बासभूमि

 



BAASBHOOMI 

Collection of Maithili Stories by Shri Jagdish Prasad Mandal  


ISBN: 978-93-93135-43-8

दाम: 250/- (भा.रू.) 

सर्वाधिकार: © लेखक (श्री जगदीश प्रसाद मण्डल)  

पहिल संस्करण:  2023 


प्रकाशक: पल्लवी प्रकाशन 

तुलसी भवन, जे.एल. नेहरू मार्ग, वार्ड नं.: 06, निर्मली

जिला- सुपौल, बिहार : 847452

मुद्रक: पल्लवी प्रकाशन (मानव आर्ट)


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ई-मेल: pallavi.publication.nirmali@gmail.com 

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आवरण: श्रीमती पुनम मण्डल, निर्मली (सुपौल), बिहार : 847452

अक्षर संयोजन: डॉ. उमेश मण्डल 


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#बासभूमि  

सूर्यास्त भऽ गेल मुदा अन्हारक कोनो लक्षणक आगमन नहि भेने दिने जकाँ मौसम साफ। 

तीन कट्ठा बरसाती बैंगन केने छी, ओकरे कमठौन कऽ आएले रही, खुरपी हाथमे रहबे करए कि दुनू बापूत ललित भाय पहुँचला। ललित भायकेँ देखि बजलौं- 

“भाय, अहाँ चौकीपर बैसू, हम कने खुरपी रखि हाथ-पएर धोइ अबै छी, पछाइत गप-सप्प करब।” 

जहिना बजलौं तहिना दुनू बापूत ललित भाय दरबज्जाक ओसारपर राखल चौकीपर बैसला। अपने खुरपी रखि बेटीकेँ शोर पाड़लिऐ। जहिना शोर पाड़लिऐ तहिना राधा आँगनसँ आबि पुछलक- 

“की कहै छी?” 

कहलिऐ- 

“चाह बनौने आबह। ताबे हमहूँ हाथ-पएर धोइ लइ छी।” 

बिना किछु बजनहि राधा चाहक ओरियानमे आँगन गेल आ अपने चापाकलपर जा हाथ-पएर धोइ, पानि पीब दरबज्जापर आबि ललित भाइक बगलेमे चौकीपर बैसलौं। 

ओना, चेहरा-मोहरासँ देवकान्तकेँ चिन्हते छेलिऐ, माने ललित भाइक बेटाकेँ, मुदा परदेश गेने चेहरो-मोहरा आ चालियो-ढालि तँ किछु-ने-किछु बदलिऐ गेल अछि तँए चिन्हैमे कनी दुविधा भेल।  

चौकीपर बैसिते राधा चाह नेने आएल। ओना, तीनू गोरेले चाह अनने छल मुदा देवकान्त चाह पीबैसँ इन्कार करैत बाजल- 

“काका, हम चाह नइ पीब।” 

देवकान्तक मुहसँ ‘नहि’ सुनि मनमे भेल जे भरिसक शिष्टाचार दुआरे देवकान्त चाह पीबैसँ इन्कार करैए। ओना, आजुक जे परिवेश बनि गेल अछि तइमे एहेन शिष्टाचार मेटा गेल अछि। ओना, केतबो मेटा किए ने गेल अछि मुदा बेकती-विशेषमे अखनो जीवित अछिए। बजलौं- 

“देवकान्त, खेबा-पीबामे नइ लजेबाक चाही। आब ओ युग-जमाना रहल जे लोक चाहकेँ पेय पदार्थ बुझि अपनासँ श्रेष्ठ लग नइ पीबै छल। आब तँ चाहक रूपेँ बदैल गेल अछि, जहिना कलौ-जलखै लोक करैए, तहिना चाहक चलैन परिवार-परिवारमे भऽ गेल अछि।” 

देवकान्त किछु बाजल नहि, मुदा एते जरूर केलक जे जखन हम दुनू गोरे माने हमहूँ आ ललितो भाय, चारि-पाँच घोंट चाह पीब लेलौं तेकर पछाइत देवकान्त चाहक कप उठा मुँहमे लगेलक। 

ललित भाय पुछलैन- 

“खुरपीक कोन कारबार करै छेलह, मकशूदन?” 

