जगदीश प्रसाद मण्डल : एक जीवनी
JAGDISH PRASAD MANDAL: EK JEEVANEE
Hindi Translation of the Maithili biography of Sh Jagdish Prasad Mandal “Jagdish Prasad Mandal- Ekta Biography” -Original Maithili by Sh. Gajendra Thakur. Hindi translation by Sh. Rameshwar Prasad Mandal
ISBN: 978-93-93135-40-7
दाम : 251/- (भा.रू.)
सर्वाधिकार © श्रीमती प्रीति ठाकुर
प्रथम संस्करण : 2023
प्रकाशक : पल्लवी प्रकाशन
तुलसी भवन, जे.एल.नेहरू मार्ग, वार्ड नं. 06, निर्मली
जिला- सुपौल, बिहार : 847452
वेबसाइट : http://pallavipublication.blogspot.com
ई-मेल : pallavi.publication.nirmali@gmail.com
मोबाइल : 6200635563; 9931654742
प्रिन्ट : मानव आर्ट, निर्मली (सुपौल)
आवरण : श्रीमती पुनम मण्डल, निर्मली (सुपौल), बिहार : 847452
अक्षर संयोजन : डॉ. उमेश मण्डल
फोण्ट सोर्स : https://fonts.google.com/,
https://github.com/virtualvinodh/aksharamukha-fonts
इस पुस्तक का सर्वाधिकार सुरक्षित है। कॉपीराइट धारक अथवा प्रकाशक के लिखित अनुमति के बिना पुस्तक की किसी अंश की छाया प्रति एवम् रिकॉडिंग सहित इलेक्ट्रॉनिक अथवा याँत्रिक, किसी माध्यम से या ज्ञान के संग्रहण व पुनर्प्रयोग प्रणाली द्वारा किसी भी रूप में पुनरुत्पादित अथवा संचारित-प्रसारित नहीं किया जा सकता है।
अपनी बात
‘जगदीश प्रसाद मण्डल : एक जीवनी’ हिन्दी में लिखते हुए मुझे अति गौरव महसूस हो रहा है। मैं ऐसे महान हस्ती की जीवनी लिख रहा हूँ जो महान रचनाकार-उपन्यासकार, कवि, नाटककार और कथाकार हैं। ‘पंगु’ उपन्यास के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से इन्हें नवाजा गया है। इन्होंने सौ से अधिक पुस्तकें लिखकर मिथिला-मैथिली को गौरवान्वित किया है। ये सही अर्थ में मानवता के सच्चे पुजारी हैं। इनके द्वारा किया गया कार्य सराहनीय है। ऐसे प्रसिद्ध लोकप्रिय रचनाकार की जीवनी लिखना गौरव की बात नहीं तो और क्या?
इससे पहले भी मैंने इनके द्वारा रचित एवम् साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत पंगु उपन्यास का भी हिन्दी रूपान्तरण किया है जो इनके द्वारा लिखित पुस्तकों का प्रथम हिन्दी रूपान्तरण है। इस प्रकार मुझे अन्य भाषा में (हिन्दी में) अनुवाद करने का प्रथम सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
मैथिली में लिखित ‘जगदीश प्रसाद मण्डल- एकटा बायोग्राफी’ लेखक श्री गजेन्द्र ठाकुर का हिन्दी रूपान्तरण ‘जगदीश प्रसाद मण्डल : एक जीवनी’ लेखक रामेश्वर प्रसाद मण्डल यह पुस्तक जो आपके हाथ में है, मैंने इसे कठिन परिस्थिति में रूग्णावस्था में लिखी है। परन्तु इसे लिखते वक्त मेरा मनोबल आसमान छुने लगता था। डॉ. उमेश मण्डल जी के सहयोग सहानुभूति उत्प्रेरक का काम करता रहा और मैं अपनी अस्वस्थता को भूल कर लिखता चला गया। मुझे सुकून इसलिए मिलता था कि मैं एक महान व्यक्ति की जीवनी एवं कार्य शैली को निखार रहा था और एक नेक कार्य कर रहा