भरि मन काज, जगदीश प्रसाद मण्डल

भरि मन काज

शासनतंत्रक सूत्र-नीतिसँ जहिना जीवन उठै-खसैए ठीक तहिना गियानचनकेँ अपन जिनगी देखि मन खसए-उठए लगलैन.! मन कहलकैन दुनियाँकेँ तखने ने जानि पाएब जखन अकास-सँ-पताल आ पताल-सँ-अकास देखैक अक्ष आँखिमे औत। मुदा से कोनो पैथक आई ड्रॉपसँ थोड़े औत ओ औत जखन जिनगीकेँ खन्तीसँ, ऐठाम कबीर बाबाक खन्ती नहि बुझब जे जगरनाथमे समुद्रक सीमापर जा कऽ खँतियौलैन, खुनि कऽ खत्ती बना खतियाएब, तखने ने खेत-पथारक खतियौन जकाँ जीवनोक खतिआन बनत। ओना, सभकेँ बुझल अछिए जे चौबीस घन्टाक भीतर दिन-राति होइए, मुदा दिनमे दिन केहेन भेल आ रातिमे राति केहेन भेल, यएह देखि पएब ने भेल दुनियाँमे अपनाकेँ देखि पएब.!

दिनमे दिन आ रातिमे राति की भेल? रातिक बीच एकटा राति ओहन अछि जे पूर्णिमाक चानसँ जगमगाइए आ दोसर राति की एहेन नहि अछि जइमे इजोरिया-इजोतक दरसो ने रहैए आ अमावाश्याक अन्हारक अन्हार छाड़ने रहैए? सेहो तँ अछिए.! मुदा दुनूमे जहिना अन्हार अछि तहिना इजोतो नहि अछि, से केना नहि कहल जाएत। हँ, एते देखमे जरूर अबैए जे पूर्णिमाक एकटा चान अन्हारकेँ डँसने रहैए आ दोसर अमावश्याक अन्हारकेँ लाखो-करोड़ो तरेगन डँसैले परियासरत रहैए। खाएर जे रहैए ओ प्रकृतिक खेल छी, मुदा जीवनक बीजक तँ से नहि छी, ओकर तँ अपन प्रकृति होइए जे अपन प्रकृतिगत रूपमे चलैत आबि रहल अछि।

एकाएक गियानचनक मन ओइ सीमापर पहुँच गेलैन जैठाम बनमानुख अपन दिन-रातिकेँ जोखै-तौलैए। एक सीमा परक दृश्य देखिते ज्ञानचनो भूत-भविसकेँ तराजूक दुनू पलड़ापर राखि वर्तमानक डण्डी पकैड़ जोखए लगला कि धक-दे एकटा बिसरल बात मोन पड़लैन। मोन पड़लैन, जहिना रामायण-महाभारत वा कबीरक बीजकक एक-एक पाँतिक एक-एक शब्दकेँ भिन्न-भिन्न रूपमे विभाजित करैत कियो अपन जीवनक पाँतीकेँ पँतियबैए, तहिना अपनो किए ने पँतियाबी।

ओना, गियानचनक अखनुक जीवन रोगाह भइये गेलैन अछि, जइसँ मनमे खिन्नता सेहो अपन जगह बना रहल छैन, मुदा उपाइये की? उपाय तँ ओइठाम अछि जैठाम जीवन अछि। जैठाम जीवने नहि रहत तैठाम तँ केहनो अट्टालिका किए ने बनौने रही, मुदा ओ भूताहि भइये जाइए।