ललित भाइक विचार सुनि बजलौं- 

“भाय, कारबार की करब, जुआ खेलाइ छी।” 

ओना, ललित भाय भीतरसँ जानि रहला अछि जे मकशूदन मेहनती लोक अछि। आइ धरि ने ओ दिवाली पावनिक अवसरपर कहियो जुआक पाशपर बैसल अछि आ ने कोजगराक शिव-पार्वती जकाँ पचीसीक कौड़ी भँजलक अछि, तखन कोन जुआ खेलाइए? ललित भाय बजला- 

“से की, मकशूदन?” 

बजलौं- 

“भाय, पैछला साल लोकक देखा-देखीसँ अपने जही चौमासमे ऐबेर बैंगन रोपने छी तही चौमासमे पैछलो साल बैंगनक खेती केने रही। ओना, पहिनौं करै छेलौं मुदा ओ करै छेलौं अप्पन देशी बैंगनक खेती, जे जेठ-अखाढ़मे रोपै छेलौं आ कातिकसँ फड़ब शुरू होइ छल। अपने खेतमे टेब-टेब बीओ रखै छेलौं आ अपने हाथे ओकरा बनैबतो छेलौं। मुदा पैछला साल लोकक देखसियो आ कहलोपर बरसाती बैंगनक खेती केलौं। माने ई जे रोपलापर चालिसे दिनक पछाइत फड़ए लगैए जइसँ अगता भेने बिकरियो-बट्टा नीक होइए आ महगो बिकाइए। मुदा..!”

जेना ललितो भाय खेतीकेँ अख्यिाइस रहल छला तहिना बजला- 

“मुदा की?” 

बजलौं- 

“भाय, एक तँ अपना हाथक बीआ अनका हाथमे चलि गेल, दोसर तेते ने कीड़ी-फतिंगीक आगमन भेल जे बेचैक कोन गप जे अपनो परिवारमे एको साँझ निरोग बैंगनक तरकारी नइ भेल।” 

ललित भाय बजला- 

“नीक जकाँ तरद्दुत नइ केने छेलहक?” 

बजलौं- 

“भाय की कहब, जहिना लोक बजैए जे महींसक नफ्फा चरवाहीमे गेल तहिना भेल।” 

ललित भाय बजला- 

“से की?” 

बजलौं- “जहियासँ बैंगनक खेती शुरू केलौं तहियासँ रेडियो स्टेशनसँ खेती-बारीक कार्यक्रम सेहो सुनए लगल छी।” 

अप्पन मनक बात ललित भाय नहि बुझलैन, मुदा अप्पन मनक बात मनक टुगनीपर रहबे करैन। जहिना बजलौं तहिना ललित भाय चपचपाइत बजला- “वाह-वाह.! मकशूदन, यएह छी कुशलता अनैक दिशा.!” 

अपना जनैत ललित भाइक मुँहक बात अमृतवाणी कहियौ कि अमरवाणी सन रहैन मुदा नइ बुझने, बजलौं- “से केना ललित भाय?” 

गम्भीर विचारक जकाँ ललित भाय बजला- “जखने कियो अप्पन काजक संकल्प लैत काजमे हाथ लगबैए आ मनकेँ काजक रूप पकड़ैमे लगबैए, तखने ओकर काजक सफलताक दशाक दिशा खुजैए जइसँ जहिना सफलताक इच्छा जगैए तहिना सफलता रसे-रसे एबो करैए। सफलता केतौ बाहरसँ अबैए से बात नहि छै, काजक बिच्चेमे सफलता अछि।” 

ललित भाइक विचार सुनि कखनो मनमे ईहो हुअए जे भरिसक कोनो फल जकाँ, माने आम, जामुन, लताम इत्यादिमे जहिना बीआ भीतरमे रहैए तहिना भरिसक काजक भीतरेमे सफलताक बीआ सेहो अछि। मुदा लगले अपना मनमे ईहो हुअए जे आम-जामुन आकि लताम आदि भगवानक बनौल छिऐन मुदा काज तँ अप्पन बनौल छी, तखन से केना हएत? कखनो मनमे ईहो हुअए जे जहिना बुद्धदेव दू-अढ़ाइ हजार बरख पूर्व भेला आ आइयो लोक हुनका ओहिना देखै छैन तहिना ने बुद्धिदाता सेहो छैथ। मन अगदिगमे पड़ि गेल। बजलौं- 

“से केना भाय?” 

