संचरण (कथा संग्रह) जगदीश प्रसाद मण्डल

आने दिन जकाँ जहिना गोविन्द दरबज्जासँ निकैल दच्छिनमुहेँ दस डेग बढ़ला कि महेन्द्र सोझामे देखि पड़लैन। ओना, गोविन्दक मनमे ई नहि उठलैन जे जखन महेन्द्रक घरक लग छी तखन पहिने महेन्द्र ने आग्रह करैत किछु पुछता। ओना, गोविन्दक नजैर महेन्द्रकेँ देखि लेलकैन मुदा महेन्द्र दोसर धुनिमे छला तँए गोविन्दपर नजैर नहि पड़ल छेलैन। जखन दुनूक बीच एकउमेरिया दोस्तियारे छैन तखन पहिले-पाछुक कोन विचार अछि। विचार अछि तत्क्षण दुनियाँक बीचक जीवन देखब। नजैर पड़िते गोविन्द बजला-
“दोस, की हाल-चाल?”
गोविन्द मुँहक शब्द महेन्द्रक धियान तोड़ि जवाब मंगलकैन। जहिना समाजमे अखन धरि चलैन रहल अछि जे पोथीक भूमिका जकाँ पहिने लोक अपने-आपकेँ देखैत बजबे करै छैथ जे हाल-चाल नीके अछि तहिना महेन्द्र बजला-
“सभ ठीके-ठाक अछि।”
गोविन्द पुछलखिन- “गामक की हाल-चाल अछि?”
‘गाम’ सुनि महेन्द्रक मन चौंकलैन। चौंकलैन ई जे गाम कि कोनो हमरेटा छी जे प्रेस रिपोर्टर जकाँ भरि गामक हाल-चाल बटोरैत रहब.! महेन्द्र बजला-
“दोस, अपन गामक कि हाल-चाल अछि से कहबे ने केलौं आ अगुआ कऽ पुछै छी?”
महेन्द्रक विचार सुनि गोविन्दक मन सिहरलैन। सिहैरते विचार उठलैन जे दोस ठीके कहलैन। अपनो तँ समाज अछिए, पहिने अपन समाजक हाल-चाल कहबैन तखन ने हुनको समाजक हाल-चाल सुनब। एहेन नहि ने जे जेहो दोसर ले किछु ने केलक अछि, अपने नून-रोटीक झिंग्गा-झपटमे व्यस्त रहल अछि, ओहो बेर-बेगरता पड़लापर समाजकेँ दोख लगा बजिते अछि जे समाज कि समाज छी, समाजक नाङैर छी, जे ने गाइक थन जकाँ दूध दइए आ ने बरदक कन्हा जकाँ कान्हपर पालो लऽ कऽ खिचैए। ओ तँ सहजे अपने नाङैर छी, बड़ करत तँ माछी-मच्छर उड़ौत। जँ एतबो विवेक बजनिहारमे जागि जानि जे अपन कएल कि सभ समाजमे अछि। माने दोसरकेँ हमरासँ की सहयोग भेटल, जेकर मांगमे समाजकेँ दोख लगबै छी.! मुदा तइ सभसँ थोड़े हएत। थूका-थूकी केने समाजक रस्ता थोड़े धुआएत। ओ तँ धुआएत नीक ढंगसँ, माने सही ढंगसँ निमरजना केने, से तँ हमहीं-अहाँ ने करबै। अपन घर-दुआरकेँ अपन जीवनक आधार बुझि साफ-सफाइ तखन ने करब, जखन अपन बुझबै। आइ देशक सामने साफ-सफाइक समस्या अछि मुदा ओ साफ के करत। जेकरा करक चाही से अपन बुझिते ने अछि। नइ बुझैए आ किए ने बुझैए, से अखन नहि, अखन एतबे।
गोविन्द बजला-
“दोस, विवेक बाबासँ भेँट करैक विचार मनमे उठल, सएह हुनके ऐठाम जाइ छी। जँ समय हुअए तँ चलू दुनू गोरे।”
