ाई भी नहीं लड़ी जा सकती।

स्त्री की मुक्ति का तीसरा रास्ता है- ईश्वरीय सत्ता पर थूक देना। जब तक स्त्री मन्दिर-मस्जिद़ में भटकती रहेगी, पूजा-पाठ, जप-तप-यज्ञ करती रहेगी। मंगलवारी, शुक्रवारी और शनिवारी करती रहेगी, तक तक मर्दों की लात खाती रहेगी और मर्दों के द्वारा उनका बलात्कार होता रहेगा।

भारत के महान सन्त विवेकानन्द ने लिखा कि- “21वीं सदी शूद्रों की होगी। मगर शूद्र की राजसत्ता में भी शूद्र लात खाता रहेगा। क्योंकि, ब्राह्मणों ने इनके दिमाग में ईश्वर नाम का भूत घूसेर दिया। जब तक इन भूतों से उन्हें आजादी नहीं मिलेगी, तब तक असली आजादी नहीं मिलेगी।

मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि सुश्री पल्लवी मण्डल की कविताओं का मर्म विवेकानन्द, कार्ल मार्क्स, भगत सिंह, अम्बेदकर, सावित्री बाई फुले जैसे दार्शनिकों के दर्शन जैसा दिख पड़ता है।

पल्लवी जी के दादा श्री जगदीश प्रसाद मण्डल मैथिली के प्रख्यात् उपन्यासकार हैं। पिछले वर्ष इन्हें साहित्य अकादेमी मूल पुरस्कारसे सम्मानित किया गया था। इनके पिता डॉ. उमेश मण्डलजी मैथिली के चर्चित कथाकार हैं और इनकी माता श्रीमती पूनम मण्डल जी ने इन्हें उसी तरह गढ़ा है जैसे कुम्हार अपनी चाक पर बर्त्तन गढ़ता है। इस परिवार के साहित्यिक वातावरण ने पल्लवी जी को कविता के चमन में फूल बनाया है। इन्हीं शब्दों के साथ-

कमला-कोसी में जब तक पानी रहे

पल्लवी की अमर जिन्दगानी रहे।

कांटों के रेगिस्तान में भी

फूलों जैसी इनकी कहानी रहे।

बंजर धरती की कोख में यारो.!

इश्क-शायरी की भी रवानी रहे..!!

 

- राम श्रेष्ठ दीवाना

राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष

भारतीय ओबीसी लेखक संघ।

 

मधुबनी

22 फरवरी 2023  



 

 

 

DHAI AAKHAR PREM KA  

Anthology of Hindi Poems by Sushri Pallavi Mandal

 

ISBN: 978-93-93135-42-1

सर्वाधिकार © लेखिका (सुश्री पल्लवी मण्डल)

प्रथम संस्करण: 2023

मूल्य: 200/- (भा.रू.)

 

प्रकाशक: पल्लवी प्रकाशन

तुलसी भवन, जे.एल.नेहरू मार्ग, वार्ड नं. 06, निर्मली

जिला- सुपौल, बिहार : 847452

मुद्रक: पल्लवी प्रकाशन (मानव आर्ट)

 

वेबसाइट: http://pallavipublication.blogspot.com

ई-मेल: pallavi.publication.nirmali@gmail.com

मोबाइल: 6200635563; 9931654742

 

फोण्ट सोर्स: https://fonts.google.com/,

https://github.com/virtualvinodh/aksharamukha-fonts

अक्षर संयोजन: सुश्री पल्लवी मण्डल

आवरण चित्र: श्री दुर्गेश मण्डल

आवरण: श्रीमती पुनम मण्डल, निर्मली (सुपौल), बिहार : 847452

 

 

इस पुस्तक का सर्वाधिकार सुरक्षित है। कॉपीराइट धारक अथवा प्रकाशक के लिखित अनुमति के बिना पुस्तक की किसी अंश की छाया प्रति एवम् रिकॉडिंग सहित इलेक्‍ट्रॉनिक अथवा याँत्रि‍क, किसी माध्यम से या ज्ञान के संग्रहण व पुनर्प्रयोग प्रणाली द्वारा किसी भी रूप में पुनरुत्पादित अथवा संचारित-प्रसारित नहीं किया जा सकता है।


Comments

Popular posts from this blog

ढाई आखर प्रेम का

अप्पन साती