मात्र एगारह धुर घराड़ीमे अप्पन बासभूमि रहितो ललित भाय काजक तेतेक जोगारी छैथ, अनेक रंगक काज, जे अप्पन स्वतंत्र जीवन धारण केने छैथ, जइसँ अप्पन स्वतंत्र विचार सेहो छैन। ऐठाम स्वतंत्र विचारकेँ मनमाना विचार नइ बुझब। मन-मानाक माने भेल जखन जेहेन मन रहल तखन तेहने बजबो केलौं आ करबो केलौं। से नहि, स्वतंत्र विचारक माने भेल निर्विचार, जे केकरो एकतरफा नइ होइए, सबहक एक्केरंग होइए। ललित भाय बजला- 

“मकशूदन, ऐठाम विश्वामित्रक सिरजन नइ बुझिहह, ऐठाम एतबे बुझह जे समाजमे अधासँ बेसी लोक ओहन अछि जे जीवनक अप्पन मूल आवश्यकताक पूर्ति भगवानक भरोसपर छोड़ने अछि आ अधासँ कम अपना हाथमे रखने अछि।” 

ओना, ललित भाइक विचार बुझैले मने-मन योग करिते रही मुदा देखौआ योग केनिहार जकाँ ऊपरका। माने हलुकाहा योग तँ हुअए मुदा भीतरिया योगक पूर्ति भेबे ने कएल। ओ तँ होइए भरिगरहा मनक योग बनौने, जैठाम शब्देक खेलो अछि आ शब्देक वाणसँ राजो-पाटक छीना-झपटी अछि तैठाम खाली गप-सप्पसँ नइ ने हएत। तँए ने कबीर दास खिसियाकऽ कहलैन जे ‘ने किछु देखलौं पाँचो लाख मंत्रक अठारहो पुराणमे आ ने किछु देखलौं संगमरमरसँ बनल बहुमंजिला मकानमे, तँए भाय कहै छी, जे जे अछि ओ रोटीक पपड़ा तरमे नुकाएल अछि।’ 

..बजलौं- “से केना भाय?” 

तइ बिच्चेमे ललित भाइक विचार जेना पाछू दिस घुसैक गेलैन, अकचकाइत बजला- 

“की रेडियो स्टेशन कहलहक?” 

ओना, अप्पन मन जीवनक मूल बुझै दिस प्रवाहित भऽ रहल छल मुदा एकाएक ललित भाय पहिलुका सुनल रेडियो स्टेशनक चर्च उठा देलैन। आगूसँ केना कहितिऐन जे पहिने जीवनक मूल कहि दिअ पछाइत रेडियो स्टेशनक कहब। अप्पन सामंजस करैत बजलौं- 

“भाय, हम्मर प्रश्न बाँकीए अछि।” 

जहिना अपने बजलौं, ‘भाय, हम्मर प्रश्न पछुआएले अछि’, तहिना ललित भाय सेहो बजला- “अपने जइ काजे आएल छी तेकर तँ अखन तक चर्चो ने भेल अछि, तइले कोनो अगुताइ अपना मनमे अछिए नहि आ तूँ लगले औगता गेलह.!” 

संयोगसँ तइ बीच राधा दोहरा कऽ चाह नेने आएल। ऐठाम दोहराकऽ चाह अनैक प्रश्न अछि। अपना सभ गाम-समाजक लोक छी, चाहक ने ओते खगता अछि आ ने ओइ पाछू बेहाले छी। एक बेर जँ भिनसरमे पीब लइ छी तँ साँझेमे पीबाक इच्छो होइए आ परिवारमे तहिना बनितो अछि। मुदा आजुक जे वैचारिक समाज, वैचारिक समाजक माने भेल परिवारसँ आगू बढ़ि समाज आ देश-दुनियाँक विचार करैबला समाज, जीवनक पद्धतिकेँ बदलबे करैए। ऐठाम बंगालक भाँड़ीक चाह नइ कहै छी जे ओ सभ लगले-लागल पीबै छैथ। हुनका सभसंग दुनू समस्या छैन, एक तँ अपना सभसँ पानि मन्द छैन आ दोसर ओ सभ शारीरिक श्रमसँ बेसी मानसिक श्रम करै छैथ, जइसँ मनकेँ तरोताजा बनबै दुआरे सेहो लगले-लागल चाह पीबै छैथ। अपनो परिवारमे एहेन चलैन बनियेँ गेल अछि जे जखन दू-चारि-पाँच गोरे एकठाम बैस कोनो समस्याक वैचारिक समाधान करैक दिशामे गप-सप्प करै छी तखन बीच-बीचमे चाह-पान सेहो चलिते अछि। 