विवेक बाबाक नाओं कानमे पड़िते महेन्द्र बजला- “दोस, अपने आँखिये तँ नहि देखलौं अछि मुदा उड़न्ती सुनलौं हेन जे विवेक बाबा मृत्युसजियापर, भीष्म पितामह जकाँ पड़ल छैथ।”
महेन्द्रक विचार सुनि गोविन्द समाजकेँ निहारए लगला। समाजो तँ समाज छी। अनेको रंगक समाज अछि जे दुनियाँक बोली-वाणी आ आचार-विचारमे अन्तर रहितो समाज जकाँ सभ समाज अछिए। अनेको रंगक बोलियो-वाणी आ चालियो-चलैनिक लोक समाजमे बास करिते छैथ। बिहिया कऽ जँ देखब तँ बुझि पड़त जे एक-एक बीहमे अनेको रंगक जीवन अछि। माने ई जे रामचरित मानसपर समाजमे अधिकांश लोकक बिसवास छैन्हे जे धर्मग्रन्थ छी। मुदा जखन आगू बढ़ि देखै छी तखन की देखै छी जे राम केतौ परब्रह्म छैथ तँ केतौ राजकुमार। कखनो मनुक्ख जकाँ बिआह करए जाइ छैथ तँ कखनो सीताहरण भेने कानि-कानि गाछो-बिरीछसँ सीताक पता बुझए चाहै छैथ इत्यादि-इत्यादि..। अहिना देखब जे एक-एक काजकेँ करैक हजारो रूप अछि। एक्के काज कियो एक मिनटमे करै छैथ, तँ किनको घन्टो लागि जाइ छैन। माने ओहने काज करैमे दोसरकेँ एक घन्टा वा एक दिन समय लागि जाइए। की काजक विकटता बढ़ि जाइए वा अपन अज्ञानता काजकेँ जटिल बना समय बढ़बैए? जहिना अर्थक उपार्जनमे अनेको दिशा अछि तहिना समाजक दिशामे सेहो अछि। एहना स्थितिमे मनुक्खक निर्माण केना हएत? ओना, निर्माण लेल अनेको दिशा अछिए। दुर्भाग्य कहियौ कि सुभाग्य, शुरूहेसँ माने वैदिक पद्धतियेसँ, जे भारतीय जीवन धारण करैक मूल आधार छी, तहीठामसँ प्रकृतानुकूल विरोधाभासी विचार सेहो रहल अछि। जइसँ मनुक्ख-मनुक्खक निर्माणक प्रक्रिया भिन्न-भिन्न भइये गेल अछि जे विषमताक निर्माण करिते अछि आ आगूओ करत।
समाजक एक-एक बीहकेँ बीहियाकऽ जखन देखए लगब तखन देखब जे सभ समाजक समाज यहए कहै छैथ जे समाज उन्नतिक दिशामे बढ़ए। मुदा सामाजिक ढाँचा जे अछि तेकरा कोन रूपसँ सजौल जा रहल अछि?
घर-घर मोबाइलक प्रवेश भेल अछि, तैठाम बच्चाक हाथमे मोबाइल माए-बाप दए भूत-प्रेतक रूप देखबै छैथ, की अहीसँ समाजक भविष्यक निर्माण हएत? बौधिक स्तरमे तर्क सेहो पैघ बाधा छीहे। सत्य वा विवेकक कोनो तर्क कारगर नहि होइ छै। समाजक कोन रूप समाजपर लादल जा रहल अछि, ओइ रूपकेँ तँ पकड़ए पड़त किने। अखन धरिक जे आस्था वा बिसवासक आधार रहल अछि ओ सदिकाल भय पैदा करैत रहल अछि। एहेन काज करब तँ एहेन पाप हएत, जइसँ एहेन नर्कमे बास हएत। नर्को कि कोनो साधारण नर्क, आगिपर तेलक कराह चढ़ा गर्म कएल जाइए आ ओइ तप्पत तेलमे मनुक्खकेँ डुमौल जाइए..।