मानि लिअ, अहाँ दिल्लीमे वा मुम्बइमे नोकरी वा बेपार करै छी जइसँ नीक कमान कमाइ छी, मुदा अखन धरिक जे अपना सभक ग्रामीण परिवारक इतिहास रहल, माने आइसँ बीस-तीस बरख पूर्वक, ओना तइसँ पहिनौंसँ गामक लोक सभ दिल्ली-मुम्बइक अट्टालिका देखि नेने छला आ पाइ कमेला पछाइत ओहो ओही अट्टालिकाक प्रवाहमे अपनो रहैक घर शहरोमे बनौलैन आ गामक जे अपन पूर्व-जीवन छेलैन, माने शहर अबैसँ पूर्वक, ओ तँ यएह ने कहलकैन जे गाममे पाँचो प्रतिशत परिवारसँ कम परिवारक घराड़ीपर पजेबाक नाओं लेल गेल अछि। गामक अतीतक दृश्य यएह ने छल जे आजुक परिवेशसँ बहुत दूर छल। गामक जे पूर्व सिनेह छेलैन तइ अनुकूल परदेशी भाय गामोमे रहैक घर बना लेलैन। देखिये रहल छी जे एक दिस मेट्रो ट्रेनक जरूरत अछि तँ दोसर दिस ढेरक-ढेर लोक बैसल-बैसल समय काटि रहल अछि। एक दिस स्कूल-कौलेजमे शिक्षक नहि अछि मुदा तेकरे दोसर दिस परीक्षाक रिजल्ट नीक भऽ रहल अछि।

अपन बहैत मनकेँ गियानचन ई कहि बोइस कऽ रोकलैन जे कबीर बाबा बिनु डन्डी-पलड़ाक तराजूपर दुनियाँकेँ जोखि लेलैन आ अपना बुते अपनो जीवनकेँ तौलल नहि हएत.! ..पहाड़ी झड़नाक पानि जकाँ गियानचनक मन पहाड़पर सँ उतरलैन। उतैरते जहिना झड़नाक झहरबकेँ पाथरक कोनो टुकड़ा पहाड़पर सँ खसि रोकिकऽ मुँह घुमा दइए तहिना गियानचनक मुँह घुमि गेलैन। मुदा जीवन तँ जीवन छी.! थर्मामीटरक पारा जकाँ जीवनकेँ हाथसँ पकड़ब कठिन अछिए। लीलाक संग जहिना रासलीला अछि तहिना ने कदमलीला सेहो अछिए.!

विचित्र स्थितिक बीच गियानचन अपना मनकेँ थीर करैक कोशिश करए लगला मुदा..। मुदा ई जे अखन तक गियानचन एतबे बुझै छला जे समाजमे बेटा वा पतिक मृत्युक पछाइत जहिना माए वा घरनीकेँ, समाजक दाइ-माइ यएह ने असीरवाद दैत कहै छैथ जे राजा-दैव अहिना होइए, तँए मनकेँ थीर करू। भलेँ असीरवादक माने–अर्थ–अपने बुझैथ वा नहि। मनकेँ थीर करब बाल-बोधक खेल नइ ने छी, ऐठाम महाभारतक प्रह्लादक बात नहि बुझब जे बालपनेमे मनकेँ थीर कऽ लेलैन। ऐठाम गियानचनक बात चलि रहल अछि।

जहिना जीवनक खेल असान अछि तहिना कठिन सेहो अछिए। तहूमे मनक खेलकेँ पकड़ब तँ आरो कठिन अछि। सभ जनिते छी जे ऐ संसारमे दुखसँ जीवन शुरू होइए आ अड़ना साँढ जकाँ मनक थीरता होइत जाइए। दुनियाँ तँ दू भागमे बँटाएल अछिए। एक भाग भेल दुखक दुनियाँ आ दोसर भाग भेल सुखक दुनियाँ। कबीर बाबा भनेँ ने कहने छैथ जे दो पाटन के बीच मे, बाँकी बचे ने कोइ। खाएर कबीर बाबाक अपन दिन छेलैन आ अपन दुनियाँ छेलैन मुदा गियानचनक तँ से नहि छैन। जे छैन सएह ने देखता। यहए ने देखता जे जहिना दुखोक डरे मन थरथरेने अथीर भइये जाइए, तहिना सुखोक जे मन होइए ओहूमे घब-घबी धैये लइए। ओल आकि अरिकंचन जकाँ पातो आ फलोमे कब-कबी आबिये जाइए जइसँ मन थिर होइत-होइत असथिर भइये जाइए। यएह तँ छी मन, जे अपन तीन तरहक खाना बनेने अछि, सुखक मन, दुखक मन आ दुनूक बीचक सु-दुखक मन।