तइ बीचमे ललित भाय चाह पीब गिलास राधाक हाथमे पकड़बैत बजला- “बुच्ची, पानमे टूक सुपारी नइ दिहक। जँ सरोतासँ कतरा बनौल हुअ तँ सेहो बड़बढ़ियाँ नइ तँ सिलौटपर लोढ़ीसँ थकुचि दिहक।” 

तैबीच अप्पन मन असथिर पानि जकाँ समगमक स्थितिमे पहुँच गेल छल। समगम पानि भेल, जइमे डुबैक डर नइ रहल आ अप्पन जीवनक उपयोगी काज कऽ रहल छी। बजलौं- 

“भाय, जखन रेडियो स्टेशनसँ बैंगन-खेतीक चर्च निसचित रूपेँ सुनए लगलौं तखन मन एते उताहुल भऽ गेल जे बैंगनक खेती छोड़ि दोसर किछु ने करब। एते दिन ने एक फसिला, माने एक सीजनक फसल, बैंगनक उपज छल, आब तँ बारहो मासक भऽ गेल अछि, तखन किए ने सालो भरि एक्के रूपक कर्म करी।”

गम्भीर विचारक ललित भाय छथिए। बजला- “मकशूदन, पहिने रेडियो स्टेशनक विचार कऽ लएह। अखन तक भलेँ तूँ नइ मुहसँ निकाललह हेन जे बैंगनक खेतीमे की सभ समस्या भेलह। केतए कोन काज करक चाही आ बुझै बिना करबे ने केलह।” 

ललित भाइक विचार मनमे गड़ल। मुदा करितौं की, पैछला सालक खेती बित गेल। बजलौं- 

“पैछला सालक खेतीमे सएह भेल भाय, खेतक उपज तँ गेबे कएल जे अप्पन मेहनतो आ खरचो सभ बुड़ि गेल!”

ब्रह्मज्ञानी जकाँ ललित भाय बजला- “मकशूदन, अज्ञान बड़का पाप सेहो छी आ धर्मक जनक सेहो छीहे। अज्ञानेसँ ज्ञानक जन्म होइए, तँए सृजनकर्ता सेहो छी। लोक कृष्णकेँ माने कारीरूप—अज्ञान—केँ सभ देवतासँ ऊपर अही कारणेँ ने बुझै छैथ।”

रेडियो स्टेशन सुनिते ललित भाइक नरसिंह जेना हुमरलैन, जइसँ बोलीमे कर्कशपन एलैन। बजला- 

“बौआ मकशूदन, अपना ऐठाम माने अपना देशमे नब्बेसँ ऊपर रेडियो स्टेशन ओहन अछि, जइसँ खेती-पथारीक समाचार हिन्दी वा अन्य क्षेत्रीय भाषामे प्रसारित होइए, मुदा तोहीं कहह जे आधुनिक ढंगसँ जेहेन खेती हेबा चाही तैबीच दूरी अछि कि नहि?” 

अपने तँ दरभंगा रेडियो स्टेशन छोड़ि दोसर स्टेशन सुनै नइ छी तखन देशक आन रेडियो स्टेशनक बात बुझब केना। बजलौं- 

“भाय, अहाँक विचार नीक जकाँ नइ बुझलौं।” 

तैबीच मने-मन जेना ललित भाइक नरसिंह आरो ऊपर चढ़ि गेलैन। मुँह बिजकबैत बजला- 

“भोरुपहर-के खेतीक समाचार सुनै छह?” 