आइ हम सभ एकैसमी सदीक वैज्ञानिक युगमे छी। जैठाम हमरा हाथमे शिक्षाक ओहन माध्यम, अखन हम बच्चाक सीखबक चर्च नहि करब जे बच्चा परिवारजनक काज देखि काज सीखैत आ स्कूलमे गुरुजीसँ जे शिक्षा पबैत, आबि गेल जे सबहक लेल परियाप्त अछि तखन जँ स्वावलम्बन जीवनमे नहि आनि सकब तँ भय मुक्त निर्भय मनुक्ख बनि केना सकब।
समाजक एक-एक अंग देखियौ। सइयो रंगक सम्प्रदायसँ जुड़ल समाजक लोक छैथ। समाज किए कहबै जे परिवारो तँ एहेन बनियेँ गेल अछि जे एक-एक परिवारमे अनेको रंगक साम्प्रदायिक बेवहारक चलैन आइये नहि, बहुत पहिनेसँ आबि रहल अछि। सभ सम्प्रदाय अपन-अपन विचारक आधारपर जीवन निर्माण करैक दिशा देखबैए। मुदा ओइमे समाजक समरसताक की रूप छै, से तँ अपने नजैरिये देखने ने बेसी बिसवास हएत। आकि जहिना कृष्ण अर्जुनकेँ कहलैन जे अहाँ अपन मन दिअ, हम अहाँकेँ जीवन देब तहिना समाजमे की ओहन लोक नहि छैथ जे कृष्णक रूप गढ़ि मन मंगै छैथ आ दाता अपन मन ‘हँ’ कहि दइ तँ छथिन मुदा जीवनमे की बदलाव अबै छैन.?
जाबे जीवनक कर्म नहि बदलत ताबे अपन कर्म केना सुधरत। तहूमे कर्मसँ विमुख भेने, आरो कर्म भागि रहल छैन। तेहेनठाम नटकिया कृष्ण अपन कोन बापक घरसँ आनि कऽ जीवन देता।
साम्प्रदायिक जीवन पद्धति विरोधाभासी धारामे आबि रहल अछि जे शुरूहेसँ ‘ब्रह्म सत्य’ कि ‘जगत सत्य’, प्रश्न बनि ठाढ़ भेल। जहिना-जहिना आगू व्याख्यायित होइत गेल तहिना-तहिना सम्प्रदाय ससरैत-चतड़ैत गेल। खाएर जे अछि मुदा एते तँ सबहक सोझामे प्रश्न अछिए जे जीवन ले की करक चाही। माने जीवनक जे मूल तत्त्व अछि जे समयानुकूल जीवन पाबि समयक गतिक संग अपनो ओहिना गतिशील भऽ गतिमान बनी, तइले की करक चाही। ई दीगर बात अछि जे पैघ-पैघ वैज्ञानिक वा आनो-आन विद्वत समाज, अपना क्षेत्रमे जे होथि मुदा आन क्षेत्रमे बाल-बोध भऽ जाइ छैथ। तहिना आनो-आन तरहक मनुक्खमे अछिए। तैठाम समरस समाजक निर्माण केना हएत.?
जाधैर दैनिक विकास, इन्द्रिय विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकासक संग भावात्मक विकास नहि हएत, ताधैर अहिना होइत रहत। समाजमे आइ जरूरत भऽ गेल अछि जे भावात्मक रूपमे सम्बन्ध बना, जीवनक जे मूल समस्या अछि ओकर निराकरणक दिशा बनौल जाए।
जखने जीवन अछि तखने जीबैक बाट तँ बनबए पड़त। आ जँ से नहि बनाएब तखन जँ स्वतंत्र देशक स्वतंत्र नागरिकक अपन हैसियतकेँ बुझब तँ बुझब जे अपने बुधि अपना मनकेँ ठकि रहल अछि। अपनो तँ परमात्माक आत्मा छीहे, विवेकसँ विचार करू। जीवनक हर क्षेत्र विषमतासँ भरल अछि, जे अपनो आँखिये सभ देखिये रहल छी।