एकाएक गियानचनक मनक किछु कुहेस छँटलैन। छँटिते दुनियेँ जकाँ अपन जीवनकेँ ध्रुवीकरण केलैन। जहिना भूगोलक भाषामे उत्तरी ध्रुव आ दच्छिनी ध्रुव अछि, जैठाम छअ मासक दिन आ छअ मासक राति होइए, तहिना ने जीवनोमे अन्हार-इजोत दुनू अछि। जैठाम छअ मासक राति हएत तैठाम कि अखुनका जकाँ लोक बिजलीक इजोतमे रातिकेँ दिन बना जीवन लीला करत आकि कुम्भकर्ण जकाँ सुतबे करत।

दुनियाँक ध्रुवीकरण नहि, अपने जीवनक ध्रुवीकरण करैत ने विद्यापति कलैप-कलैप कहलैन, आध जनम हम नीन गमाओल.!’ ..एक तँ आधा जीवन ओहिना चलि जाइए। बाँकी जे बँचल आधा अछि तइमे अपन शरीर क्रियाक संग जीवन-धर्मोक क्रिया तँ करबे अछि, तइले समाइये केते बँचैए.!

जिनगीक खेलसँ, माने परेशानीसँ गियानचनक मन भीतरे-भीतर अकछए लगलैन। ऐठाम ई नहि बुझब जे, जे दुनियाँ प्रिय धार बहबैक शक्ति अपना पेटमे रखने अछि, तइ दुनियासँ लोक थोड़े विरक्त हुअ चाहैए। ओ तँ महाजन जखन सूदक-सूद आ मूड़-मूड़क हिसाबक बेवहार जीवनमे आबि व्यक्त करैए तखन ने ऐ दुनियासँ लोककेँ अकच्छ लगैए। जइसँ मूसेक दबाइ खा वा गरदैनमे फँसरी लगा दुनियाँसँ अपनाकेँ मेटैबते अछि। कहब जे मूसक दबाइ तँ पुरान भऽ गेल, तहिना फँसरी लगाएब सेहो पुरान भऽ गेल, आब तँ एहेन बिजली आबि गेल अछि जे तुलसी बाबाक रामायणिक पाँती, मरैकाल बहुत भारी दुख होइए, माने प्राणान्त होइकालक दुख, सेहो बदलैले कहबे करै छैन। भाय! जीवन छी ने। वनमे जखन सीताक हरण भऽ गेलैन तखन राम जहिना गाछ-बिरीछकेँ पुछि-पुछि सीताक भाँज लगबए चाहलैन तहिना ने जीवनो छी। मृत्यु अमृतकेँ पुछि-पुछि पुछियाबए पड़ैए। सघन जीवनक वनमे जहिना जीवनकेँ तकैले निच्चाँमे उतरए पड़ैए, माने मूल लग जाए पड़ैए, नइ तँ पतालक पानि जकाँ ऊपरका-नीचला लेयरक पानिक गुण बुझबे ने करब, तहिना ने जीवनोक ताक ताकए पड़ैए। अयोध्यासँ निकलला पछातिये, माने जखन राम पँचवटी पहुँचला तखन, रामकेँ ढेरो लोकसँ भेँट भेलैन, मुदा ओइ ढेरीमे किछु गनले-गूथल ने मित्र बनलैन, बाँकी तँ ओहिना ने वनमे घुमैत रहि गेला। तहिना ने जीवनो अछि।

हाट-बाजार वा मेला-ठेलामे लाखो लोकक भीड़ रहैए मुदा तइमे सर-सम्बन्धी वा हित-मीतक संख्या कम रहिते अछि, ओही कमक सम्बन्ध ने जीवनक धार टपबैए। ऐठाम हम ई नहि कहै छी जे आजुक एहेन परिवेश बनि गेल अछि जइमे ने उपार्जनेक ठेकान अछि आ ने उपभोगेक। दुनू बेठेकान जकाँ भऽ गेल अछि। जीवनक जे आधार अछि ओकरा जाबे नहि ठेकनाएब ताबे जीवनकेँ ठाढ़ केना करब। जखन मनुक्खक रूपमे दुनियाँमे छी तखन जँ दुनियोँ आ अपनो ठेकान पेब लेब तखने ने दुनियाँक संग पएर-मे-पएर, माने गति-मे-गति मिला दुनियाँक धारक धारामे प्रवाहित होइत समुद्र पहुँचब। खाएर जे अछि, तइ सभसँ गियानचनकेँ कोन मतलब छैन। मतलब एतबे छैन जे समग्र रूपक जिनगी केना बनाकऽ सामाजिक रूपमे जीवन धारण केने रहता।