अपने तँ मात्र समाचर सुनैले रेडियो सुनै छी जे चाहे राजधानी दिल्लीक समाचार होउ आकि पटनाक, खेल-कूदक समाचार होउ आकि नाच-तमाशाक, सभकेँ समाचार बुझि सुनि लइ छी। ई थोड़े बुझै छी जे मुख्य समाचारमे खेती-बारीक समाचार अखनो धरि नइ आएल अछि तँए ओकर हाल-चाल के बुझत। बजलौं- 

“नइ।” 

ठोह फाड़ि ललित भाय बजला- 

“भोरू पहर-के जखन खेतीक समाचार सुनबहक, तखन सुनबहक जे कोनो अन्नक खेतीक जखन शुरूआती अवस्था रहैए तखन ओकर भण्डारण केना हएत। यहए तँ छी रेडियो स्टेशनक मरजाद।” 

ललित भाइक मनक वेग देखि बुझि पड़ल जे कोसी-कमला धारक बाढ़ि जकाँ कहीं रस्तेपर ने मोइन फोड़ि दैथ, तँए विचारमे मोड़ दैत बजलौं- 

“भाय, सुनै छी जे बैंगनक तीमन-तरकारी आकि भुरता-तरूआ खेने हौहैट-कलकैल भऽ जाइए, तखन तँ लोक अनेरे ने बैंगनक खेती करैए।” 

खेबा-पीबाक बीह बुझनिहार डॉक्टर जकाँ ललित भाइक विचार सेहो जगलैन। बजला- 

“मकशूदन, बैंगनमे की गुणधर्म अछि से सुनि लएह। प्रति सौ ग्राम, खेबा-जोकर बैंगनमे, 2.2 मिलीग्राम विटामिन- ‘सी’, 0.3 मिली ग्राम विटामिन ‘ई’, 3.5 माइक्रो ग्राम विटामिन ‘के’, 0.039 मिलीग्राम विटामिन- बी1 ‘थायमिन’, 0.036 मिलीग्राम विटामिन- बी2 ‘रिबोफ्लेविन’, 0.649 मिलीग्राम विटामिन- बी3 ‘नियासिन’, 0.281 मिलीग्राम विटामिन- बी5 ‘पैन्टोथेनिक एसिड’, 0.084 मिलीग्राम विटामिन- बी9 ‘फॉलेट’, 0.023 मिलीग्राम ‘लौह’, 9 मिलीग्राम ‘कैल्शियम’, 14 मिली ग्राम ‘मैग्नेशियम’, 0.232 मिलीग्राम ‘मैंगनीज’, 24 मिलीग्राम ‘फॉस्फोरस’, 239 मिलीग्राम ‘पोटेशियम’, 0.16 मिलीग्राम ‘जिंक’, 0.9 ग्राम ‘प्रोटीन’, 0.18 ग्राम ‘बसा’, 5.88 ग्राम ‘कार्बोहाइट्रेट’, 3.53 ग्राम चिन्नी, 1.3 ग्राम ‘रेशा’ आ 25 किलोकैलोरी ऊर्जा भेटैए।” 

ललित भाइक विचार सुनि मन तेना हरिया गेल जे हरहराइत मुहसँ बजा गेल- 

“भाय, उजरा बैंगन छोड़ि कऽ कहै छी आकि लगा कऽ?” 

अपना ऐठाम एकटा कहबी अछिए जे ‘अनका लोक उजरा बैंगन खाइसँ मनाही करैए आ अपने खाइए’। 

तैबीच ललित भायकेँ देवकान्त आँखिक इशारासँ कहलकैन जे जइ काजे आएल छी, तेकर चर्चे ने कऽ रहल छी आ दुनियाँ-दारीक गप-सप्पमे मतंग भऽ गेल छी। बेटाक इशारा पेब ललित भाय बजला- “एकटा काजे आएल छी, मकशूदन।” 

ललित भाइक विचार सुनि मन ठमैक गेल। ठमकैक कारण भेल जे जे ललित भाय अपने ओहन जीवनानुभवी छैथ जे एक नहि अनेको रंगक जीवनकेँ रग-रग बुझै छैथ, तैठाम किए पुछए एला? मुदा सुहरदे मुहेँ केना कहितिऐन जे अपने तँ ओहन अनुभवी बेकती छी जे अनको जीवन दान करै छी आ...। तँए मनक विचारकेँ मनेमे दाबि ललित भाइक विचारकेँ खोधियबैत बजलौं- 

“केहेन काजे आएल छी, भाय साहैब?” 