आइ शिक्षाक क्षेत्रमे की अछि। जे वास्तवमे, माने मनोनुकूल काज करैमे पूर्ण सक्षम सोभावक बेकती छैथ ओ कतिआ कऽ कात फेंकल जा रहल छैथ आ शिक्षाक ओहन ढाँचा बनि गेल अछि जे नीक-सँ-नीक माने पैघ-सँ-पैघ अनुभव प्राप्त करैले पैघ-सँ-पैघ, बेसी-सँ-बेसी मूल्यवान भऽ गेल अछि, माने आर्थिक रूपेँ महग बनि गेल अछि, जे भारत सन देशमे केते लोककेँ सम्भव अछि? प्रतिभाक दमन भऽ रहल अछि पाइक मूल्य बढ़ि रहल अछि। जैठाम ज्ञानक क्षेत्र प्रतिभासँ प्रज्ज्वलित होइत ज्योतिर्मय हेता से भुमहुर आगि बनि शोषणक इंधन बनल छैथ।
आर्थिक क्षेत्रमे सेहो तहिना अछिए। सोझामे देखिते छी जे हड़तोड़ मेहनत केनिहारकेँ केते मेहनताना भेटै छैन आ सत्ता-ठीकेदार जुआ खेलेनिहारक आमदनी केहेन छैन। एहेन जे विषमताक स्थिति समाजमे व्याप्त अछि, तेकरा समरस समाज बनाएब धिया-पुताक खेल नहि ने छी। कहब जे एहेन हएत केना?
एहेन प्रश्नक एकसूत्रीय उत्तर अछि नहि जे धाँइ-दे कहि देब- ‘कर्म कर्मक जनक छी।’ मूलत: भावात्मक रूपकेँ सशक्त बनबैक अछि। जे किछु देखि रहल छी ओ भावात्मक विषमताक कारण छी। गोविन्द बजला-
“द्वापर युगक भीष्म पितामह सन ने ज्ञाता भेटता आ ने ओते छेदक सजियापर पड़ल दोसर कियो भेटता। यएह तँ खेल छी।”
ओना, महेन्द्र गोविन्दक विचार कानसँ सुनलैन तँ मुदा मनक भावकेँ नीक जकाँ नहि बुझि सकला जे दोस की कहलैन। ओना, दोस्तियारे ओहन सम्बन्ध छीहे जे एक-दोसर अपनाकेँ हीन वा श्रेष्ठ नहि बुझैत, किए तँ समतल जीवन बनबैयोले ने दोस्तियारेक जरूरत होइए।
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साभार :मृत्युसजियापर पड़ल विवेक बाबा
© जगदीश प्रसाद मण्डल

SANCHARAN (संचरण) 

Collection of Maithili Stories by Shri Jagdish Prasad Mandal  


प्रकाशक : पल्लवी प्रकाशन  

तुलसी भवन, जे.एल.नेहरू मार्ग, वार्ड नं. 06, निर्मली 

जिला- सुपौल, बिहार : 847452 


वेबसाइट : http://pallavipublication.blogspot.com 

ई-मेल : pallavi.publication.nirmali@gmail.com 

मोबाइल : 6200635563; 9931654742  


प्रिन्ट : मानव आर्ट, निर्मली (सुपौल)

आवरण : श्रीमती पुनम मण्डल, निर्मली (सुपौल),  बिहार : 847452  


दाम : 250/- (भा.रू.) 

सर्वाधिकार © श्री जगदीश प्रसाद मण्डल 

पहिल संस्करण : 2022 


ISBN : 978-93-93135-16-2


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