बजैक क्रममे सभ बजिते छी जे फल्लाँसँ उपकार भेल आ फल्लाँकेँ उपकार केलिऐ, एहेन विचार एकांकी जीवनक छी, मुदा जखन समग्र रूपमे अपनाकेँ ढालि चलब तखन यएह विचार उपकारक जगह अपन दायित्व भऽ जाइए। अपना समाजमे सभ बुझिये रहला अछि जे कोइ करे आप ले माए ले ने बाप ले। ..तखन जँ ई बुझबै जे हम माता-पिताक सेवा केलौं, तँ अपन दायित्व[1] की भेल?

जहिना पोखैर वा तालावमे देखल कोनो माछकेँ पकड़ैले बेर-बेर मछवाह जाल फेकैए तहिना ने जीवनोक मूल तत्त्व पकड़ैले कर्मक जालकेँ बेर-बेर फेकए पड़ैए। तहूमे ओइठाम जैठाम मटियार माटिक रस्ता अछि, जेकर दुनू पीठ पीछराह होइते अछि। पीछराहो की एक्के रंग होइए। पानिमे भीजल माटिक पीच्छर सेहो होइए आ बिनु पानिक माने रौदमे सुखल पीछराह सेहो होइते अछि। तैठाम तँ जीवन जीवाइन हेबे करत किने। अन्हार-इजोतक बीच खेलेनिहार मनुक्ख तँ छथिए। मानि लिअ जे हम कोनो काज निर्धारित केलौं, समय, परिवेश इत्यादि अनेको सोझामे अछिए, तइसँ जँ कम केलौं, तइयो गलत भेल आ जँ बेसियो केलौं तँ ओ की भेल, ओहो ने गलत्ते भेल। एक-एक क्षण विष अमृतक संग चलैत रहैए। तइले अपन विष-अमृतकेँ चिन्ह चलबे ने जीवन पएब भेल।

बजैक क्रममे सभ बजिते छी जे मनुक्खकेँ जीवनक स्वतंत्रता हेबा चाही, मुदा अधिकार आ कर्तव्यकेँ कातमे राखि कऽ नइ ने हएत? जहिना स्वतंत्र जीवन निर्गुण[2] अछि तहिना ने ओकर अपन सीमा सेहो अधिकार-कर्तव्यक बीच अछि। ऐठाम ईहो विचार बीचमे अछिए जे एक उपकार भेल अगुरवार, माने जिनकर कोनो उपकार ऊपरमे नहि अछि, तिनकर उपकार, दोसर अछि जीवनमे उधार उपकारक कर्ज। माने भेल जे जहिना जीवनक एक पलड़ा भेल जन्म आ दोसर भेल मृत्यु, तइ दुनूक बीच ने सभ छी, जे माए-बाप जन्मक पछाइत बच्चाकेँ धरतीपर ठाढ़ करै छैथ, ओते कएल काजक, ऐठाम सेवा नहि, दायित्वक दायित्व बेटा-बेटीक कपारपर चढ़िये जाइ छैन, जेकरा दायित्वपूर्ण उधार उपकार कहि-बुझि सकै छी। तहूमे एहेन दायित्व जे ने बिसरल जा सकैए आ ने छोड़ल जा सकैए। तैठाम जँ बेटा-बेटी माए-बापकेँ कहैथ जे अहाँ की केलौं, दुखद भेबे कएल। ऐठाम एकटा बात आरो अछि। ओ अछि जे दुखक सेहो सीमा नहियेँ अछि। तन-मन-धन-जन, केते कहब, असीम दुखक सीमान अछि। तैठाम दोसर बात सेहो अछिए। भलेँ ओ विपरीते किए ने हुअए मुदा अछि तँ जरूरे। की ओहन माए-बापकेँ ई नहि पुछल जानि जे जखन बेटाकेँ बेचि[3] नेने छी, तखन अहाँकेँ ओइ बेटा-पुतोहुपर कोन अधिकार बँचल अछि? जे मुँह उठा बेटा-पुतोहु दिस देखब। खाएर जे अछि, बुझले बात अछि जे जहिना समुद्र अछि तहिना समाजो अछिए। नीक-बेजा होइते रहैए। नीक-बेजाइक माने भेल, एकटा नीक एकटा बेजाए , मुदा एहनो नीक अछिए जे जगह आ समय पेब अधला बनि जाइए आ एहनो बेजा अछिए जे समय पेब नीक बनि जाइए। ऐठाम तँ वेदक मंत्र देखए पड़त किने, ‘गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।