जहिना रचनाकार अप्पन रूचित विचारकेँ रचित करैसँ पहिने भूमिका (चौहद्दी) बान्हि रचना करै छैथ तहिना ललित भाय बजला- 

“मकशूदन, तोरा बुझल हेतह कि नहि, तँए पहिने कहि दइ छिअ।” 

ललित भाइक विचार सुनि अप्पन मनकेँ जगबैत बजलौं- 

“भाय, जँ बुझलो रहल हएत तँ से धियानपर नइ अछि, बिसैर गेलौं, दोहरा कऽ कहियौ।”

ललित भाय बजला- 

“बाबाक अमलदारीमे अप्पन नीक परिवार छल, माने आठ बीघा जमीन छल। मुदा अपना तक अबैत-अबैत ओ राँइ-बाँइ भऽ टुटि गेल।” 

ललित भाइक विचारक भाव तँ थोड़-बहुत बुझलौं मुदा राँइ-बाँइ केना भेलैन, से बुझबे ने केलौं। अप्पन मन मानिते अछि जे कोनो काज, चाहे ओ वैचारिक हुअ आकि क्रियागत, जेते ओकर तहक तहियाएल रूपकेँ सुनि-बुझि करब तेते नीक रूप ओकर होइते छइ। बजलौं- 

“भाय, कनी फरिछा कऽ कहियौ।” 

मन जहिना अप्पन चोटाएल वा मरियाएल विचारकेँ दोसराक मनमे प्रवेश करबैकाल खुशी होइए तहिना ललित भाइक मनमे सेहो भेलैन। ओना, ललित भाइक अप्पन मन मानिते छैन जे दुनियाँ चलायमान अछि, ओ अपना गतिये चलबे करत। मुदा जीवनो तँ जीवन छी, तहूमे मनुक्खक जीवन। जेकरा बुधि-विवेक छै, कर्म-शील अछि आ धैर्य-धारणक क्षमता आदि सभकिछु छै, ओ आन जीव-जन्तु जकाँ नइ ने अछि। आनो-आन जीव-जन्तुमे प्राण-शक्ति छै मुदा मनुक्ख जकाँ ज्ञान-शक्ति तँ नइ छै जे अप्पन जीवनकेँ परिमार्जित करैत आगू दिस बढ़त। ओ तँ मनुक्खेटा मे अछि। 

ललित भाय बजला- 

“अपना ऐठाम स्वतंत्रतासँ पूर्व, माने 1947 ई.सँ पहिने, जमीन-जत्थामे लूटि मचल छल। अखनो अछि, मुदा ओ अछि दोसर रूपमे, से अखन नइ कहब। अप्पन परिवारक जे बितल अछि सएह कहै छिअ।” 

ललित भाइक विचार सुनि अपनो मन मानि गेल जे अनेरे बीच अँगनामे बैस मेघक तरेगन जे गनैत रहब तइसँ की भेटत। एक्केबेर मानि लेब जे माथमे जेतेक केश अछि मेघमे तेते तरेगन अछि। बजलौं- 

“भाय साहैब, अनेरे दुनियाँक चक्करमे किए पड़ब। अप्पन चक्करकेँ पकैड़ चासिकऽ चौरस बनबैत चलैत रहू।” 

ललित भायकेँ जेना वैचारिक सह भेटलैन तहिना बजला- 

“जहिना बाबा सुभ्यस्त किसान छेला तहिना जमीनक निलामीक पछाइत एकाएक बेलल भऽ गेला। सभ किछु माने उपार्जित सम्पैत, हाथसँ निकैल गेलैन। मुदा दादी बड़ जीबठगर रहैथ, ओ बाबाकेँ कहलैन जे ‘जे भगवान मुँह चीर पैदा केलैन तिनकर बड़कासँ खेनाइ-पीनाइ लेबैन। अनेरे एते चिन्ता किए करै छी। केकरो मारने मरि जाएब, आकि अप्पन करनीसँ मरब-जीअब।’ अर्द्धस्वरूपा संगीक सह पेबिते जहिना केकरो मनमे शक्तिक आगमन होइए तहिना दादीक विचार सुनि बाबाकेँ सेहो भेलैन। अप्पन पचासी बर्खक जीवन मौज-मस्तीसँ बितौलैन। ओइ पीढ़ीक अन्त भेल, दोसर पीढ़ीमे बाबू-माए भेला। ओहो अप्पन जीवन ओहिना बितौलैन जेना अभावमे अभावी मनुक्खक जीवन होइए। तेसर पीढ़ीमे अपने छी, साठि बरख पार कइये लेलौं, तँए आब जीवनक कोनो ढुनि-ढेकार अछिए नहि।” 

निर्लोभ, निरुद्देश्य ललित भाइक विचार सुनि मनमे भेल जे किए ने पुछिऐन जे जखन कोनो खगता जीवनमे नहि अछि तखन कि पुछए एलौं। मुदा लगले अपने मन रोकि विचार देलक जे किए ने ललिते भाइक मुहसँ सुनि ली। बजलौं- 

“भाय, अपने कोन जोकर छी जे अहाँक..?” 