था। मैं गद-गद हूँ। बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक एवम् सम्पादक ने मुझे लत्ती, फूल और गुच्छे दिये थे, जिन्हे उचित स्थानों पर रखकर, सजाकर, गढ़कर अलंकृत कर मैंने पुस्तक की आकृति देने का प्रयास किया है। इसके लिए प्रिय गजेन्द्र जी को मन से बधाई देता हूँ। इस पुनीत कार्य को सफलता पूर्वक समापन में डॉ. उमेश मण्डल जी द्वारा जुटाये गये सबुत एवं तथ्य मणि-कांचन संयोग है। मैं इन्हें दिल से बधाई एवं शुभकामनाएँ देता हूँ।
विचार सन्देश एवम् उपदेश प्रचार-क्षेत्र एवम् इसकी दूरी पर निर्भर करता है। ज्यों-ज्यों क्षेत्र बढ़ता जाता है त्यों-त्यों ये बढ़ते जाते हैं। पाठको की संख्या बढ़े, अधिक दूर तक प्रचार हो तथा अधिक लोगों के हाथों में पुस्तक जा सके, अधिक लोग श्रवण कर सके और लाभान्वित हो सके। इसके लिए अन्य भाषा-माध्यम जरूरी है। इसलिए मैं मैथिली प्रेमी होकर भी मैथिली भाषा के क्षेत्र-विस्तार के लिए मैथिली से हिन्दी में अनुवाद करता हूँ। हिन्दी भाषा का पाँव आज विदेशी धरती पर भी जम गया है जैसे, मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, युगांडा, नेपाल, जर्मनी, अमेरिका, सिंगापुर, सा. अफ्रिका आदि देशों में। इसलिए मैं चाहता हूँ कि मैथिली का भी सिक्का दूर-दूर तक जम सके।
मैंने आदरणीय श्री जगदीश प्रसाद मण्डल जी से कई बार मुखातिब होकर उनके विलक्षण विचार का रसास्वादन किया है, उनकी जीवनी को सुना है, उद्गार को परखा है ताकि सबुत जुटाकर पुस्तक में सत्यता दर्शा सकूँ। मैं उन्हे सादर प्रणाम करता हूँ।
कीमती समय देकर तथ्यों एवम् सबुतों को जुटाकर मेहनत से लिखी गई यह पुस्तक मानवोचित व्यवहार के लिए एवम् प्रगति के लिए मील का पत्थर साबित होगी। मुझे आशा एवम् विश्वास है।
यह केवल पुस्तक ही नहीं है, विचार बिम्ब है, एक विशिष्ट मानव के अनुभवों का दर्पण है, भिन्न-भिन्न दर्शनीय स्थानों का झरोखा है, संघर्ष, साहस और त्याग की मंजूषा है। इस वक्त मुझे अपनी एक कविता की पंक्ति याद आ रही है-
“मानव से कैसे देवतुल्य
है बनते कैसे तुच्छ से पूज्य
किरणों की रश्मि किरणपुंज
मानव में कैसे मानव-मूल्य..।” (एकता कविता से)
यह पुस्तक सुधी पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। आप ऐसे महान साहित्यकार एवम् करतार को जान सकेंगें जो आज की तिथि में साहित्य-रण में शतक लगाकर क्रीच पर कायम है- पुस्तकों का पहाड़-संदेश-उपदेश का भण्डार के साथ। नि:सन्देह जगदीश बाबू मानवीय सागर में दिशाहीन नाविकों के लिए दिशा सूचक कम्पास सुई हैं।