जुड़शीतल पावनिक पोखरिक पानि जकाँ जीवन थहाएलो आ बलुआएलो तँ अछिए। जहिना एकटा धुरियाएल अछि तहिना दोसर सुढ़ियाएल सेहो अछिए। एहने फेड़मे पड़ि ने गियानचन ओझरा गेल छैथ। बेवश-बेकाबू भेल मन जेठक रौदियाएल हाथी जकाँ चितकार मनमे मारिये रहल छेलैन। एकाएक दरबज्जापर सँ उठि गियानचन अपन बाल मित्र- सुमतिलाल ऐठाम विदा भेला। मन तेते चितैर गेल छेलैन जे रस्ता, माने अपना ऐठामसँ सुमतिलालक घरक बीचक बाट, केना कटलैन से अपने बुझबे ने केलाह। मन असथिर रहितैन तखन ने बुझितैथ जे रस्ता अपना कटैए आकि अपने रस्ताकेँ काटै छी। उद्गिन देखि सुमतिलाल फरिक्केसँ बुझि गेला जे गियानचन समयक कोनो फेड़मे पड़ल अछि।

अखनुक दरबज्जाक चर्च नहि करै छी, पूर्वक मिथिलाक चर्च करै छी, समाजमे किछुए परिवार एहेन छला जिनका अपन परिवारसँ बेसी सुतै-बैसैक जगह दरबज्जाक रूपमे छेलैन। जेना-जेना पाछू उनैट देखब तेना-तेना पछुआएल स्थिति नजैरिक सोझमे औत। आइये नहि सभ दिनसँ अपना ऐठाम दरबज्जाक महत्व रहल अछि। परिचित-अ-परिचित सबहक लेल सार्वजनिक स्थल बना पूर्वज अपन मर्यादा बनौने छलाहे। मुँह देखि मुँगबा बँटैक कला छेलैन्हे। भुखल-दुखल वा रूखल-सुखल सभकेँ मुँगबा खुआ मुँह मिठा दरबज्जापर समय बितैबते छला। अखुनका चर्च नहि करै छी, जे गज-फीतासँ घराड़ियो नापल जाइए आ धरती-सँ-अकास धरिक बिकरी सेहो हुअ लगल अछि। मुदा तहू बीच की ओहन लोक नहि छैथ जिनका अप्पन घराड़ी नइ रहने इन्दिरो आवास नहि भेटै छैन? गरीबक सेवा तँ भइये रहल अछि, मुदा भीखमंगाक संख्या सेहो बढ़ि रहल अछि, ईहो ने देखब। जैठाम भीखमंगाक पेट नहि भरल अछि तैठाम सम्पन्नता की भेल।

सुमतिलालमे एते होश छेलैन्हे जे जहिना चेहरा देखि केकरो जीवन आँकि लइ छैथ तहिना मुँह देखि जीवन-चरित्रक बोध सेहो भइये जाइ छैन। उदिग्न चेहरा देखि सुमतिलाल गियानचनकेँ कहलैन-

आबह-आबह गियान। केतए हेराएल रहै छह।

सुमतिलालक विचार सुनि गियानचनक मनमे उठलैन जे जँ पहिने अपन मनोदशा कहबैन तँ ओ धड़फड़ा कऽ बाजब हएत। तँए पहिने किए ने अपन मनक विचार नहि कहि विचारक चौहद्दीए बान्हि ली। गियानचन बजला-