ललित भाय बुझि गेला। बजला- 

“मकशूदन, ओना अधला विचार लोक लग बजैमे संकोच होइए मुदा जँ निधोखसँ बाजी तँ एते तँ होइते अछि जे नीक-अधलाक बीचक खादिकेँ देखबैत लोक अप्पन विचार दइ छैथ। जइसँ अधलाक प्रति अंकुश लगिते अछि।” 

ललित भाइक विचार मनमे जँचल। बिनु विचारनहि मुहसँ खसि पड़ल- 

“अधला ने अधला भेल तँए ओकर परिमार्जन हएत, मुदा नीक विचार आकि नीक काजकेँ बजैक कोन खगता अछि।” 

ललित भाय बजला- 

“जहिना अधला काजक वा अधला विचारक प्रभाव हवा जकाँ आगू बढ़ैए तहिना नीकक सेहो अछि। तँए दोसर लग बजलासँ ओहूमे शक्ति अबैए। वएह शक्ति मनुक्खकेँ शक्तिवान बनबैए। जहिना वृन्दावनमे शक्ति-स्वरूपा राधाक सामूहिक शक्ति कृष्णकेँ शक्तिवान बनौने छेलैन, तहिना। जइसँ गोपीक झुण्डमे राधाक संग कृष्ण दिन-राति रास रचै छेला।” 

ललित भाइक विचार सुनि मन मोमवत कहियौ आकि पानिसँ घुलल माटि जकाँ, दलदल भऽ गेल। बजलौं- 

“आब अपना काजपर आउ भाय।” 

काजक नाओं सुनिते बेटा दिस देखबैत ललित भाय बजला- 

“देवकान्तकेँ तूँ चिन्है छहक की नइ?”

गामक एक्के टोलक दुनू गोरे जखन छी, तखन किए ने चिन्हतिऐन। मुदा दस बर्खसँ परदेश रहने देवकान्तक देहक सिख-लिखमे थोड़-थाड़ अन्तर आबिए गेल अछि। बजलौं- 

“किए ने चिन्हबैन।” 

ललित भाय बजला- 

“दस बरख बम्बैक जीवन बितौला पछाइत देवकान्त जखन करोनाक दौड़मे पुलिसक हाथे खूब मारि खेलक आ नोटबन्दीक समयमे नोट हथियौलक, तखन गामक सुरता खिंचलकै। आब ई गामेमे रहत, तँए बासभूमिक विचार करए आएल छी।” 

ललित भाइक विचार सुनि मन मोर जकाँ नाचि उठल। बजलौं- 

“भाय साहैब, जेतए बसी सएह सुन्दर देशक सुन्दर बास भेल, आ जइ प्रतापे जीबी वएह प्रतिपालक राजा भेला। पहिने जखन साधन विहीन लोक छल तँ ऊँचगर जमीनकेँ बास बना बसै छला, मुदा आब तँ साधन सम्पन्न लोक भऽ गेला अछि, तैपर गाम-गाममे रोड-सड़क सेहो बनि गेल अछि, तँए गामक अधिकांश जमीन बासभूमिक भइये गेल अछि।” 

ओना, देवकान्तक मन झुझुआएल मुदा ललित भाय बुझि गेला जे जे मनुक्ख अप्पन जीवन बनबैक शक्ति अपनामे रखने छैथ ओ अप्पन बासभूमि बनबैक शक्ति सेहो तँ रखनहि छैथ। ललित भाय बजला- 

“भने कहलह मकशूदन, सस्त जमीनक मूल्य सेहो बढ़त आ मरल जमीनमे जान सेहो औत।”

 

शब्द संख्या : 2639, तिथि : 31 मार्च 2023


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