इस पुस्तक को लिखने के लिए, इसे उचित साँचे में ढालने के लिए तथा आकार और सही रूप देने के लिए मुझे प्रेरित करनेवालों एवम् सहयोग-सलाह देनेवालों की लम्बी सूची हैं, पुरस्कृत युवा लेखक एवं पल्लवी प्रकाशन निर्मली के व्यवस्थापक डॉ. उमेश मण्डल जी, ख्यातिप्राप्त रचनाकार पुरस्कृत उपन्यासकार मैथिली-शिल्पी मिथिलांचल विभूति आदरणीय श्री जगदीश प्रसाद मण्डल जी, हिन्दी के विख्यात सुयोग्य प्रोफेसर श्री धीरेन्द्र कुमार राय जी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी सम्पादक एवं लेखक गजेन्द्र ठाकुर जी, श्रीमती प्रीति ठाकुर जी हिन्दी के मर्मज्ञ पूर्व पुस्तकालयाध्यक्ष गुरुदेव रामजी प्रसाद मण्डल जी, सहयोगी शिक्षक भरत मण्डल जी, जगदीश मण्डलजी, कथाकार एवम् समीक्षक दुर्गानन्द मण्डलजी, रचनाकार राजदेव मण्डलजी, लेखक राम विलास साहुजी, लालदेव कामतीजी, श्री नन्द विलास राय जी और पल्लवी प्रकाशन के आवरण दात्री श्रीमती पुनम मण्डल एवम् उदीयमान महिला लेखिका विदुषी सुश्री पल्लवी मण्डल तथा पल्लवी प्रकाशन के सभी कार्यकारीगण के प्रति आभार प्रकट करता हूँ तथा बधाई और धन्यवाद ज्ञापण करता हूँ। छोटों को आशीष एवं शुभकामनाएँ देता हूँ।
बन्धुवर! त्रुटि तो त्रुटि है। कोई भी मानव पूर्ण नहीं हो सकता। मुझसे भी त्रुटियाँ हुई होगीं, क्षमा-याचना है। वैसे, भाषा में त्रुटि स्वाभाविक है, क्योंकि बर्तनी, शब्द, वाक्य आदि भाषा के विचार हैं, जिनसे होकर भाषा को गुजरना पड़ता है। मैं एक बिम्ब प्रस्तुत करता हूँ।
बर्तनी, शब्द और वाक्य में
भाषा भाव के ताल में
कभी मध्य तो कभी तार
कभी आ जाते मंद्र सप्तक में
विचार में विकृति आती हैं।
लेखनी विचल हो जाती है।।
आप अपना बहुमूल्य सुझाव एवम् विचार अवश्य देगें। आपका सुझाव मेरे लिए उत्प्लावन बल जैसा कार्य करेगा। आप से मेरा यह भी अनुरोध है कि मैं भूले-बिसरे-अधूरे कार्यों को पूरा कर लेने का प्रयत्न करूँगा...।
सादर नमन... सधन्यवाद..
आपका ही
- रामेश्वर प्रसाद मण्डल
मो. 9973541877
सुन्दर भवन, निर्मली
20 सितम्बर 2022
जीवनी के लिए तो गद्य का प्रयोग होता है पर यदि जीवन श्रीराम का हो तो वाल्मीकि पद्य का प्रयोग करते हैं, क्योंकि उन्हें अयोध्या की छटा भी दिखलानी है और असीम समुद्र का विस्तार भी दिखाना है। परन्तु उसके अनुवादक कभी उसे गद्य या पद्यमे सामर्थ्यानुसार अनूदित करते हैं, सामर्थ्य मात्र अनुवादक का ही नहीं वरन् पाठक का भी। और अनुवाद केवल एक भाषा से दूसरे भाषा में ही नहीं होता वरन् एक ही भाषा में एक विधा से दूसरे विधा में भी होता है।
काम में मग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर क्रौंच को शिकारी ने बाण से मार डाला और उसकी रोती हुई मादा के विलाप को देखकर वाल्मीकि बोल पड़े-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती समा।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्॥
और इससे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ रामायण महाकाव्य का प्रारम्भ माना जाता है।
रामेश्वर प्रसाद मण्डल जी द्वारा किये गये अनुवाद में पद्य का प्रवेश अनुवादक द्वारा जगदीश प्रसाद मण्डल जी के चरित्र में प्रवेश कर जाने के ही कारण हुआ है, और वह पाठ के अनुवाद के कारण किसी सम्भावित क्षति की क्षतिपूर्ति करता प्रतीत होता है।
-गजेन्द्र ठाकुर
वसन्त कुञ्ज, नई दिल्ली
17 मार्च 2023
Comments
Post a Comment