भाय साहैब, लोक तँ ओतए हेराइए जेतए अगम-अथाह समुद्र जकाँ जीवन देखैए मुदा जैठाम दुनियेँ हेरा गेल अछि तैठाम लोकक हेराएब केना भेल।

गियानचनक विचार सुनि सुमतिलाल बुझि गेला जे, जे गियानचन दुनियाँकेँ हेराएबक चर्च कऽ रहल अछि ओ अपने नहि हेराएल अछि, मन केतौ लसकामे लसैक गेल छइ। अपन विचार उठबैत सुमतिलाल बजला-

गियानचन, तेहेन समय आबि गेल अछि जे मन सदिकाल रेजानिस-रेजानिस रहैए। कखनो एक घन्टा बैस दोसरो-तेसरक जीवन-यापनक विचार करब से पलखैतिये ने होइए।

अपना जनैत सुमतिलाल सभ बात बाजि गेला मुदा गियानचनक उदिग्न मन रहने नीक जकाँ बुझबे ने केलकैन। गियानचन बजला-

सुमति भाय, भरि दिन औनैनी-बिलौनी धेने रहैए। केतबो मनकेँ जाँति कऽ राखए चाहै छी, से रहबे ने करैए।

गियानचनक भाव भूमि सुमतिलाल आँकि लेलैन, मुदा ठोह फाड़ि कहैसँ परहेज करैत बजला-

गियानचन, मन कि जाँतिकऽ रहैबला छी, उ तँ एहेन भूत छी जेकरा काजमे[4] जखन बान्हिकऽ राखल जाएत तखने जाँतिकऽ रहि सकैए, नहि तँ औनेबो-वौएबो करत।

सुमतिलालक विचारक शब्द सुनि गियानचन भावुक भऽ गेला मुदा शब्दक भीतर जे मर्म अछि से बुझबे ने केलैन। विह्वल होइत पुछलखिन-

से केना भाय साहैब?”

गियानचनक विह्वलता देखि सुमतिलालक मन विचार देलकैन माने सुमतिलालकेँ कहलकैन, खिस्सा-पिहानीसँ लोक बेसी बुझैए आ सोझे शब्दवाणसँ कम बुझैए। कथा-पिहानीमे ई शक्ति केना अबैए, से अखन नहि, अखन बस एतबे जे शब्द-शक्ति जेते मृत्युवान अछि तइसँ कम कथाशक्ति अछि। सुमतिलाल बजला- एकटा खिस्सा सुनबै छिअ, गियानचन। एकटा ऋषि रहैथ, अपन सम्बन्ध दुनियासँ हटा अपनाकेँ अपनेमे समेट नेने छला तँए असगरे रहैथ।

बिच्चेमे गियानचन बजला-

पत्नियोँ ने रहैन?”

सुमतिलाल बजला-

कियो ने रहैन। संयोगसँ एकटा भूत आबि उपद्रव करए लगलैन। कहियो कॉपीक पन्ना उलटा कऽ राखि दैन तँ कहियो किताबक जगहे बदैल कऽ राखि दैन। तंग होइत ओ ऋषि भूतकेँ कहलखिन, तूँ एना किए करै छह? तैपर ओ भूत कहलकैन, हमरा संच-मंच बैसल नीक नइ लगैए। तँए उपद्रव करै छी। ऋषि कहलखिन, बस तहीले। हाथक इशारासँ आगूमे ठाढ़ भेल आमक गाछकेँ देखबैत ऋषि कहलखिन, ऐ गाछपर सदिकाल चढ़ैत-उतरैत रहह। भूत सएह करए लगल। तइसँ ऋषि चैन भऽ गेला।

सुमतिलालक सभ बात गियानचन नहि बुझि सकला मुदा एते तँ बुझबे केलाह जे भरि मन काज जखन केकरो भेट जाइए तखन अनायासे ने जीवन पाबि जाइए।

गियानचन बजला-

भाय साहैब, अखन जाइ छी। फेर कहियो..।

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शब्द संख्या : 2281, तिथि : 12 अप्रैल 2022


[1] कर्तव्य

[2] निरविचार

[3] विवाहक दहेज रूपमे

[4] कर्ममे


 

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